कँवल भारती

कँवल भारती

डा. आंबेडकर का मिशन ‘राजकीय समाजवाद’ था. मायावती जी के भक्त, जिन्होंने डा. आंबेडकर के साहित्य का कखग भी नहीं पढ़ा है, अगर चाहें तो उनकी एक किताब “राज्य और अल्पसंख्यक” जरूर पढ़ लें, वरना बहस में वे हमेशा मात खायेंगे. मैं यहाँ स्वयं कुछ न कह कर डा. तेज सिंह (Dr Tej Singh) के शब्दों को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनका अभी कुछ दिनों पहले निधन हुआ है. यह उनके प्रति एक श्रद्धांजलि भी है.

“डा. आंबेडकर सर्वहारा की तानाशाही को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हैं और उसके स्थान पर ‘राजकीय समाजवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं. उनकी ‘राजकीय समाजवाद’ की अवधारणा लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली के साथ मिल कर बनी है. आर्थिक शोषण को समाप्त करने के लिए मूल उद्योगों का स्वामित्व और प्रबंध, राज्य के हाथ में रहे और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण (nationalisation) किया जाये तथा कृषि क्षेत्रों में मालिकों, काश्तकारों आदि को मुआवजा देकर सरकार भूमि का अधिग्रहण करे और उस पर सामूहिक खेती कराये. डा. आंबेडकर ‘राजकीय समाजवाद’ द्वारा इस लक्ष्य को पाने का कार्यक्रम पेश कर रहे थे. इसलिए उन्होंने उद्योगों के निजीकरण का तीव्र विरोध किया, (क्योंकि) इससे सामाजिक विषमता बढ़ने का खतरा सामने था. निजीकरण की वजह से औद्योगिकीकरण (Industrialisation) तेजी से नहीं हो पायेगा. इसलिए उनका दृढ़ मत था कि भारत में तेजी से औद्योगिकीकरण करने के लिए राजकीय समाजवाद अनिवार्य है.

भले ही डा. आंबेडकर समाजवादी क्रांति में आस्था न रखते हों, पर वे जनता की जनवादी क्रांति के लक्ष्य के काफी करीब पहुँच गये थे, वे सामंती व्यवस्था को ध्वस्त करके (राजकीय) पूंजीवादी-जनवादी क्रांति का पुरजोर समर्थन कर रहे थे. डा. आंबेडकर अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत संघ (USSR) में किये जा रहे संपत्ति, कृषि और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से पूरी तरह सहमत थे और मानते थे कि सभी को आवश्यक भूमि प्राप्त न होने की स्थिति में सोवियत संघ के ढंग पर सामूहिक कृषि करने के आलावा कोई विकल्प नहीं है. क्या कारण है कि इन सबके बावजूद डा आंबेडकर के प्रगतिशील, लोकतान्त्रिक और जनवादी विचारों का समर्थन नहीं लिया जा रहा था और आज भी नहीं किया जा रहा है.” (आज का दलित साहित्य, पृष्ठ 111)

मायावतीवादी दलित साथियों से आग्रह है कि वे बहिन जी से पूछें कि क्या उन्होंने डा आंबेडकर के इस मिशन को अपनी राजनीति में शामिल किया है? सच तो यह है कि उन्होंने यूपी में निजीकरण (privatisation) का खुला सामंती खेल खेला. सरकारी क्षेत्र की लाभ में चल रहीं औद्योगिक ईकाईयों (21 चीनी मिल) को बेच डाला. इससे न केवल दलितों के रोज़गार के अवसर ही काम हुए बल्कि गन्ना किसानों का भी बहुत नुकसान हुया। पर लगता है अब भी मायावती का एक मात्र एजंडा सत्ता की प्राप्ति है न कि दलितों के आर्थिक सशक्तिकरण का जो कि निजीकरण नहीं बल्कि राजकीय समाजवाद की नीतियों द्वारा ही हो सकता है। अतः मामला केवल सत्ता परिवर्तन का ही नहीं बल्कि नीतियों में आमूल परिवर्तन का है।इसी लिए डॉ. अम्बेडकर की राजकीय समाजवाद की अवधारणा आज और भी अधिक प्रासंगिक (Relevant) है।