लखनऊ; हाल ही में आये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस 4, 2015-2016) के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में 6-23 महीने के आयु वर्ग के दस में से 9 बच्चों को समुचित आहार नहीं मिलता. कई चौकाने वाले नतीजों में स्पष्ठ होता है कि राज्य में बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य का स्तर राष्ट्रीय मानकों की तुलना में काफी कम है, हालाकि करीब एक दशक पहले एनएफ़एचएस द्वारा प्रकाशित किये गए आंकड़ों की तुलना में इस बार कुछ सुधार ज़रूर देखा गया है.

हालिया एनएफएचएस परिणामों के आधार पर क्राई द्वारा किये गए चलन विश्लेषण के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 6-23 महीने के आयु वर्ग में केवल 5.3 फीसदी बच्चों को ही समुचित आहार मिलता है जो कि देश के न्यूनतम राज्यो में से एक हैं. दूसरी ओर 31 फीसदी के साथ तमिलनाडु तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में है.
साथ ही बच्चों के आहार की आदतों पर एनएफएचएस के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में जन्म के चार घंटे के भीतर चार में से तीन बच्चों को स्तनपान नहीं कराया जाता जबकि पहले छह महीने में कुल बच्चों के आधे से भी कम बच्चों को विशेषतौर पर स्तनपान कराया जाता है.

क्राई (उत्तर) के कार्यक्रम प्रमुख सुभेंदु भट्टाचार्जी, बच्चों में पोषण के कमज़ोर स्तर के बारे में बताते हुए कहते हैं, “बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण पर किये गए हालिया अध्ययनों के मुताबिक़, नवजात बच्चों को गुणवत्ता और मात्रा के हिसाब से उचित आहार मिलना, जिसमें चार या अधिक पोषक समूह और बच्चे के उम्र के अनुसार ठोस और आंशिक रूप से ठोस आहार युक्त खाने की न्यूनतम संख्या हो, बच्चे के जीवन की स्वस्थ शुरुआत को सुनिश्चित करने के लिए बहुत ही ज़रूरी है और इसके साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता”
भट्टाचार्जी आगे कहते हैं-“बच्चे के जन्म के पहले चार घंटों में जवजात को स्तनपान कराना बच्चे के पोषण का एक और गंभीर निर्देशक है, क्यूंकि कोलस्ट्रम (मां का पहला दूध) में पोषक तत्वों और एंटीबाडीज की भारी मात्रा होती है और ये बच्चों के जन्म की शुरुआत में आवश्यक मूलभूत पोषण और रोगप्रतिरोधक क्षमता को सुनिश्चित करने के लिए बहुत ही ज़रूरी है.”

शुरुआती सालों का कुपोषण भी सीधे माता के स्वास्थ्य से जुड़ा है. अच्छी प्रसवपूर्व देखभाल और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की पोषण संबंधी विशेष ज़रूरतों के पूरा न होने पर बच्चे के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

शुरुआती देखभाल में विशेष ध्यान होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में केवल 6 फीसदी माताओं को पूरी तरह से प्रसवपूर्व सेवाएं उपलब्ध हैं, जबकि राज्य में केवल 13 फ़ीसदी गर्भवती महिलाएं गर्भावस्था के दौरान 100 या ज़्यादा दिनों के लिए फोलिक एसिड और आयरन जैसे पूरक आहार लेती हैं. प्रदेश में होने वाले कुल जन्म में से एक तिहाई से भी ज़्यादा जन्म घर पर ही होते हैं जिससे प्रसव के बाद देखभाल जैसी महत्वपूर्ण ज़रुरत की अनदेखी हो जाती है.

एनएफएचएस के परिणामों से पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए बाल कुपोषण के निर्देशकों के तौर पर तीन तरह के आंकड़े सामने आये- बौना (उम्र के हिसाब से कम ऊंचाई), कृशकाय (ऊंचाई के हिसाब से कम वज़न), दुबला (आयु के हिसाब से कम वज़न).
हलाकि इन तीनों मानदंडों से जुड़े आंकड़ों में कमी आई है लेकिन आख़री सर्वेक्षण के बाद इन दस सालों के बीच हुई यह कटौती बहुत कम और असंतोषजनक है. राज्य में अब भी पांच साल के कम आयु के 40 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं.

राज्य में बच्चों में एनीमिया कम हुआ है, लेकिन अभी भी उए चिंताजनक रूप से व्यापक स्तर पर मौजूद है. विश्लेषण के मुताबिक़ 6 से 59 महीने की आयु वर्ग के करीब दो तिहाई बच्चे अनीमिया के बुरी तरह शिकार हैं.
साथ ही उत्तर प्रदेश अब भी देश में सर्वाधिक शिशु मृत्युदर वाला प्रदेश है. यहां नवजात मृत्युदर प्रति 1000 जन्म पर 64 मृत्यु का है तो वहीं 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर प्रति 1000 जन्म पर 78 का है.
जैसा कि हाल ही में आये एनएफएचसी आंकड़ों से पता चलता है, उत्तर प्रदेश ने सांस्थानिक प्रसूति की बेहतर दर , टीकाकरण की संख्या और बच्चों की गंभीर बीमारियों के इलाज जैसे बाल स्वाथ्य और पोषण से जुड़े निर्देशकों में काफी अच्छा काम किया है लेकिन बच्चों के पोषण जैसे गंभीर निर्देशक, जिसका बच्चों के सम्पूर्ण विकास से सीधा सम्बन्ध है, में सुधार की दर उम्मीद से काफ़ी कम है.

क्राई की स्थानीय निदेशक (उत्तर), सोहा मोइत्रा ने बताया, “एनएफएचएस केवल बच्चों और गर्भवती महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य और पोषण को ही प्रतिबिंबित नहीं करता बल्कि ये राज्य की बच्चों के स्वास्थ और कुपोषण से सम्बंधित नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार के लिए दिशानिर्देश भी देता है. जारी किये गए आंकड़े स्पष्ठ तौर पर बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में बच्चों और गर्भवती महिलाओं के पोषण की सुरक्षा के विषय को प्राथमिकता देने की ज़रुरत है.”

उनहोंने आगे कहा.” आंगनवाड़ी केंद्रों का सार्वभौमीकरण और सुधार की निगरानी के लिए एक मजबूत तंत्र बनाना ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिनसे बच्चों के कुपोषण जैसी समस्या का दीर्घकालिक समाधान निकाला जा सकता है