-एस.आर.दारापुरी पूर्व आई. जी. एवं संयोजक जन मंच

यह सर्वविदित है कि आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों का सदियों से जंगल पर अधिकार रहा है. परन्तु मुग़ल काल से लेकर देश के आज़ाद होने के बाद तक भी उन्हें हमेशा जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया गया. यह करने के लिए अलग-अलग सरकारी कानूनों व नीतियों का प्रयोग होता रहा है. 1856 में अंग्रेजों ने मोटे पेड़ों के जंगलों पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. 1865 में पहला वन कानून लागू हुआ जिसने सामुदायिक वन संसाधनों को सरकारी संपत्ति में बदल दिया. 1878 में दूसरा वन कानून आया, जिसने आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों को जंगलों के हकदार नहीं बल्कि सुविधाभोगी माना. 1927 के वन कानून ने सरकार का जंगलों पर नियंत्रण और कड़ा कर दिया. इसके कारण हजारों वनवासियों को अपराधी घोषित किया गया और उन्हें जेल में कैद भी होना पड़ा. 1980 के वन संरक्षण कानून ने जंगलवासियों को जंगल में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया. 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनवासियों की जंगल के संरक्षण व प्रबंधन में भागीदारी बढ़ाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की रणनीति बनाई गयी. परन्तु वन विभाग ने इसमें गठित होने वाली वन सुरक्षा समितियों में सरकारी अधिकारियों को शामिल कर इस रणनीति को सफल नहीं होने दिया. परन्तु आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदाय ऐसे वन विरोधी कानूनों व नीतियों का विरोध करते रहे. इसको लेकर वनवासी वनक्षेत्रों में दूसरे के शासन का विरोध करते रहे, आज भी वनों पर अधिकार पाने के लिए आन्दोलन जारी है. इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि भारत सरकार को वनाधिकार कानून-2006 को 2008 को लागू करना पड़ा.

वनाधिकार कानून दो तरह के अधिकारों को मान्यता देता है. 1. खेती के लिए वनभूमि का उपयोग करने का व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार और 2, गाँव के अधिकार क्षेत्र के वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार जिसमें लघु वन उपजों पर मालिकाना हक़ और वनों का संवर्धन, संरक्षण तथा प्रबंधन का सामुदायिक अधिकार शामिल है. इस कानून के अनुसार आदिवासी व अनन्य परम्परागत वन निवासी जो 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास या खेती करते आ रहे हैं और अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए उस वन भूमि पर निर्भर हैं, उनको वन भूमि का व्यक्तिगत पट्टा पाने का अधिकार है. इस प्रावधान के अंतर्गत जितनी वन भूमि पर दखल है, उतने पर ही अधिकार मिलेगा. यह अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) ज़मीन पर होगा. इस कानून के अंतर्गत वन अधिकार वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी भूमि प्राप्त कर सकते हैं. वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति का मतलब ऐसे सदस्य या समुदाय जो प्राथमिक रूप से वन में निवास करते हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर या वनभूमि पर निर्भर करते हैं. अन्य परम्परागत वन निवासी का मतलब ऐसा कोई व्यक्ति या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 के पूर्व कम से कम 75 सालों से प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि पर निवास करता रहा है और जो अपनी आजीविका की आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर है.
वन अधिकार दिलाने में ग्रामसभा की वनाधिकार समिति, तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति और जिलास्तरीय वनाधिकार समिति की महत्वपूर्ण भूमिका है. वनाधिकार कानून में ग्रामसभा को अपने अधिकार क्षेत्र में वनों पर व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की प्रकृति तथा सीमा तय करने की प्रक्रिया आरम्भ करने, दावा स्वीकार करने, दावों का भौतिक सत्यापन करके दावित भूमि का नक्शा तैयार करवाने तथा तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति के पास अनुशंसा करने का अधिकार है. तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति का काम इन दावों का परीक्षण कर उसे स्वीकृति हेतु जिलास्तरीय वनाधिकार समिति के पास भेजने का है. जिलास्तरीय वनाधिकार समिति इस दावे को अंतिम रूप से स्वीकार करने के लिए अधिकृत है. इस कानून में यदि कोई भी समिति किसी दावे को निरस्त करती है तो उसे दावेदार को कारण सहित नोटिस भेजना होगा जिस पर दावेदार उस समिति से ऊपर वाली समिति के पास अपील कर सकता है. इस एक्ट में यह भी कहा गया है की कोई भी दावा तकनीकी कारणों से रद्द नहीं किया जायेगा तथा इसमें अधिक से अधिक दावेदारों को भूमि का पट्टा दिया जाना चाहिए. परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं किया गया. दावेदारों के दावे आँख बंद करके निरस्त कर दिए गये या उन्हें अब तक लंबित रखा गया है. दावेदारों को आज तक उनके दावे निरस्त करने सम्बन्धी कोई भी सूचना नहीं दी गयी. इसके परिणामस्वरूप बहुत कम लोगों को भूमि के पट्टे दिए गये और इसमें जो भूमि दी भी गयी है वह दावों की अपेक्षा बहुत कम दी गयी है.

