डॉक्टर मुहम्मद नजीब क़ासमी

ज़िलहिज्जा के महीने का पहला अशरा: अल्लाह तआला ने क़ुरान करीम (सूरह फजर आयत 2) में ज़िलहिज्जा की दस रातों की क़सम खाई है जिससे मालूम हुआ कि ज़िलहिज्जा का महीना इब्तिदाई अशरा इस्लाम में खास अहमियत का हामिल है। हज का अहम रुक्न वुक़ूफे अरफा इसी अशरे में अदा किया जाता है जो अल्लाह तआला के खास फज़्ल व करम को हासिल करने का दिन है। गरज़ रमज़ान के बाद इन दिनों में उखरवी कामयाबी हासिल करने का बेहतरीन मौक़ा है, लिहाज़ा इनमें ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह की इबादत करें, अल्लाह का ज़िक्र करें, रोज़ा रखें, क़ुर्बानी करें।

अहादीस में इन अय्याम में इबादत करने के खुसूसी फज़ाइल आए हैं जिनमें से चंद अहादीस ज़िक्र कर रहा हूं।

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कोई दिन ऐसा नहीं है जिसमें नेक अमल अल्लाह तआला के यहां इन दस दिनों के अमल से ज़्यादा महबूब और पसंदीदा हो। (सही बुखारी)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया अल्लाह तआला के नज़दीक अशरए ज़िलहिज्जा से ज़्यादा अज़मत वाले दूसरे कोई दिन नहीं हैं, लिहाज़ा तुम इन दिनों में तसबीह व तहलील और तकबीर व तहमीद कसरत से किया करो।

(तबरानी) इन अय्याम में हर शख्स को तकबीरे तशरीक पढ़ने का खास एहतेमाम करना चाहिए तकबीरे तशरीक के कलेमात यह हैं अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर आखिर तक।

अरफा के दिन का रोज़ा: हज़रत अबू क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया अरफा के दिन के रोज़े के मुतअल्लिक़ मैं अललाह से पुख्ता उम्मीद रखता हूं कि वह इस की वजह से एक साल पहले और एक साल बाद के गुनाहों को माफ फरमा देंगे। (सही मुस्लिम)

मज़कूरा हदीस से मालूम हुआ कि अरफा के दिन का एक रोज़ा एक साल पहले और एक साल बाद के गुनाहों की माफी का सबब बनता है, लिहाज़ा 9 ज़िलहिज्जा के दिन रोज़ा रखने का एहतेमाम करें।

(वज़ाहत) इख्तिलाफे मताले के सबब मुख्तलिफ मुल्कों में अरफा का दिन अलग अलग दिनों में हो तो उसमें कोई इशकाल नहीं, क्योंकि ईदुल, ईदुल अज़हा, शबे क़दर और आशूरा के दिन की तरह जगह के एतेबार से जो दिन अरफा का क़रार पाएगा उस जगह उसी दिन में अरफा के रोज़ा रखने की फज़ीलत हासिल होगी इंशाअल्लाह।

क़ुर्बानी की हक़ीक़त: क़ुर्बानी का अमल अगरचे हर उम्मत के लिए रहा है जैसा कि अल्लाह तआला का इरशाद है “हमने हर उम्मत के लिए क़ुर्बानी मुक़र्रर की ताकि वह चैपायों के मखसूस जानवरों पर अल्लाह के नाम लें जो अल्लाह तआला ने अता फरमाए।” (सूरह हज 34) लेकिन हज़रत इब्राहिम और हज़रत इसमाईल अलैहिस्सलाम की अहम व अज़ीम क़ुर्बानी की वजह से क़ुर्बानी को सुन्नते इब्राहिमी कहा जाता है और इसी वजह से इसको खुसूसी अहमियत हासिल हो गई। चुनांचे हज़रत इब्राहिम और हज़रत इसमाईल अलैहिमुस्सलाम की अज़ीम क़ुर्बानी की याद में अल्लाह तआला के हुकुम पर हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इत्तिबा में जानवरों की क़ुर्बानी की जाती है जो क़यामत तक जारी रहेगी इंशाअल्लाह। इस क़ुर्बानी से हमें यह सबक़ मिलता है कि हम अल्लाह की इताअत और फरमांबरदारी में अपनी जान व माल व वक़्त हर क़िस्म की क़ुर्बानी के लिए तैयार हैं।

हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज्जतुल विदा के मौक़े पर सौ ऊंटों की क़ुर्बानी पेश फरमाई थी जिसमें 63 ऊंट की क़ुर्बानी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने मुबारक हाथों से की थी और बक़िया 37 ऊंट हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने ज़बह फरमाए। (सही मुस्लिम) यह हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशाद (ज़िलहिज्जा की 10 तारीख को कोई नेक अमल अल्लाह तआला के नज़दीक क़ुर्बानी का खून बहाने से बढ़ कर महबूब और पसंदीदा नहीं) का अमली इज़हार है और उस अमल में उन हज़रात का भी जवाब है जो मगरबी तहज़ीब से मुतअस्सिर हो कर कह देते हैं कि जानवरों की क़ुर्बानी के बजाए गरीबों को पैसे तक़सीम कर दिए जाएं। इस्लाम ने जितना गरीबों का खयाल रखा है उसकी कोई मिसाल किसी दूसरे मज़हब में नहीं मिलती, बल्कि इंसानियत को गरीबों और कमजोरों के दर्द का इहसास शरीअते इस्लामिया ने ही सबसे पहले दिलाया है। गुरबा व मसाकीन का हर वक़्त खयाल रखते हुए शरीअते इस्लामिया हमसे मुतालिबा करती है कि हम ईदुल अज़हा के दिनों में हज़रत इब्राहिम और हज़रत इसमाइल अलैहिस्सलाम की अज़ीम क़ुर्बानी की याद में अपने नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इत्तिबा करते हुए क़ुर्बानी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लें जैसा कि सारी इंसानियत के नबी हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया किसी काम में माल खर्च किया जाए तो वह ईदुल अज़हा के दिन क़ुर्बानी में खर्च किए जाने वाले माल से ज़्यादा फज़ीलत नहीं रखता। (सुनन दारे क़ुतनी, बैहक़ी)

इन दिनों बाज़ हज़रात ने बावजूद कि उन्होंने क़ुर्बानी के सुन्नते मुअक्कदा और इस्लामी शेआर का मौक़िफ इख्तियार किया है 1400 साल से जारी व सारी सिलसिले के खिलाफ अपने अक़वाल व अफआल से गोया यह तबलीग करनी शुरू कर दी है कि एक क़ुर्बानी पूरे खानदान के लिए काफी है और क़ुर्बानी कम से कम की जाए जो सरासर क़ुरान व हदीस की रूह के खिलाफ है, क्योंकि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसललम के अक़वाल व अफआल की रौशनी में उम्मते मुस्लिमा का इत्तिफाक़ है कि इन दिनों में ज़्यादा से ज़्यादा क़ुर्बानी करनी चाहिए।
दूसरे अमाले सालेहा की तरह क़ुर्बानी में भी मतलूब व मक़सूद रज़ाए इलाही होनी चाहिए जैसा कि अल्लाह तआला इरशाद फरमाता है “मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी, मेरा जीना, मेरा मरना सब अल्लाह की रज़ामंदी के लिए है जो तमाम जहानों का पालने वाला है।” (सूरह अनआम 162) अल्लाह तआला का फरमान “अल्लाह को न उनका गोशत पहुंचता है न उनका खून, लेकिन उसके पास तुम्हारा तक़वा पहुंचता है।” (सूरह हज 37)

क़ुर्बानी की अहमियत व फज़ीलत: हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहुमा फरमाते हैं कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मदीना में दस साल क़याम फरमाया (उस क़याम के दौरान) आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ुर्बानी करते रहे। (तिर्मिज़ी) गरज़ ये कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसललम ने मदीना के क़याम के दौरान एक मरतबा भी क़ुर्बानी तर्क नहीं की बावजूद कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर में बवजहे क़िल्लते तआम कई कई महीने चुल्हा नहीं जलता था।

हज़रत ज़ैद बिन अरक़म रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि एक मरतबा सहाबा ने हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सवाल किया या रसूलुल्लाह! यह क़ुर्बानी क्या है? (क़ुर्बानी की हैसियत क्या है?) आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया तुम्हारे बाप हज़रत इब्राहिम की सुन्नत (और तरीक़ा) है। सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलुल्लाह! हमें क़ुर्बानी से क्या फायदा होगा? हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया हर बाल के बदले में एक नेकी मिलेगी। सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलुल्लाह! ऊन के बदले में क्या मिलेगा? हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया ऊन के हर बाल के बदले में (भी) नेकी मिलेगी। (सुनन इब्ने माजा)

