पृथ्वी बोल रही है, लेकिन क्या हम वास्तव में सुन रहे हैं?
अंतर्राष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्त दिवस पर डॉ रूपल अग्रवाल का विशेष लेख

हर सूर्योदय के साथ, पृथ्वी हमारे कानों में अपने सत्य की फुसफुसाहट करती है — पेड़ों की सरसराहट, नदियों की सरगम, विलुप्त होती प्रजातियों की ख़ामोशी और रिकॉर्ड तोड़ती गर्मी मे लू के थपेड़ो के ज़रिए। प्रकृति सिर्फ़ घटनाएं नहीं भेज रही है, वह संदेश भेज रही है — चेतावनी, निवेदन और कभी-कभी एक मौन चीख। इस अंतर्राष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्त दिवस 2025 पर, जब वैश्विक विषय है “प्लास्टिक प्रदूषण का अंत करना”, तो सवाल और ज़ोर से उठता है: पृथ्वी बोल रही है, लेकिन क्या हम वास्तव में सुन रहे हैं?
हम अक्सर उंगलियाँ सरकारों और उद्योगों की ओर उठाते हैं — और हाँ, उनकी जिम्मेदारी भी बड़ी है — लेकिन क्या हम अपने दायित्व से मुंह मोड़ सकते हैं? सच्चाई यह है कि हमारे रोज़मर्रा के छोटे-छोटे फैसले, हमारी आदतें, और हमारी सुविधा की चाहत भी इस संकट को गहराने में अहम भूमिका निभा रही हैं।
जब हम किराने की दुकान से प्लास्टिक की थैली उठा लेते हैं, या किसी कैफे में प्लास्टिक स्ट्रॉ से पेय पीते हैं — तो हम अनजाने में उस समस्या का हिस्सा बन जाते हैं, जो धरती का दम घोंट रही है। ये वस्तुएं — जैसे एक बार इस्तेमाल होने वाले चम्मच, प्लेट, बोतलें, और पैकेजिंग — सुविधा के नाम पर बनाई गई थीं, लेकिन अब ये असुविधा का सबसे बड़ा कारण बन चुकी हैं।
दुर्भाग्य से, हम न केवल इनका अत्यधिक उपयोग करते हैं, बल्कि इन्हें सही तरीके से फेंकना भी नहीं जानते। प्लास्टिक कचरे को सामान्य कचरे में मिलाना, खुले में फेंक देना, या रीसाइक्लिंग के नियमों की अनदेखी करना — यह सब मिलकर हमारे जल, वायु और मिट्टी को ज़हर बना रहा है।
हर बार जब हम सोचते हैं कि “एक बार से क्या फर्क पड़ता है”, उसी क्षण लाखों लोग भी वही सोचते हैं — और यही ‘एक बार’ मिलकर करोड़ों टन प्लास्टिक प्रदूषण में बदल जाता है।
हर साल दुनिया भर में 430 मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है — और इसमें से एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारी धरती की सबसे पवित्र जगहों तक पहुंच चुका है: समुद्रों की गहराइयों में, जंगलों की नज़रों से दूर पगडंडियों में, और सबसे चौंकाने वाली बात — हमारे खून और शरीर के भीतर तक।
जब एक समुंद्री पक्षी प्लास्टिक की बोतल का ढक्कन निगलता है, यह उसकी भूख नहीं, हमारी लापरवाही की कहानी कहता है। जब माइक्रोप्लास्टिक मानव गर्भनाल में पाए जाते हैं, तो यह केवल विज्ञान नहीं, एक चेतावनी है — कि हमने अपनी आने वाली पीढ़ियों तक को नहीं छोड़ा।
यह संकट अब केवल पारिस्थितिकी तंत्र का संकट नहीं रहा — यह हमारे अस्तित्व का संकट बन चुका है।
मरते हुए कोरल रीफ्स, प्लास्टिक से भरी नदियाँ, और हर साल समुद्र में डूबती लाखों टन प्लास्टिक — यह सब संकेत हैं कि प्रकृति की सहनशीलता अब अपनी अंतिम सीमा पर है।
प्रकृति हमें पुकार रही है, लेकिन अब वह फुसफुसा नहीं रही — वह चीख रही है।
अब निर्णय हमारा है — हम सुनते हैं या अनदेखा करते हैं।
भारत, जो न केवल एक विशाल जनसंख्या वाला देश है बल्कि प्लास्टिक उत्पादक देशों में भी अग्रणी है, अब बदलाव की दिशा में क़दम बढ़ा रहा है | भोपाल में, भारतीय रेलवे के कर्मचारियों ने “ग्रीन शपथ” लेकर पेड़ लगाए और प्लास्टिक उपयोग को कम करने का प्रण लिया। कर्नाटक में, रिवर्स वेंडिंग मशीनें प्लास्टिक बोतलों के बदले ₹1 वापस देती हैं — ताकि रीसाइक्लिंग आदत बने, बोझ नहीं। उत्तर प्रदेश के इटावा में, विश्व कछुआ दिवस पर संरक्षणकर्ताओं ने यह संदेश दिया कि हर जीव — चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो — पारिस्थितिक संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
ये केवल कार्यक्रम नहीं हैं — ये पृथ्वी की पुकार का जीवंत उत्तर हैं। पृथ्वी हमसे परिपूर्णता नहीं मांगती — वह केवल इतना चाहती है कि हम उसका साथ दें।
अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्त दिवस सिर्फ तारीख़ों में दर्ज़ एक दिन नहीं होना चाहिए, बल्कि यह एक प्रेरणा बननी चाहिए — हर दिन के लिए, हर नागरिक के लिए। हमें ऐसे बदलाव की ज़रूरत है जो केवल दिखावे तक सीमित न हो, बल्कि जीवनशैली का हिस्सा बन जाए।
यह बदलाव किसी बड़े आंदोलन से नहीं, बल्कि हमारे छोटे-छोटे रोज़मर्रा के फैसलों से शुरू होता है। जब हम बाज़ार जाएँ, तो प्लास्टिक की थैली लेने के बजाय अपना कपड़े या जूट का बैग साथ ले जाएँ। जब दुकानदार आदतन प्लास्टिक बैग दे, तो उसे विनम्रता से मना करें और वैकल्पिक समाधान अपनाएँ। और जब आसपास स्कूलों, बाज़ारों या मोहल्लों में प्लास्टिक कम करने के प्रयास हों, तो उनका हिस्सा बनें, उन्हें प्रोत्साहन दें।
हो सकता है ये कदम अकेले में बहुत छोटे लगें। लेकिन जब यही आदतें लाखों लोग एक साथ अपनाते हैं, तो एक नई सोच, एक नया चलन और एक नया समाज बनता है। यही छोटे प्रयास आगे चलकर नीति निर्माण को भी प्रभावित करते हैं — क्योंकि सरकारें वहीं सुनती हैं, जहाँ लोग जागरूक और संगठित होते हैं।
परिवर्तन हमेशा बड़े नारों से नहीं आता। वह वहीं से शुरू होता है, जहाँ हम जिम्मेदारी से एक छोटा-सा सही फैसला लेते हैं। तो आइए, 3 जुलाई को सिर्फ एक तारीख़ न मानें — इसे एक नई शुरुआत का दिन बनाएं। आज से, अभी से, हम सब मिलकर यह संकल्प लें: “ना कहें प्लास्टिक को, हां कहें स्वच्छ और सतत भविष्य को।”
(लेखक उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष हैं)