आइये अब ज़रा उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने का जायजा लिया जाये. उत्तर प्रदेश में आदिवासी(अनुसूचित जनजाति) की आबादी 1 लाख 7 हजार है और यह उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का लगभग o.1% है. आदिवासियों की अधिकतर आबादी सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, चंदौली, बलरामपुर,बहरायच और इलाहाबाद में है. आदिवासियों की अधिकतर आबादी जंगल क्षेत्र में रहती है और उन क्षेत्रों में वनाधिकार कानून लागू होता है.

आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुयी थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,433 दावों में से 73,416 दावे अर्थात 80% दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 20% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी. मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के घटक आदिवासी-वनवासी महासभा ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा मुलायम सरकार की लापरवाही तथा दलित /आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80% दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है कि सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है.

इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्त्देश में यह 80.0% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा मुलायम सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं. दलितों को भूमि आवंटन तथा आदिवासियों के मामले में वनाधिकार कानून को लागू करने में राज्यों तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा जो लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई गयी है उससे स्पष्ट है सत्ताधारी पार्टियाँ तथा दलित एवं गैर दलित पार्टियाँ नहीं चाहतीं कि दलितों/आदिवासियों का सशक्तिकरण हो.

अब जब 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की बहुमत की सरकार आई तो उन्होंने सबसे पहले यह आदेश दिया कि सरकारी भूमि पर जितने भी अवैध कब्जे हैं उन्हें तुरंत हटाया जाये. इस कार्य को सख्ती से लागू करवाने हेतु एंटी भूमाफिया टास्क फ़ोर्स का गठन भी किया गया. इस आदेश पर वन विभाग, राजस्व विभाग तथा पुलिस विभाग द्वारा तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी गयी. अब चूँकि संरक्षित वन क्षेत्र में वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों/वन निवासियों के 80% दावे रद्द कर दिए गये थे अतः उन सबके पास भूमि को अवैध कब्जे वाली मान कर बेदखली की कार्रवाही शुरू कर दी गयी. इससे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र नौगढ़ (चंदौली) तथा सोनभद्र जिलों में हाहाकार मच गयी और आदिवासियों के ऊपर भूमाफिया कह कर मुकदमे तथा बेदखली शुरू हो गयी. बहुत सी गिरफ्तारियां की गयीं तथा अभी भी की जा रही हैं. तहसील दुद्धी में एक 90 वर्ष के आदिवासी पर पेड़ काट कर कब्ज़ा करने का मुकदमा दर्ज किया गया जबकि उसके पास ज़मीन का पट्टा भी है.