उम्मुल मोमेनीन हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया ज़िलहिज्जा की 10 तारीख को कोई नेक अमल अल्लाह तआला के नज़दीक क़ुर्बानी का खून बहाने से बढ़ कर महबूब और पसंदीदा नहीं और क़यामत के दिन क़ुर्बानी करने वाला अपने जानवर के बालों, सींगों और खुरों को ले कर आएगा (और यह चीजें अज्र व सवाब का सबब बनेंगी) और क़ुर्बानी का खून ज़मीन पर गिरने से पहले अल्लाह तआला के नज़दीक शरफे क़बूलियत हासिल कर लेता है, लिहाज़ा तुम खुश दिली के साथ क़ुर्बानी किया करो। (तिर्मिज़ी)
क़ुर्बानी वाजिब है

क़ुर्बानी को वाजिब या सुन्नते मुआक्कदा क़रार देने में ज़मानए क़दीम से इख्तेलाफ चला आ रहा है, मगर पूरी उम्मते मुस्लिमा मुत्तफिक़ है कि क़ुर्बानी एक इस्लामी शेआर है और जो शख्स क़ुर्बानी कर सकता है उसको क़ुर्बानी करने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए चाहे उसको वाजिब कहें या सुन्नते मुअक्कदा या इस्लामी शेआर। हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना में हमेशा क़ुर्बानी किया करते थे बावजूद कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर में अशियाए खुर्दनी न होने की वजह से कई कई महीने तक चूल्हा नहीं जलता था। 80 हिजरी में पैदा हुए हज़रत इमाम अबू हनीफा ने क़ुरान व हदीस की रौशनी में क़ुर्बानी को वाजिब क़रार दिया है, हज़रत इमाम मालिक और हज़रत इमाम अहमद बिन हमबल की एक रिवायत भी क़ुर्बानी के वुजूब की है। हिन्द व पाक के जमहूर उलमा ने भी वुजूब के क़ौल को इख्तियार किया है, क्योंकि यही क़ौल एहतियात पर मबनी है। अल्लामा इब्ने तैमिया ने भी क़ुर्बानी के वुजूब के क़ौल को इख्तियार किया है। क़ुर्बानी के वुजूब के लिए बहुत से दलाइल में से चन्द पेशे खिदमत हैं।

1) अल्लाह तआला क़ुरान करीम (सूरह कौसर) में इरशाद फरमाता है “आप अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ें और क़ुर्बानी करें।” इस आयत में क़ुर्बानी करने का हुकुम दिया जा रहा है और अमर वुजूब के लिए हुआ करता है जैसा कि मुफस्सेरीन ने इस आयत की तफसीर में लिखा है। अल्लामा अबू बकर जस्सास (विलादत 305) अपनी किताब (अहकामुल क़ुरान) में लिखते हैं हज़रत हसन बसरी फरमाते हैं कि इस आयत में जो नमाज़ का ज़िक्र है इससे ईद की नमाज़ मुराद है और “वनहर” से क़ुर्बानी मुराद है। मुफस्सीरे क़ुरान शैख अबू बकर जस्सास फरमाते हैं कि इससे दो बातें साबित होती हैं: 1) ईद की नमाज़ वाजिब है।
2) क़ुर्बानी वाजिब है।

2) हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया जिस शख्स को क़ुर्बानी की वुसअत हासिल हो और वह क़ुर्बानी न करे तो हमारी ईदगाह के करीब न भटके। (इब्ने माजा, मुसनद अहमद) वुसअत के बावजूद क़ुर्बानी न करने पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सख्त वईद इरशाद फरमाई है और इस क़िस्म की सख्त वईद वाजिब के छोड़ने पर ही होती है, लिहाज़ा मालूम हुआ कि क़ुर्बानी करना वाजिब है।

3) हज़रत जुनदुब बिन सुफयान रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि मैं ईदुल अज़हा के दिन हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाज़िर हुआ, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जिसने ईद की नमाज़ से पहले (क़ुर्बानी का जानवर) ज़बह कर दिया तो उसे चाहिए कि उसकी जगह दूसरी क़ुर्बानी करे और जिसने (ईद की नमाज़ से पहले) ज़बह नहीं किया तो उसे चाहिए कि वह (ईद की नमाज़ के) बाद ज़बह करे। (सही बुखारी) हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ईदुल अज़हा की नमाज़ से पहले जानवर ज़बह करने पर दोबारा क़ुर्बानी करने का हुकुम दिया, हालांकि उस ज़माने में सहाबा के पास माली वुसअत नहीं थी, यह क़ुर्बानी के वुजूब की वाज़ेह दलील है।

