लखनऊ: आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट के राष्ट्रीय प्रवक्ता के मुताबिक उत्तर प्रदेश में सरकारी आयोग राजनेताओं की चरागाह बन गए हैं। उन्होंने कहा है कि कल उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग में एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष तथा 17 सदस्यों तथा उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग में एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष तथा 25 सदस्यों की जो नियुक्तियाँ की हैं वे जनहित में कम बल्कि राजनीतिक हित में अधिक हैं। यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में 2022 में चुनाव होने जा रहे हैं और भाजपा में अंदरूनी असंतोष की खबरें बराबर आ रही हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह नियुक्तियाँ असंतुष्टों को संतुष्ट करने के लिए ही की गई हैं न कि जनहित में।

वास्तव में उत्तर प्रदेश में सरकारी आयोगों का इस्तेमाल सत्ताधारी पार्टी के उन नेताओं/ सदस्यों को सरकारी पद का लाभ देने के लिए होता रहा है जिन्हें मंत्री परिषद में जगह देना संभव नहीं हो पाता है। इसी दृष्टि से इन आयोगों की सदस्य संख्या में समय समय पर बढ़ोतरी करके अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुँचाने की व्यवस्था की जाती रही है। इसी लिए अगर उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति/ जन जाति आयोग को देखा जाए तो 1995 में इसकी स्थापना के समय इसमें केवल एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य थे और उनका कार्यकाल 3 साल था। मायावती ने 2001 में संशोधन करके इसमें अध्यक्ष के इलावा दो उपाध्यक्ष तथा 17 सदस्य कर दिए और किसी विशेष उद्देश्य से उनके कार्यकाल को तीन साल से कम करके एक साल कर दिया। इसी प्रकार उसने सर्वजन को खुश करने के लिए 2007 में अध्यक्ष पद के लिए अनुसूचित जाति का सदस्य होने की अनिवार्यता को ही खत्म कर दिया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग में केवल एक अध्यक्ष और कुल 4 सदस्य हैं। इससे स्पष्ट है कि इस आयोग का इस्तेमाल अधिक से अधिक राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही किया जाता रहा है। वर्तमान योगी सरकार भी इसी का अनुसरण कर रही है।

अब अगर उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग को देखा जाए तो 1996 में स्थापित किये गए आयोग में केवल एक अध्यक्ष और चार सदस्य थे और उनका कार्यकाल तीन वर्ष था परंतु 2007 में मायावती ने इसके सदस्यों की संख्या बढ़ा कर एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष तथा 17 सदस्य तथा कार्यकाल 3 वर्ष से कम करके एक साल कर दिया था। इसके बाद अखिलेश यादव सरकार ने 2014 में इसके सदस्यों की संख्या 17 से बढ़ा कर 25 कर दी थी। वर्तमान योगी सरकार ने भी उसी व्यवस्था का लाभ उठाया है।

यह विदित है कि इन आयोगों का गठन इन वर्गों के हितों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए ही किया गया था। इसके सदस्यों की अर्हता के बारे में निर्धारित किया गया था कि इसके सदस्यों की नियुक्ति ऐसे योग्य, सत्यनिष्ठ और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से की जाएगी जिनका सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को न्याय दिलाने संबंधी निस्स्वार्थ सेवा का रिकार्ड रहा हो। परंतु यह विदित है इस सरकार अथवा इससे पूर्व की सरकारों ने इन आयोगों में जिन व्यक्तियों की नियुक्ति की है या की थी, वे इस अर्हता को कितना पूरा करते हैं या करते थे। यही स्थिति अन्य आयोगों जैसे महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग तथा अल्पसंख्यक आयोग की भी है।

अतः उपरोक्त आयोगों में योगी सरकार द्वारा की गई नियुक्तियों से स्पष्ट है कि ये आयोग सत्ताधारी राजनेताओं की चरागाह बन कर रह गए हैं।