सरकार की आदिवासियों के विरुद्ध दमन की कार्रवाही को रुकवाने तथा उनके दावों का पुनर्परीक्षण करवाने को लेकर आदिवासी-वनवासी महासभा द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी जिस पर उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 24/11/2017 को स्थगन आदेश जारी किया गया जिससे आदिवासियों की बेदखली रुक सकी. इसके बाद हाई कोर्ट ने 11 अक्तूबर, 2008 को यह आदेश दिया है कि 6 हफ्ते में सभी आदिवासी अपने नये दावे अथवा पुराने दावों की अपील दाखिल कर सकते हैं. प्रशासन इनका 12 हफ्ते में परीक्षण करके निस्तारण करेगा. परन्तु यह बड़े खेद की बात है भाजपा निर्देशित प्रशासन आदिवासियों के दावे नहीं ले रहा है. लगता है इस सम्बन्ध में फिर हमें उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ेगा.

इस जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान ही यह पता चला कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का अवैध कब्जों को हटवाने का आदेश वाईल्ड लाईफ ट्रस्ट आफ इंडिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका में दिए गये आदेश के अनुपालन में था. इस संस्था द्वारा दायर जनहित याचिका में यह कहा गया है कि संरक्षित वन की ज़मीन राष्ट्रपति महोदय के सीधे नियंत्रण में होती है और इस सम्बन्ध में संसद अथवा कार्यपालिका को कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है. अतः इस भूमि को आदिवासियों/वन निवासियों को देने सम्बन्धी बनाया गया कानून असंवैधानिक है जिसे तुरंत रद्द किया जाना चाहिए. इसके साथ ही यह भी अनुरोध किया गया था की इस कानून के अंतर्गत पट्टे के दावों से मुक्त भूमि को तुरंत खाली कराकर वन विभाग को दिया जाये. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट वनाधिकार कानून की वैधता को देख रही है परन्तु भूमि को मुक्त कराकर वन विभाग को देने का आदेश लागू हो गया है.

गहराई से जांच करने पर पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट में उपरोक्त जनहित याचिका दायर करने वाली संस्था का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो आरएसएस आदिवासी क्षेत्रों में घुस कर आदिवासी हितैषी होने का दावा करती है वह वास्तव में आदिवासियों को जमीन देने के पक्ष में नहीं है.इसका मुख्य कारण यह है कि आरएसएस वास्तव में कार्पोरेटपरस्त है क्योंकि कार्पोरेटस ही उसके हिंदुत्व के एजंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. चूँकि पूरे देश में जहाँ जहाँ आदिवासी रहते हैं वहां पर ज़मीन के नीचे कोयला, लोहा, अल्म्युनिय्म तथा अन्य कीमती खनिज हैं जिन पर कार्पोरेट्स की नजर है. अब अगर वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को ज़मीन का पट्टा दे दिया जायेगा तो इन्हें कार्पोरेट्स के लिए खाली कराने में परेशानी होगी. इसी लिए सबसे आसान रास्ता यही है कि उन्हें ज़मीन के पट्टे ही न दिए जाएँ ताकि भविष्य में उन्हें आसानी से खाली कराया जा सके. यह बात इससे से भी स्पष्ट हो जाती है की वर्तमान में जिन जिन राज्यों में आदिवासी रह रहे हैं उनमे भाजपा की सरकारें हैं जिन्होंने वनाधिकार कानून को जानबूझ कर लागू नहीं किया है. इसकी सबसे बड़ी उदाहरण झारखण्ड है जहाँ पर पिछले 10 साल से भाजपा की सरकार है. झारखण्ड में आदिवासियों की कुल आबादी लगभग 87 लाख है परन्तु वहां पर वनाधिकार के अंतर्गत केवल 1 लाख 30 हजार दावे तैयार किये गये जिनमें से 64 हजार दावे रद्द कर दिए गये. यही स्थिति मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र में है. इससे से स्पष्ट है कि आरएसएस घोर आदिवासी विरोधी है. उड़ीसा में भी ऐसा ही बुरा हाल है. यह भी सही है कि पूर्व में कांग्रेस शासित राज्यों में भी इसको विफल किया गया था.
आरएसएस के आदिवासी विरोधी होने का एक और पहलू यह है कि आरएसएस उन्हें आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है. इसके पीछे उसका मकसद आदिवासियों की अलग पहचान को ख़त्म करके उन्हें हिंदुत्व की छत्रछाया में लाना है. यह सर्वविदित है कि आदिवासियों का अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपने देवी देवता हैं तथा उनको कुछ विशेष संवैधानिक अधिकार भी मिले हुए हैं और आदिवासी क्षेत्रों की अलग प्रशासनिक व्यवस्था है. परन्तु आरएसएस उनकी इस अलग पहचान को ख़त्म करके एकात्मवाद को लागू करना चाहती है. इसी लिए आरएसएस या तो आदिवासियों का हिन्दुकरण करके उन्हें अपने हिन्दुत्ववादी एजंडे में शामिल करना चाहती है या फिर उनका दमन करके उनके प्रतिरोध को कुचलना चाहती है. आरएसएस को पता है कि यदि पृथक आदिवासी पहचान को यथावत बना रहने दिया गया तो यह यह उनकी हिंदुत्व की राजनीति के लिए बड़ा खतरा बना रहेगा. अतः वह उन्हें आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है जोकि उसकी सोची समझी चाल है.

