(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

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“दस साल में पीएम मोदी पर 10 पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप भी नहीं।” अगर इस बयान की पृष्ठभूमि इतनी विडंबनापूर्ण नहीं होती, तो मोदी राज में निर्विवाद रूप से नंबर-दो माने जाने वाले, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इस दावे को, एक मामूली चुनावी दावे के रूप में अनदेखा किया जा सकता था। आखिरकार, अमित शाह ने यह दावा भोपाल में जिस आयोजन में किया था, आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों के हिस्से के तौर पर आयोजित किया गया था।

माना कि इस आयोजन में वह ‘प्रबुद्घ’ लोगों को संबोधित कर रहे थे, लेकिन संबोधित तो संघ-भाजपा-प्रभावित प्रबुद्घ-जन को ही कर रहे थे और वह भी साफ तौर पर चुनाव के संदर्भ में। और चुनाव के लिए अतिरंजित दावे करना तो, राजनीतिक नेताओं के लिए एकदम सामान्य बात ही है। फिर अमित शाह तो वैसे भी किसी के भी चुनावी वादों तथा दावों को गंभीरता से लेने के खिलाफ पहले ही देश को आगाह कर चुके थे। खुद शाह ने हरेक मतदाता के खाते में ‘पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए’ डलवाने के प्रधानमंत्री मोदी के वादे को भूल जाने की सलाह देते हुए उसे महज एक ‘जुमला’ बताया था। तब ‘जुमला’ उछालने का, प्रधानमंत्री मोदी जितना न सही, थोड़ा-बहुत अधिकार तो अमित शाह को भी है ही। लेकिन, दस पैसे के भी भ्रष्टाचार का आरोप दस साल में न लगने का यह दावा जिस पृष्ठभूमि में किया जा रहा था, उसे देखते हुए इसे सिर्फ जुमला कहकर छोड़ा नहीं जा सकता है।

इस पृष्ठभूमि में दो परस्पर-संबद्घ तत्व आते हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी के ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ के मुखौटे को तार-तार कर देते हैं। इनमें से पहला, एकदम फौरी तत्व है, न्यूज़लॉन्ड्री और न्यूज़मिनट का विस्फोटक भंडाफोड़, जो इसकी कहानी बयान करता है कि किस तरह, केंद्रीय जांच एजेंसियों के छापों के सहारे, मोदी राज में कंपनियों से चंदे की वसूली की जाती रही है। याद रहे कि इससे पहले, मोदी सरकार पर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करने, इन एजेंसियों का दुरुपयोग कर राजनीतिक विरोधियों को आर्थिक रूप से पंगु करने से लेकर, उन्हें अपने पाले में शामिल होने के लिए मजबूर करने तक के आरोप तो लगते रहे थे, लेकिन चंदे की वसूली के लिए केंद्रीय एजेंसियों की दमनकारी ताकत का इस्तेमाल करने या मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के शब्दों का सहारा लें, तो ‘हफ्ता वसूली’ करने के आरोप बेशक पहली बार लगे हैं।

भाजपा के दुर्भाग्य से यह उसके राजनीतिक विरोधियों द्वारा ‘आरोप’ लगाए जाने भर का मामला नहीं है। यह जिम्मेदार और गंभीर खोजी पत्रकारों की टीम द्वारा खुद भाजपा द्वारा चुनाव आयोग को दी गयी, चुनावी बांड इतर बड़े कंपनियों द्वारा दिए गए चंदे की जानकारियों और ऐसी कंपनियों के एक हिस्से पर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाईयों की गहरी छानबीन से सामने आए, बहुत ही परेशान करने वाले तथ्यों का मामला है। ये तथ्य बताते हैं कि पिछले पांच वित्त वर्षों के दौरान कम-से-कम 30 ऐसी कंपनियों ने भाजपा को करीब 335 करोड़ रुपए का चंदा दिया था, जिनके खिलाफ इसी दौरान केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई हुई थी। कहने की जरूरत नहीं है कि केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई की जद में आने वाली कंपनियों के सत्ताधारी पार्टी को करोड़ों रुपए के चंदे देने में, संदेह न होना ही हैरानी की बात होगी।

उक्त कंपनियों में से 23 कंपनियों ने, जिन्होंने भाजपा को 187 करोड़ 58 लाख रुपए का चंदा दिया था, 2014 से लेकर अपने खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई होने तक, एक बार भी भाजपा को चंदा नहीं दिया था। यानी सारा का सारा चंदा, उक्त कार्रवाई के बाद ही दिया गया था। इनमें से 4 कंपनियां, केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के चार महीने के अंदर-अंदर भाजपा के खजाने में 9 करोड़ 5 लाख रुपए जमा करा चुकी थीं।

दूसरी ओर, 6 कंपनियां ऐसी थीं, जो केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई से पहले भी भाजपा को चंदा दे तो रही थीं, लेकिन इस कार्रवाई के बाद उनके चंदे की मात्रा बढ़ गयी थी। इसी प्रकार, 6 कंपनियां ऐसी थीं, जो भाजपा को पहले से हर साल चंदा देती आ रही थीं, लेकिन एक वर्ष में उन्होंने चंदा नहीं दिया और उन पर छापा पड़ गया! दूसरी ओर इस छानबीन के दायरे में आई 32 कंपनियों में से, सिर्फ 3 कंपनियां ऐसी थीं, जिन्होंने इसी दौरान मुख्य विपक्षी पार्टी, कांग्रेस को भी चंदा दिया था। साफ है कि इन कंपनियों का मोदी की भाजपा के प्रति प्रेम, जिसके वशीभूत होकर वे सत्ताधारी पार्टी को करोड़ों रुपए का चंदा दे रही थीं, स्वत:स्फूर्त नहीं था, बल्कि उसके पीछे केंद्रीय एजेंसियों के डंडे का डर था। इस दाम वसूली के लिए ‘साम, दंड और भेद’ का बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया जा रहा था। इस सारे रहस्योद्घाटन के बाद भी “दस पैसे के भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा” की शेखी मारने के लिए,चमड़ी का वाकई काफी मोटा होना जरूरी होगा।

