लखनऊ: उत्तर प्रदेश में नई राजनीतिक पहलकदमी लेने पर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की वर्चुअल बैठक कल सम्पन्न हुई। इस बैठक में बोलते हुए अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि यह सही है कि उत्तर प्रदेश में दलितों में भी एक सम्पन्न वर्ग उभरा है और अमूमन वह बदलाव की राजनीति में दिलचस्पी नहीं लेता है। फिर भी दलितों को एक अविभेदीकृत वर्ग के बतौर लिया जा सकता है। दलितों में उभरे समृद्ध वर्ग के उत्पादन सम्बंधों में जनता के साथ शत्रुतापूर्ण सम्बंध भी नहीं रहते है। उत्तर प्रदेश में दलितों को एक संगठित राजनीतिक ताकत के बतौर खड़ा करने की जरूरत है। अभी भी दलितों को सामाजिक तिरस्कार और अन्य सामाजिक वर्जनाओं का शिकार होना पड़ता है। इसलिए भी उन्हें अविभेदीकृत वर्ग के बतौर संगठित किया जाना चाहिए। उनका कार्यभार भी स्पष्ट है वही उत्तर प्रदेश और भारत में भी लोकतांत्रिक परिवर्तन के केन्द्र बन सकते हैं। देश कारपोरेट और उनकी सेवा में लगी मोदी सरकार के खिलाफ किसान आंदोलन के दौर से गुजर रहा है। आने वाले दिनों में यह बड़ा राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करेगा। दलितों को इसकी अगुवाई करनी चाहिए और किसान राजनीतिक सत्ता स्थापित करनी चाहिए। भारतवर्ष में कृषि क्रांति का यही भौतिक स्वरूप सम्भव है जिसमें दलितों की अगुवाई में समाज के सभी शोषित, उत्पीड़ित समुदाय और वर्ग गोलबंद हों।

आदिवासियों के बारे में उन्होंने कहा कि जहां उत्तर प्रदेश में दलितों ने राजनीतिक सत्ता हासिल की वहीं आदिवासियों के समूह में पहचान और सत्ता हासिल करने की राजनीतिक आकांक्षा कम है। उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद तो उनकी संख्या भी कम हो गई है फिर भी उत्तर प्रदेश में भारतीय राज्य ने उन्हें पहचान विहीन बना दिया है। अभी भी सोनभद्र, मिर्जापुर, नौगढ़ चंदौली, इलाहाबाद, बांदा व चित्रकूट आदि जगहों में रहने वाले संख्या की दृष्टि से सबसे मजबूत कोल आदिवासी जाति को आदिवासी का दर्जा ही नहीं मिला है और आदिवासियों को हर जगह वन विभाग द्वारा अपनी जमीन से भी बेदखली का शिकार होना पड़ रहा है।

अखिलेन्द्र ने कहा कि आइपीएफ को इन दो सामाजिक समूहों दलितों व आदिवासियों की गोलबंदी पर जोर देना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में जो हिंदुत्व आधारित कर्मकांड़ी सांस्कृतिक वातावरण बना रही है उसका जवाब भक्ति आंदोलन खासकर संत रविदास के राजनीतिक सामाजिक विचारों में मिलता है। यह विडम्बना है कि संत रविदास ने 500 वर्ष पूर्व सांस्कृतिक, सामाजिक राज्य के प्रश्न, राजनीति के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया और सामाजिक न्याय आंदोलन के केन्द्र में उन्होंने एक ऐसे राज्य की कल्पना की, जिसमें सभी नागरिकों को अन्न की गारंटी होगी। उनके पद ‘बेगमपुरा’ को पढ़ने और सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक पुस्तक के बतौर प्रचारित करने की जरूरत है। यह आरएसएस के सांस्कृतिक हमले का जवाब भी हो सकता है। याद रहे उनकी राज्य की अवधारणा में एक स्वतंत्र नागरिक का बोध भी निहित है, क्योंकि राष्ट्र और नागरिकता एक दूसरे के साथ ही रहते हैं और एक दूसरे के पूरक होते हैं। इसीलिए डा. अम्बेडकर ने भी कहा था कि जातियों में बंटे भारत को हम एक राष्ट्र के बतौर नहीं कह सकते, भारत एक राष्ट्र के बतौर विकसित हो रहा है और यहां नागरिकता बोध पैदा करके ही भारतीय राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। भाजपा की राष्ट्र के प्रति अवधारणा ढपोरशंखी है और इसीलिए वे राष्ट्र निर्माण में न लगकर ग्लोबल पूंजी और कारपोरेट के लिए किसानों और आम नागरिकों के हितों के विरूद्ध काम कर रही है, स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र के निर्माण को बाधित कर रही है, उसकी चाकरी कर रही है।

उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय आंदोलन में दलितों की हिस्सेदारी तमिलनाडू, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बिहार में अच्छी रही है। डा. अम्बेडकर की अगुवाई में दलित आंदोलन महाराष्ट्र में नेतृत्वकारी भूमिका में पहुँच गया था लेकिन वह राजनीतिक सत्ता हासिल नहीं कर पाया। बिहार में भी अस्सी के दशक में दलितों ने राजनीतिक दावेदरी पेश की लेकिन सैद्धांतिक अस्पष्टता और राजनीतिक अपरिपक्वता की वजह से संसदीय राजनीति में ये मुकाम नहीं बना पाया। वहीं उत्तर प्रदेश अपवाद रहा यहां दलितों की अगुवाई में सरकार भी बनी और अभी भी सत्ता हासिल करने की राजनीतिक आकांक्षा खत्म नहीं हुई है. इसलिए उनकी इस राजनीतिक भावना को संगठित स्वरूप देने की जरूरत है। क्योंकि उत्तर प्रदेश में बसपा बिखर रही है, सपा से दलितों के गठजोड़ का हश्र सभी ने देखा है और जहां तक कांग्रेस की बात है वह परिवार और उच्च वर्णीय व वर्गीय वर्चस्व से अभी भी मुक्त नहीं है। दलितों की स्वतंत्र राजनीतिक दावेदरी का भाव उत्तर प्रदेश में साठ और सत्तर के दशक में भी दिखा था। साठ में डा. अम्बेडकर के नेतृत्व वाली आरपीआई के माध्यम से और सत्तर के दशक में जगजीवन राम के माध्यम से। यह याद रहे कि जगजीवन राम के हटने से ही आपातकाल के बाद दलित कांग्रेस से विमुख हुए और वामपंथियों के पास राजनीतिक स्पष्टता न होने की वजह से वे काशीराम की बीएसपी की तरफ आकृष्ट हुए। अभी भी दलितों में एक जाति विशेष बसपा की तमाम कमजोरियों के बावजूद उसके साथ जुड़ी हुई है।

जरूरत है दलितों व आदिवासियों के हितों के अनुरूप जमीन, मनरेगा, सहकारी खेती, कर्ज माफी, रोजगार, निजी क्षेत्र में आरक्षण और नागरिक अधिकारों के मुद्दों को मजबूती से उठाने की। आइपीएफ इनका राजनीतिक प्लेटफार्म बन सकता है क्योंकि इसकी अगुवाई दलित आंदोलन के प्रतिबद्ध नेताओं के हाथ में है। योगी राज पुलिस राज है ये सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है और झूठ और दमन के सहारे चल रही है। इसकी राजनीति को शिकस्त देने की चुनौती आइपीएफ को लेनी चाहिए। भाजपा को हर हाल में शिकस्त देने के लिए कार्यक्रम आधारित भाजपा विरोधी ताकतों से एकता कायम करनी चाहिए और दलितों की दावेदरी को मजबूत करना चाहिए। मई में इसी दिशा में बड़े स्तर पर विचार विमर्श के लिए एक बैठक आयोजित की जानी चाहिए।