अतः उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वनाधिकार कानून को विफल करने के गुनाहगार सबसे पहले मायावती, उसके बाद समाजवादी पार्टी तथा अब आरएसएस/भाजपा हैं. यदि 2008 में मायावती सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करके ज़मीन के पट्टे दे दिए गये होते तो आदिवासियों का कितना कल्याण हो गया होता. इसके बाद यदि अखिलेश की समाजवादी सरकार ने ही हाई कोर्ट के आदेश का अनुपालन करा दिया होता तो अब भाजपा सरकार द्वारा उन्हें अवैध कब्जाधारी कह कर बेदखल करने का मौका नहीं मिलता. वनाधिकार कानून को लागू कराने के दौरान आरएसएस/भाजपा का आदिवासी विरोधी चेहरा भी पूरी तरह से उभर कर आया है. लगता है वह इसे लागू न कराकर आदिवासी क्षेत्रों को अशांत बना कर रखना चाहती है ताकि उनका आसानी से दमन किया जा सके और उनके पास ज़मीन को आसानी से कार्पोरेट्स को हस्तगत कराया जा सके.

यह सिद्ध हो चुका है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ दलितों/आदिवासियों को निर्धन एवं अशक्त रख कर उनका जाति के नाम पर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना चाहती हैं. अतः जब सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का दलितों और आदिवासियों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन के प्रति घोर लापरवाही तथा जानबूझ कर उपेक्षा का रवैया है तो फिर इन वर्गों के सामने जनांदोलन के सिवाय कौन सा चारा बचता है. इतिहास गवाह है दलितों और आदिवासियों ने इससे पहले भी कई वार भूमि आन्दोलन का रास्ता अपनाया है. 1953 में डॉ. आंबेडकर के निर्देशन में हैदराबाद स्टेट के मराठवाड़ा क्षेत्र में तथा 1958 में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में दलितों द्वारा भूमि आन्दोलन चलाया गया था. दलितों का सब से बड़ा अखिल भारतीय भूमि आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) के आवाहन पर 6 दिसंबर, 1964 से 10 फरवरी, 1965 तक चलाया गया था जिस में लगभग 3 लाख सत्याग्रही जेल गए थे. यह आन्दोलन इतना ज़बरदस्त था कि तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को दलितों की भूमि आवंटन तथा अन्य सभी मांगे माननी पड़ीं थीं. इसके फलस्वरूप ही कांग्रेस सरकारों को भूमिहीन दलितों को कुछ भूमि आवंटन करना पड़ा था. परन्तु इसके बाद आज तक कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं हुआ. इतना ज़रूर है कि सत्ता में आने से पहले कांशी राम जी ने “जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है” का नारा तो दिया था परन्तु मायावती के कुर्सी पर बैठने पर उसे सर्वजन के चक्कर में पूरी तरह से भुला दिया गया.

