ज़ीनत शम्स

यूपी की राजधानी लखनऊ से सटे बाराबंकी ज़िले के रामसनेही घाट तहसील में एक सौ साल पुरानी मस्जिद को प्रशासन ने ध्वस्त कर दिया और उसका मलबा वहां से हटाकर PAC को तैनात कर दिया गया. इस मस्जिद का मामला हाई कोर्ट में चल रहा है और अभी 31 मई तक स्टे भी है मगर कानून को एकबार फिर दरकिनार किया गया और कोरोना महामारी और लॉकडाउन की आड़ में स्थानीय प्रशासन द्वारा यह काम अंजाम दिया गया. कुछ इसी तरह की घटना बाराबंकी ज़िले के क़स्बा फतेहपुर में भी कुछ दिन पहले घटी थी जब एक सैकड़ों साल पुरानी किसी बुज़ुर्ग की मज़ार जो कस्बे के गुंजान इलाक़े मुंशीगंज में स्थित थी रातों रात हटा दी गयी.

सरकार भले ही इन घटनाओं को क़ानून व्यवस्था की बात बताये मगर जब आप इस बात को सोचें कि अगले कुछ महीनों बाद प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं तो बात कुछ कुछ समझ में आने लगती है. उपरोक्त दोनों घटनाएं आपस में मेल खाती हुई दिखाई देती हैं वरना ऐसी कौन सी बात थी कि 31 मई तक स्टे था, प्रदेश में लॉकडाउन चल रहा था, शमसान धू धू करके जल रहे थे, क़ब्रिस्तानों में जनाज़े दफ़्न हो रहे थे, सड़कें वीरान थीं और एक सौ साल पुरानी मस्जिद शहीद की जा रही थी.

बात साफ़ नज़र आ रही है कि चुनावों से पहले इस तरह की घटनाओं को अंजाम देकर माहौल को चुनाव की रोटियां सेंकने लायक बनाया जाय. माहौल शायद गरम हो भी गया होता, लोग हो सकता है सड़कों पर भी आ गए होते मगर लॉकडाउन और कोरोना महामारी की भयावहता के कारण शायद ऐसा नहीं हुआ या ऐसा भी कह सकते हैं कि अल्पसंख्यक वर्ग इस भड़कावे की कार्रवाई से भड़का नहीं और समझदारी से काम लिया। हालाँकि मुस्लिम संगठनों ने मस्जिद की शहादत की ज़ोरदार निंदा की. सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और आल इंडिया मुस्लिम पर्स्नल लॉ बोर्ड ने सरकार से नाराज़गी भी जताई है और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग भी की.

जमाते इस्लामी हिन्द ने भी 100 साल पुरानी गरीब नवाज़ मस्जिद की शहादत को अत्यंत निंदनीय और देश के एक बड़े तबके के खिलाफ पक्षपातपूर्ण कार्रवाई बताया है. जमात-ए-इस्लामी हिन्द ने सरकार से दोषी अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने और मस्जिद के पुनर्निर्माण की मांग की।

ऐसे माहौल में जब पूरे देश में तबाही के मंज़र आम हों, मौतों की सुनामी आयी हुई हो, लाशों का अंतिम संस्कार करने की जगह न मिल रही, देश एक आपदा काल से गुज़र रहा हो, कोई सरकार कैसे इस तरह की कार्रवाई की इजाज़त दे सकती है (इतने संवेदनशील मामले का फैसला स्थानीय प्रशासन बिना ऊपर के आदेश के नहीं ले सकता). इस समय तो देश और प्रदेश में आपातकालीन स्थिति है जहाँ मरते हुए लोगों की जान बचाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि मस्जिद को ध्वस्त करना। अगर स्टे की मीआद ख़त्म भी गयी होती तब भी यह कार्रवाई इतनी ज़रूरी नहीं थी क्योंकि कोरोना मरीज़ों का इलाज करना और उनकी जान बचाना उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी काम है।

पूरा देश दूसरी लहर का प्रकोप झेल रहा है और तीसरी लहर, ब्लैक और व्हाइट फंगस से निपटने की तैयारी कर रहा है पर यूपी में इन आने वाले खतरों की जगह चुनावी लहर पर नज़र है. बंद कीजिये यह सब क्योंकि जनता भोली ज़रूर है बेवक़ूफ़ नहीं, अब शायद इन पैंतरों का उसपर कुछ असर नहीं होने वाला। कोरोना ने देश को बहुत नुकसान पहुँचाया मगर लोगों के दिलों से मज़हबी नफ़रत को भी कम किया है. देश को क्या चाहिए? यह कोरोना महामारी ने अच्छी तरह से समझा दिया। लोगों के दिलों में मज़हबी नफरत पैदा करके सत्ता पर क़ाबिज़ रहना अब शायद इतना आसान नहीं। आख़िर में सूबे के मुखिया से एक ही सवाल, इस आपदा में मस्जिद को तोड़ना ज़रूरी या कोरोना महामारी को?