इस्लाम तख़्ते शाम के नीचे दबा था जब,
सर दे के तब हुसैन ने गोदी में ले लिया।

आज मोहर्रम की चौथी तारीख़ है। इमाम हुसैन को करबला में आये हुए दो दिन गुज़र चुके हैं। इस दो दिन में जहां यज़ीद बिन मुआविया की तरफ़ से लाखों की फ़ौज करबला में इकट्ठा हो चुकी है वहीं इमाम हुसैन ने कुछ ऐसे लोगों को ख़त लिख कर बुलाया जो उम्र से बूढ़े थे मगर इल्म और किरदार में जवान थे। दर असल दुनियाँ तो वाक़या करबला से अच्छी तरह वाकिफ़ हो गई मगर मुसलमान आज तक नहीं समझ पाया, या समझ कर अनजान बनने की कोशिश में लगा रहता है। सीधी सी बात है नबी के मानने वालों ने नबी के घराने पर ज़ुल्म किया, उनके घर के मर्दों और बच्चों को बेख़ता क़त्ल किया, उनके घर की औरतों को क़ैद कर के दर बदर फिराया, अब इससे बड़ी गद्दारी रसूले ख़ुदा से क्या हो सकती है। जिस नबी का कलमा पढ़ रहे थे उसी नबी के उस निवासे को भूखा प्यासा शहीद कर रहे थे जिस के बारे में नबी अकरम ने फ़रमाया था,” हुसैन मुझ से है और मैं हुसैन से हूँ “।

हर घटना का एक पसमंज़र ( पृष्ठभूमि ) होता है। यहां भी वही हुआ। जब रसूले ख़ुदा मोहम्मद साहब ने वहदानियत ( एक ईश्वरवाद ) की तालीम देनी शुरू की तो अपने बुतों की आड़ में अपनी सत्ता और व्यापार चलाने वाले भड़क गए, और दुश्मनी ठान ली। जिस में मक्का के बड़े बड़े व्यापारी थे जिसकी सरदारी अबू सुफ़ियान और उसकी पत्नी हिन्द कर रही थी। जब तक रसूल के चचा जनाबे अबू तालिब ज़िंदा थे तो वह उनकी हिफ़ाज़त करते रहे मगर उनके इन्तिक़ाल के बाद मक्का के लोगों ने न सिर्फ़ ज़ुल्म बढ़ाया बल्कि रसूल के क़त्ल की साज़िश भी करने लगे, रसूल ने अल्लाह के हुक्म से मक्का से मदीना हिजरत की तो मक्का के लोग मदीना में आ कर जंग लड़ते रहे जिस में अबूसुफ़यान आगे आगे रहता था। फ़तह मक्का के दिन वह डर कर मुसलमान हो गया, कैसा मुसलमान था यह उसकी औलाद ने अपने अमल से बताया।

उसी अबू सुफ़ियान का पोता यज़ीद इब्ने मुआविया था, जिस ने क़ुरान से इनकार किया, रिसालत से इनकार किया, वही ( दैवी संदेश ) और फ़रिश्ते से इनकार किया, गोया इस्लाम से इनकार किया, यह कोई नई बात नहीं थी उसने वही कहा जो उस का दादा कहा करता था, बस दादा ने तब कहा था जब वह इस्लाम से बाहर था पोते ने इस्लाम का लीबादा ओढ कर वही बातें दोहरा दीं। और जो रिसालत और इस्लाम का मुहाफ़िज़ था उस पर ज़ोर ज़बरदस्ती से अपनी बात मनवाने की कोशिश की, मगर नाकाम रहा, और आज तक लानत का मुस्तहक़ बन गया।

याज़ीद नजासत में पला बढ़ा था, इमाम हुसैन रसूले खुदा की गोद में पले थे। यजीद दुश्मने इस्लाम के घराने का था और इमाम हुसैन ख़ुद मुकम्मल इस्लाम थे। जिन मुसलमानों ने इमाम हुसैन को मारा उस ने दरअसल दीने इसलाम को मारा। कल मुसलमान यजीद का पैरोकार था, आज मुसलमान तो मुसलमान दुनियां का हर इंसान उस पर लानतें भेज रहा है।

मेहदी अब्बास रिज़वी