दलितों के लिए भूमि के महत्त्व पर डॉ. आंबेडकर ने 23 मार्च, 1956 को आगरा के भाषण में कहा था, ”मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ. उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा. यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लड़ूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को ज़मीन दिलवाने का प्रयास करूँगा.” इस से स्पष्ट है कि बाबासाहेब दलितों के उत्थान के लिए भूमि के महत्व को जानते थे और इसे प्राप्त करने के लिए वे कानून तथा जनांदोलन के रास्ते को अपनाने वाले थे परन्तु वे इसे मूर्त रूप देने के लिए अधिक दिन तक जीवित नहीं रहे. इस बीच देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों द्वारा “भूमि अधिकार आन्दोलन” चलाया जाता रहा है परन्तु दलितों द्वारा कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं चलाया गया है जिस कारण उन्हें कहीं भी भूमि आवंटित नहीं हुयी है. नाक्सालबाड़ी आन्दोलन का मुख्य एजंडा दलितों/आदिवासियों को भूमि दिलाना ही था. दक्षिण भारत के राज्यों जैसे तमिलनाडू तथा आन्ध्र प्रदेश में “पांच एकड़” भूमि का नारा दिया गया है. पिछले दिनों गुजरात दलित आन्दोलन के दौरान भी दलितों को पांच एकड़ भूमि तथा आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन देने की मांग उठाई गयी थी जो कि दलित राजनीति को जाति के मक्कड़जाल से बाहर निकालने का काम कर सकती है. यदि इस मांग को अन्य राज्यों में भी अपना कर इसे दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के एजंडे में प्रमुख स्थान दिया जाता है तो यह दलितों और आदिवासियों के वास्तविक सशक्तिकरण में बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है. अब तो जिन राज्यों में दलितों/आदिवासियों को आवंटन के लिए सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं है उसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति सब प्लान के बजट से खरीद कर दिया जा सकता है. अतः अगर दलितों और आदिवासियों का वास्तविक सशक्तिकरण करना है तो वह भूमि सुधारों को कड़ाई से लागू करके तथा भूमिहीनों को भूमि आवंटित करके ही किया जा सकता है. इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रुरत है जिस का वर्तमान में सर्वथा अभाव है. अतः भूमि सुधारों को लागू कराने तथा भूमिहीन दलितों/आदिवासियों को भूमि आवंटन कराने के लिए एक मज़बूत भूमि आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है. इस आन्दोलन को बसपा जैसी अवसरवादी और केवल जाति की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं चला सकती है क्योंकि इसे सभी प्रकार के आंदोलनों से परहेज़ है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने भूमि सुधार और भूमि आवंटन को अपने एजंडे में प्रमुख स्थान दिया हैऔर इसके लिए अदालत में तथा ज़मीनि स्तर पर लड़ाई भी लड़ी है. इसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करके आदेश भी प्राप्त किया था जिसे मायवती और मुलायम की सरकार ने विफल कर दिया. आइपीएफ़ अब स्वराज अभियान के साथ मिल कर पुनः उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में वनाधिकार कानून को लागू कराने का भूमि आन्दोलन चला रहा है. अत स्वराज अभियान /आइपीएफ सभी दलित/आदिवासी हितैषी संगठनों और दलित राजनीतिक पार्टियों का आवाहन करता है कि अगर वे सहमत हों तो हमारे द्वारा पूर्वांचल में चलाये जा रहे भूमि अधिकार अभियान में सहयोग दें.