क़ुर्बानी किस पर वाजिब है: हर साहबे हैसियत को क़ुर्बानी करनी चाहिए जैसा कि हदीस में गुज़रा कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जिस शख्स को क़ुर्बानी की वुसअत हासिल हो और वह क़ुर्बानी न करे तो वह हमारी ईदगाह में न आए। हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस फरमान से वाज़ेह तौर पर मालूम हुआ कि क़ुर्बानी के वुजूब के लिए साहबे वुसअत होना ज़रूरी है, अलबत्ता मुसाफिर पर क़ुर्बानी वाजिब नहीं जैसा कि हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि मुसाफिर पर क़ुर्बानी वाजिब नहीं। (अलमुहल्ला बिल आसार)

क़ुर्बानी के जानवर: भेड़, बकरी, गाए, भैंस और ऊंट (नर व मादा) क़ुर्बानी के लिए ज़बह किए जा सकते हैं जैसा कि अल्लाह तआला फरमाता है आठ जानवर हैं दो भेड़ों में से और दो बकरियों में से, दो ऊंटों में से और दो गायों में से। (सूरह अनआम 143, 144)

क़ुर्बानी के जानवरो में भैंस भी दाखिल है, क्योंकि यह भी गाए की एक क़िस्म है लिहाज़ा भैंस की क़ुर्बानी भी जाएज़ है। उम्मते मुस्लिमा का इजमा है कि भैंस का हुकुम गाए वाला है। (किताबुल इजमा लिइब्ने मुंजिर पेज 37) हज़रत हसन बसरी फरमाते हैं कि भैंस गाए के दरजे में है। (मुसन्नफ इब्ने अबी शैबा जिल्द 7 पेज 65) हज़रत इमाम सुफयान सौरी फरमाते हैं कि भैंसों को गाए के साथ शुमार किया जाएगा। (मुसन्नफ अब्दुर रज़्ज़ाक़ जिल्द 4 पेज 23) हज़रत इमाम मालिक फरमाते हैं कि भैंस गाए ही है (यानी गाए के हुकुम में है) (मुअत्ता इमाम मालिक) हिन्द व पाक के जमहूर उलमा की भी यही राय है कि भैंस गाए के हुकुम में है। सउदी अरब के मशहूर आलिम शैख मोहम्मद बिन उसैमीन ने भी भैंस को गाए के हुकुम में शामिल किया है। भैंस अरबों में नहीं पाई जाती है, इसलिए इसका ज़िक्र क़ुरान करीम में वज़ाहत से नहीं है। (मजमूआ फतावा व रसाइल शैख इब्ने उसैमीन 34/25) मौसूआ फिकह कुवैतिया में यही मज़कूर है कि भैंस गाए के हुकुम में है।

जानवर की उम्र: क़ुर्बानी के जानवर में भेड़ और बकरा और बकरी एक साल, गाए और भैंस दो साल और ऊंट पांच साल का होना ज़रूरी है, अलबत्ता वह भेड़ और दुम्बा जो देखने में एक साल का लगता हो उसकी क़ुर्बानी भी जाएज़ है।

क़ुर्बानी के जानवर में शुरका की तादाद: अगर क़ुर्बानी का जानवर बकरा, बकरी, भेड़ या दुम्बा है तो वह सिर्फ एक आदमी की तरफ से किफायत करती है। हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि बकरी एक आदमी की तरफ से होती है। (एलाउस सुनन)

अगर क़ुर्बानी का जानवर ऊंट, गाए या भैंस है तो उसमें सात आदमी शरीक हो सकते हैं। हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हम हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ हज का एहराम बांध कर निकले तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हुकुम दिया कि हम ऊंट और गाए में सात सात आदमी शरीक हो जाएं। (सही मुस्लिम) हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं हमने हुदैबिया वाले साल हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ क़ुर्बानी की, चुनांचे ऊंट सात आदमियों की तरफ से और गाए सात आदमियों की तरफ से ज़बह की। (सही मुस्लिम)
(वज़ाहत) हज्जतुल विदा और सुलह हुदैबिया के मौक़े पर ऊंट और गाए में सात सात आदमी शरीक हुए थे, इस पर क़यास करके उलमाए उम्मत ने फरमाया कि ईदुल अज़हा की क़ुर्बानी में भी ऊंट और गाए में सात सात आदमी शरीक हो सकते हैं।