पृष्ठभूमि का दूसरा तत्व, जो अमित शाह के उक्त दावे को हास्यास्पद ही बना देता है, चुनावी बांड व्यवस्था के मामले में सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में आया ऐतिहासिक फैसला है। इस फैसले के जरिए मोदी की भाजपा द्वारा गढ़ी गयी ‘लेन-देन’ की अनंत संभावनाओं के द्वार खोलने वाली इस व्यवस्था को, सुप्रीम कोर्ट ने पूरी तरह से ही निरस्त कर दिया है। बेशक, इसी फैसले के हिस्से के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड के जरिए अब तक दिए गए पैसे के चंदादाताओं का विवरण, स्टेट बैंक द्वारा चुनाव आयोग को दिए जाने तथा चुनाव आयोग द्वारा निश्चित अवधि में, जो बहुत दूर नहीं है, ये विवरण सार्वजनिक किए जाने के जो आदेश दिए हैं, उन पर अमल के रास्ते में सरकार तथा उसके कृपापात्रों द्वारा क्या-क्या रोड़े अटकाए जाते हैं, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन, इतना तय है कि जब भी यह विवरण सार्वजनिक होगा, इस सामग्री के विश्लेषण, न्यूज़लॉन्ड्री तथा न्यूज़मिनट की खोजी रिपोर्ट के रहस्योद्घाटनों से और बहुत आगे जाते हुए, ‘कृपा देने और बड़ा चंदा लेने’ के महा-भ्रष्टाचार के संस्थागत रूप को पूरी तरह से ही बेनकाब कर देंगे।

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदीशाही इसकी हरेक-संभव कोशिश करेगी कि कम-से-कम आगामी आम चुनाव तक ये विवरण सार्वजनिक न हों। उन्हें पता है कि अगर ये विवरण सार्वजनिक हो गए, तो इन जानकारियों के विस्तृत्व विश्लेषण में भले ही और समय लगे, कम-से-कम उसके लिए काफी असुविधाजनक हैडलाइन्स तो निकल ही आएंगी, जिन्हें मुख्यधारा के मीडिया पर अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के बावजूद, उसके लिए पूरी तरह से दबाना संभव नहीं होगा।

अब, इन दो बड़े धक्कों के बाद, मोदीशाही का ईमानदारी का मुखौटा बेशक, तार-तार हो गया है। इसके बाद भी, मोदीशाही और भी जोर-शोर से दूसरे सब को भ्रष्ट बताने और खुद को ही ईमानदार दिखाने के पाखंड में लगी हुई है। इसके पीछे उसका जो भी विश्वास है, उसका आधार हिटलर का ‘महाझूठ’ या बड़े झूठ का सिद्घांत है। हिटलर का यह कहना था कि अगर बड़ा झूठ बोलो और बार-बार बोलो, तो लोग उस पर विश्वास करने लगेंगे। और बड़ा झूठ ही क्यों? क्योंकि छोटे-छोटे झूठ के झूठ हो सकने की बात, लोग आसानी से मान लेते हैं, क्योंकि छोटे झूठ वे भी अपने जीवन में खूब बोलते हैं। पर अगर झूठ बहुत बड़ा हो, आसानी से विश्वास ही न आने वाला हो, तो लोग उसे इसीलिए सच मान लेते हैं कि इतना बड़ा झूठ कोई कैसे बोल सकता है!

मोदीशाही वैसे तो आम तौर पर सभी मामलों में, जो करती है, उससे ठीक उल्टा दावा करने के महाझूठ का सहारा लेती है। जैसे किसानों की दशा सुधारने का झूठ। युवाओं को रोजगार देने का झूठ। गरीबों को गरीबी से उबारने का झूठ। भारत को आत्मनिर्भर बनाने का झूठ, सबका साथ – सबका विश्वास आदि-आदि का झूठ। बहरहाल, भ्रष्टाचार के सवाल पर वह एक तरह से सबसे बड़े झूठ का सहारा लेती आई हैै, जिससे सूट-बूट की सरकार होकर भी, गरीबों को भरमाती रह सके। लेकिन, झूठ का यह ताशमहल अब ज्यादा नहीं चल सकता है।

करोड़पतियों के रिश्वत के पैसे के बल पर खड़ा किया गया सत्ताधारी पार्टी का सारा ताम-झाम, इन रहस्योद्घाटनों की आंधी से तिनकों की तरह उड़ जाएगा। आखिरकार, लोग यह तो पूछेंगे ही कि जो 16,518 करोड़ रुपए चुनावी बांड के जरिए लिए गए, जिनमें से 94.41 फीसद करोड़पति दानदाताओं द्वारा करोड़-करोड़ के बांड में दिए गए और बांडों की कुल रकम में से 57 फीसद, 2018-22 के बीच अकेली भाजपा को ही दिए गए, यह भी अगर भ्रष्टाचार नहीं है, तो यह रिश्ता क्या कहलाता है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)