-एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

वर्तमान में शहरों में सड़कों, नालियों और गटर सफाई का काम अधिकतर सफाई कर्मियों द्वारा हाथ से किया जाता है. इसमें सड़कों, नालियों और गटरों तथा शुष्क टट्टियों की सफाई हाथ से की जाती है. यह सर्वविदित है कि इस कार्य में लगे लगभग सभी कर्मचारी दलित वर्ग से आते हैं. इन लोगों का वेतन बहुत कम रहता है जो कुछ परिस्थितियों में सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम रहता है. नगरपालिकाएं और नगर महापालिकाएं अपना खर्च कम रखने के लिए सफाई कार्य हेतु ज़्यादातर ज़रुरत से कम कर्मचारी रखती हैं. इन कर्मचारियों को वेतन भी समय से नहीं मिलता है जिस करण वर कर्ज में दुबे रहते हैं. कुल मिला कर इन कर्मचारियों का बहुत शोषण होता है.

यह सर्वविदित है कि सफाई का कार्य एक कठिन कार्य है क्योंकि इस में लगे कर्मचारियों के कई प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाने का बहुत बड़ा खतरा रहता है. इस के साथ ही इस कार्य से जुड़े व्यक्तियों को नीच माना जाता है और उनसे घृणा की जाती है. क्योंकि इस कार्य को दलित ही करते हैं अतः आज तक किसी ने भी इस कार्य के आधुनिकीकरण की कोई ज़रूरत नहीं समझी है. आज भी टट्टियाँ, नालियाँ तथा गटर हाथ से साफ़ किये जाते हैं. इस के लिए कर्मचारियों को नाक ढकने के लिए पट्टी तथा पैर और टांग ढकने के लिए गम बूट्स एवं कूड़ा ढोने के लिए हथठेला आदि भी उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं.

यह विदित है कि विदेशों में भी सफाई कार्य किया जाता है और उसे सफाई कर्मचारी ही करते हैं परन्तु वहां पर यह काम अधिकतर मशीनों/उपकरणों द्वारा किया जाता है और सफाई कर्मचारी उस प्रकार के खतरों से बचे रहते हैं जिस प्रकार के खतरों का सामना हमारे देश के सफाई कर्मचारी करते हैं. हमारे देश में बीमारियों के इलावा भारी संख्या में सफाई कर्मी ज़हरीली गैस वाले गटरों की सफाई करते हुए मरते हैं. क्योंकि गटर सफाई का अधिकतर काम निजी ठेकेदारों के माध्यम से कराया जाता है अतः मौत हो जाने की दशा में उन्हें मुआवजा भी नहीं मिलता है. जहाँ कहीं सम्बंधित कर्मचारी नगरपालिका का नियमित कर्मचारी होता भी है वहां पर भी नगरपालिका आर्थिक तंगी का बहाना बना कर बहुत थोडा मुआवजा देती है.

अतः सफाई कार्य की उपरोक्त खतरनाक परिस्थितियों को देखते हुए यह ज़रूरी है कि उक्त कार्य का आधुनिकीकरण किया जाये. इसमें हाथों की बजाये अधिक से अधिक मशीनों/उपकरणों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. परन्तु ऐसा लगता है कि जब तक इस कार्य में केवल दलित ही लगे रहेंगे तब तक किसी को भी इसका आधुनिकीकरण करने की ज़रुरत महसूस नहीं होगी. इसके लिए ज़रूरी है कि वर्तमान में इस कार्य में लगे दलितों को इस कार्य का बहिष्कार करना चाहिए ताकि इस कार्य को करने के लिए सवर्ण जातियों के लोग भी बाध्य हो जाएँ. जब ऐसी स्थिति आएगी तो सवर्ण जातियां स्वयम् इस के आधुनिकीकरण की बात सोचने लगेंगी. इस दिशा में गुजरात के दलितों ने मरे जानवर न उठाने तथा गटर साफ़ न करने का जो आन्दोलन शुरू किया है उसका अनुसरण पूरे देश के सफाई कर्मियों को करना चाहिए.

जैसाकि सब अवगत हैं मोदी सरकार पिछले काफी सालों से स्वच्छता अभियान चल रही है और सफाई के नाम पर आयकर के साथ सभी आयकर दाताओं से टैक्स भी ले रही है। परंतु इस सब के बावजूद अभी तक समग्र स्वच्छता की स्थिति में कोई विशेष सुधार दिखाई नहीं देता है। हाँ इसके नाम पर बड़े बड़े पोस्टर तथा विज्ञापन जरूर लगे जा रहे हैं तथा नेताओं के साफ जगह पर झाड़ू मारते हुए फ़ोटो छाप रहे हैं। अभी तक सफाई कार्य का न तो आधुनिकीकरण हुआ है और न ही मशीनीकरण।

मोदीजी के स्वच्छता अभियान के प्रचार- प्रसार पर जितना पैसा खर्च किया गया है, यदि वह पैसा गटर सफाई के लिये मशीनों के खरीदने तथा सफाई कार्य का मशीनीकरण एवं आधुनिकीकरण करने पर खर्च किया गया होता तो प्रति वर्ष हज़ारों की संख्या में गटर सफाई के दौरान मरने वाले सफाई कर्मचारियों की जान बच सकती थी। इसके साथ ही सफाई कार्य में ठेका प्रथा भी रोकी जा सकती थी। इसके लिये जब तक सफाई कर्मचारी लामबन्द हो कर संघर्ष नहीं करेंगे तब तक सफाई कार्य का मशीनीकरण एवं आधुनिकीकरण होने वाला नहीं है। इसके बारे में फैसला सफाई कर्मचारियों को ही करना है। उन्हें बाबासाहेब का “भन्गी झाड़ू छोड़ो” नारा हमेशा याद रखना चाहिये। याद रखिये बाबासाहेब ने कहा था,”छिने हुए अधिकार जालिमों के आगे हाथ जोड़ने से नहीं मिलते, उन्हें तो निरंतर संघर्ष करके छीनना पड़ता है।”