क़ुर्बानी के दिन (क़ुर्बानी के तीन दिन हैं 10, 11 और 12 ज़िलहिज्जा): हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु क़ुरान की आयत की तफसीर में फरमाते हैं कि अय्यामे मालूमात से मुराद यौमुन नहर (10 ज़िलहिज्जा) और उसके बाद दो दिन हैं। (तफसीर इब्ने अबी हातिम जिल्द 6 पेज 261)

हज़रत सलमा बिन अकवा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया जो शख्स क़ुर्बानी करे तो तीसरे दिन के बाद उसके घर में क़ुर्बानी के गोशत में से कुछ नहीं बचना चाहिए। (सही बुखारी) इस हदीस से मालूम हुआ कि क़ुर्बानी के दिन तीन ही हैं, इसलिए कि जब चौथे दिन क़ुर्बानी का बचा हुआ गोश्त रखने की इजाज़त नही तो पूरा जानवर क़ुर्बानी करने की इजाज़त कहां से होगी?

(वज़ाहत) तीन दिन के बाद क़ुर्बानी का गोश्त रखने की मुमानअत इब्तिदाए इस्लाम में थी, बाद में इजाज़त दे दी गई कि इसे तीन दिन बाद भी रखा जा सकता है। (मुस्तदरक हाकिम जिल्द 4 पेज 259) इससे कोई यह न समझे कि जब तीन दिन के बाद गोश्त रखने की इजाज़त मिल गई तो तीन दिन के बाद क़ुर्बानी भी की जा सकती है, इस लिए कि गोशत तो पूरे साल भी रखा जा सकता है तो क्या क़ुर्बानी की इजाज़त भी सारे साल होगी? हरगिज़ नहीं। तीन दिन के बाद क़ुर्बानी की इजाज़त न पहले थी और अब है।

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से भी यही मंकूल है कि क़ुर्बानी के दिन तीन ही हैं। (मुअत्ता इमाम मालिक)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि क़ुर्बानी के दिन 10 ज़िलहिज्जा और उसके बाद दो दिन हैं अलबत्ता यौमुन नहर (10 ज़िलहिज्जा) को क़ुर्बानी करना अफज़ल है। (अहकामुल क़ुरान लित तहावी जिल्द 2 पेज 205)

(वज़ाहत) बाज़ उलमा ने मुसनद अहमद में वारिद हदीस (कुल्लु अय्यामित तशरीक ज़िबहुन) की बुनियाद पर फरमाया कि अगर कोई शख्स 12 ज़िलहिज्जा तक क़ुर्बानी नहीं कर सका तो 13 ज़िलहिज्जा को भी क़ुर्बानी की जा सकती है। लेकिन हज़रत इमाम अबू हनीफा, हज़रत इमाम मालिक और हज़रत इमाम अहमद बिन हमबल रहमतुल्लाह अलैहिम ने मज़कूरा बाला दलाइल की रौशनी में फरमाया है कि क़ुर्बानी सिर्फ तीन दिन की जा सकती है। हज़रत इमाम अहमद बिन हमबल ने खुद अपनी किताब में वारिद हदीस के मुतअल्लिक़ वज़ाहत कर दी है कि यह हदीस ज़ईफ है, नीज़ असूले हदीस है कि ज़ईफ हदीस से हुकुम साबित नहीं हो सकता है। हज़रत इमाम अहमद बिन हमबल ने लिखा है कि बहुत से सहाबए किराम मसलन हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर और हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुम की भी यही राय थी, एहतियात का तकाजा भी यही है कि क़ुर्बानी को सिर्फ तीन दिन तक महदूद रखा जाए, क्योंकि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम या किसी एक सहाबी से 13 ज़िलहिज्जा को क़ुर्बानी करना साबित नहीं है।

क़ुर्बानी करने वाला नाखुन और बाल न काटे या कटवाए: उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जब ज़िलहिज्जा का महीना शुरू हो जाए और तुममें से जो क़ुर्बानी करने का इरादा करे तो वह अपने बाल और नाखुन न काटे। (मुस्लिम) इस हदीस और दूसरे अहादीस की रौशनी में क़ुर्बानी करने वालों के लिए मुस्तहब है कि ज़िलहिज्जा का चांद नज़र आने के बाद क़ुर्बानी करने तक जिस्म के किसी हिस्से के बाल और नाखुन न काटें, लिहाज़ा अगर बाल या नाखुन वगैरह काटने की ज़रूरत हो तो ज़िलक़ादा के आखिर में फारिग हो जाएं।