बलिदान दिवस 23 मार्च पर विशेष

दीवान सुशील पुरी

जालियां वाला बाग हत्याकांड के बाद भगत सिंह ने रक्त से रंगी धरती पर कसम खाई थी कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी का बिगुल फूकेंगे। 13 अप्रैल 1919 में जालियां वाला बाग हत्याकांड के बारे में सुनकर कई मील दूर स्थित स्कूल से वह पैदल चलकर घटना स्थल पर पहुंचे। इस घटना ने क्रन्तिकारी नवयुवकों के अंदर जोश पैदा कर दिया था और भगत सिंह की शहादत ने भारत के इतिहास को एक नया मोड़ दिया। भगत जी के घर के सभी सदस्य देश की आजादी के मतवाले थे। इनका जन्म 28 सितम्बर , 1907 को बांगा, जिला लायलपुर में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। उसी दिन इनके पिता सरदार किशन सिंह जेल से रिहा हुए थे। तीन दिन बाद दोनों चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह को जमानत पर रिहा कर दिया। इनकी दादी जय कौर और दादा अर्जुन सिंह ने कहा हमारा पौत्र बड़ा भांगावाला (यानि भाग्यशाली ) है। इसके पैदा होते ही घर में कई खुशियां आई है। इनकी दादी ने इनका नाम भगत सिंह रखा। छोटी सी उम्र में भगत सिंह एक दिन पिता के साथ खेत गए और किसानों को हल चलाते देखकर पूछा कि ये लोग क्या कर रहे हैं ? पिता ने कहा , हल जोत रहे हैं , फिर बीज डालेंगे तब अनाज पैदा होगा। इसपर भगत जी बोले अनाज की तो अक्सर पैदावार होती है , ये लोग तलवार – बन्दूक की खेती क्यों नहीं करते ? पिता किशन सिंह जी इनके इस युक्ति पर आश्चर्यचकित रह गए।

भगत सिंह को बचपन से ही उनकी दादी क्रांतिकारियों के किस्से सुनाया करती थी। इससे उनके अंदर देश को आजाद कराने का जज्बा पैदा हो गया था। इनके चाचा अजीत सिंह का देश निकाला हो गया था , वह विदेश में रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहे और सुभाष चंद्र बोस जी के साथ आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। जैसे ही देश आजाद हुआ भारत की धरती पर पैर रखते ही उनका निधन हो गया। यह नियति का कैसा क्रूर मजाक था। क्रांतिकारी देश बंधू चितरंजन दास की पत्नी श्रीमती बसंती देवी ने कलकत्ता की विशाल जनसभा में कहा था कि हिन्दुस्तान के नौजवानों ने चूड़ियां पहन ली है। लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में निकल रहे जुलुस पर क्रूर सुप्रींटेंडेंट ए स्काट के आदेश पर लाला जी के सर पर लाठी लगने से मृत्यु हो गयी थी। इसका प्रभाव क्रांतिकारियों पर पड़ा। इसका बदला लेने का संकल्प लिया गया। लेकिन थोड़ी सी चूक से जूनियर ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स को गोली मार दी , जबकि मारनी थी ए स्काट को। इसमें भगत सिंह के साथ राजगुरु , सुखदेव और चंद्रशेखर आजाद भी थे। राजगुरु ने गोली उनके मस्तक पे मारी, भगत सिंह ने आगे बढ़कर और गोली दाग दी। अंगरक्षक ने पीछा किया तो आजाद जी ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया , लेकिन आजाद जी कभी पकडे नहीं गए।

कुछ लोगों को लगता है कि भगत सिंह जी को फांसी असेम्बली में बम फेंकने से हुई , पर ऐसा नहीं है। वह असेम्बली से भागे नहीं , जबकि चाहते तो भाग सकते थे। उन्होंने 08 अप्रैल 1929 को (जब वह 22 साल के थे )बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली असेम्बली में पहुँचकर जन विरोधी ‘‘ट्रेंड डिस्प्यूट बिल ‘‘ एवं ‘‘पब्लिक सेफ्टी बिल ‘‘ के विरोध में दो बम विस्फोट किये थे। इंकलाब-जिन्दावाद का नारा लगाया और और पुलिस के सामने अपने को आत्मसमर्पण कर दिया। इस मुकदमे में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास का दंड मिला। दिल्ली में सजा देकर इन दोनों को लाहौर लाया गया। क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। राजगुरु को पुणे से गिरफ्तार किया और सुखदेव लाहौर में गिरफ्तार कर लिए गए। अंग्रेजी सरकार ने भगत सिंह के पुराने केस खंगालना शुरू कर दिया था। इन तीनों को जूनियर ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स को गोली मरने से फांसी की सजा हुई थी। इनको फांसी की सजा सहारनपुर निवासी जस्टिस आगा हैदर ट्रिब्यूनल ने दी, जिसमें वह एक मात्र भारतीय सदस्य थे। उनको ब्रिटिश सरकार के फैसले पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया। ब्रिटिश सरकार डर रही थी की कहीं बवाल न हो जाए , इसलिए एक दिन पहले ही 23 मार्च को सायं काल भगत सिंह को फांसी देने के लिए उसके अधिकारी पहुँच गए (जबकि 24 मार्च 1931 को फांसी होनी थी )। उस समय भगत सिंह लेनिन की किताब ‘‘स्टेट ऑफ रिवॉल्यूशन‘‘ पढ़ रहे थे। उधर एक क्रांतिकारी दुसरे क्रांतिकारी से मुलाकात कर रहा थे। उसी दिन राजगुरु और सुखदेव को भी फांसी हुई। भगत सिंह अपने साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ भारत माता की जय , वन्दे मातरम ,इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए फांसी के फंदे की ओर चल दिए।

ब्रिटिश सरकार ने जेल के पीछे की दीवार तोड़कर शवों को पुलिस की निगरानी में लाहौर से कई किलोमीटर दूर फिरोजपुर के निकट सतलज नदी पर मिटटी का तेल डाल कर अंतिम संस्कार कर दिया। इसकी खबर आग की तरह फैल गयी। वहां पर हजारों लोगों की भीड़ इकठ्ठी हो गयी। उनके आधे जले शवों को निकाल कर सम्मान के साथ दाह संस्कार किया गया। भगत सिंह के फांसी के बाद पंजाब शायद ही ऐसा कोई घर होगा जहाँ चूल्हा जला हो। इनके पिता किशन सिंह जी ने अपने बेटे के प्राण रक्षा हेतु एक पोस्ट कार्ड पर लगी डाकखाने की मुहर की तारीख से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि जिस दिन सांडर्स का वध हुआ , उस दिन भगत सिंह लाहौर में नहीं थे। लेकिन भगत सिंह ने इस बात का खंडन कर दिए कि वे लाहौर में ही थे।

ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह के निम्नलिखित कविता को प्रतिबंधित कर दिया था।

भारत के लिये तू हुआ बलिदान भगत सिंह । था तुझको मुल्को-कौम का अभिमान भगत सिंह ।।
वहदर्द तेरे दिल में वतन का समा गया । जिसके लिये तू हो गया कुर्बान भगत सिंह ।।
वह कौल तेरा और दिली आरजू तेरी । है हिन्द के हर कूचे में एलान भगत सिंह।।
फांसी पै चढ़के तूने जहां को दिखा दिया । हम क्यों न बने तेरे कदरदान भगत सिंह।।
प्यारा न हो क्यों मादरे-भारत के दुलारे । था जानो-जिगर और मेरी शान भगत सिंह।।
हरएक ने देखा तुझे हैरत की नजर से । हर दिल में तेरा हो गया स्थान भगत सिंह।।
भूलेगा कयामत में भी हरगिज न ए ‘किशोर‘ । माता को दिया सौंप दिलोजान भगत सिंह।।

भगत सिंह जब स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे तब उनकी माँ श्रीमती विद्यावती कौर ने उनकी शादी के लिए सोची। लेकिन भगत सिंह ने मना कर दिया और डरकर कानपुर भाग आया। उनको यह नहीं पता कि किस्मत कहाँ ले जाने वाली है। उन्होंने देश की आजादी को ही अपनी दुल्हन मान लिया था। दुर्गा भाभी जी का भगत सिंह जी की पत्नी बनने का किस्सा आज भी चर्चित है। दरअसल अंग्रेजों के मिशन को विफल करने के लिए 18 दिसंबर 1928 को भेष बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। शहीदे आजम भगत सिंह 9 भाई-बहन थे। उनके सगे भाई कुलतार सिंह के बेटे किरणजीत सिंह और बहन अमरकौर के लड़के सरदार जगमोहन सिंह और उनके कई क्रांतिकारियों के साथी के पौत्र -पौत्री एवं वंशज 31 दिसंबर 2017 को स्व रामकृष्ण खत्री जी(भगत सिंह के साथी ) के पुत्र श्री उदय खत्री जी के पुत्र एवं पुत्री की शादी समारोह में आये थे। उन सब से मेरी मुलाकात भी हुई थी। ‘‘शहीद स्मृति समारोह समिति‘‘ कई क्रांतिकारियों के कार्यक्रम आयोजित करती आ रही है। जिसका मैं उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष हूँ , और इस संस्था के अध्यक्ष श्री सुनील शास्त्री जी( सुपुत्र स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी, भूतपूर्व प्रधानमंत्री) और महामंत्री श्री उदय खत्री जी हैं। भगत सिंह जी के बारे में जितना लिखा जाए वह बहुत ही कम हैं , लेकिन आज की युवा पीढ़ी दिशा-विहीन हो चुकी है। आज जो हम खुली सांस ले रहे हैं, वह इन्हीं क्रांतिकारियों की कृपा से ले पा रहे हैं।

(लेखक: ‘‘शहीद स्मृति समारोह समिति‘‘के उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष हैं।)