तौक़ीर सिद्दीक़ी

वैसे तो राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव पूर्व अपनी जीत के बड़े बड़े दावे हमेशा किये जाते रहे हैं मगर 2014 के बाद से सीटों की संख्या बताने का नया चलन शुरू हुआ है. कई बार सीटों की संख्या का दावा सही भी निकला है. अब यूपी की बात ही लीजिये तो पिछली भाजपा ने 300+ का दावा किया था जो सही साबित हुआ, हालाँकि लोगों ने इसपर सवाल भी उठाये कि इन्हें पहले से कैसे मालूम हुआ कि इतनी सीटें आएँगी, सत्ता के दुरूपयोग, चुनाव आयोग से मिलीभगत और EVM से छेड़छाड़ के आरोप भी लगे.

बहरहाल बात सीटों के दावे की हो रही थी तो समाजवादी प्रमुख अखिलेश यादव के दावे भी इन दिनों सुर्खियां बटोर रहे हैं, और जैसे जैसे विधानसभा चुनाव का समय नज़दीक आ रहा है यह दावे मज़बूती के साथ आगे बढ़ते नज़र आ रहे हैं. पहले 300 फिर 300+ और अब दावा 400 सीटें जीतने का. अब सवाल यह पैदा हो रहा है कि समय के साथ सीटों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है. क्या इसे सिर्फ चुनावी फेंकमफाँक समझा जाय या फिर अखिलेश का बढ़ता आत्मविश्वास?

यह बात तो सभी जानते हैं कि भाजपा के लिए इसबार यूपी जीतना उतना आसान नहीं जितना 2019 में था. साढ़े चार साल का समय गुज़र चूका है, कोरोना महामारी से पैदा हुई समस्याओं ने सत्ताधारी पार्टी के मंसूबों पर पानी फेर दिया है, बूढ़ा हो या नौजवान, पढ़ा लिखा हो या अनपढ़, छोटा दूकानदार हो या मंझोला व्यापारी, डेली वेजर हो या प्राइवेट एम्प्लोयी, सभी सर्वाइवल की लड़ाई लड़ रहे हैं। बेरोज़गार नौजवान सड़कों पर नौकरियों के लिए पुलिस की लाठियां खा रहे हैं, छात्र-छात्राएं भी अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित हैं। अख़बारों और टीवी चैनलों पर सरकारी दावों की तो भरमार है मगर धरातल पर कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा है.

कानून-व्यवस्था को अपना सबसे बड़ा अचीवमेंट बताया जा रहा है मगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कुछ और कहानी बयान कर रहे हैं, ऐसे ही दावे प्रदेश की अर्थव्यवस्था के बारे में भी किये जा रहे हैं मगर मल्टी नेशनल कंपनियों से किये गए मेमोरंडम ऑफ़ अण्डरस्टैंडिंग्स पर अमल दरामद कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है.

ऐसे ही कोरोना से निपटने के सर्वश्रेष्ठ उपाय किये जाने के दावे भी किये जा रहे हैं, अगर इतने ही सर्वश्रेष्ठ उपाय किये गए थे तो शमशान घाटों को टीनों से कवर कर चिताएं छुपाने की ज़रुरत क्यों पड़ी थी?

बात फिर अखिलेश के बढ़ते हुए दावे की, इन दावों को अखिलेश यादव का अतिआत्मविश्वास समझा जाय क्या? अतिआत्मविश्वास तो पिछलीबार भी था, शायद इसी लिए उन्होंने अपने चाचा शिवपाल की भी परवाह नहीं की थी, पारिवारिक कलह को भी दरकिनार कर दिया था. उन्हें “काम बोलता है” पर इतना ज़्यादा भरोसा था कि हार के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं होगा , वह भी इतनी बुरी हार.

तो 400 सीटों का यह आत्मविश्वास रालोद और महान दल जैसी छोटी पार्टियों का साथ मिलने की वजह से आया है, या फिर जनता की मोदी और योगी सरकार के प्रति बढ़ती नाराज़गी से, विवादित कृषि कानूनों पर किसानों के आंदोलन से या फिर बढ़ती मंहगाई से परेशान गरीब और मध्यम वर्ग से, पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दामों से या सड़कों पर आंदोलनरत बेरोज़गार नौजवानों की सरकार के प्रति नाराज़गी से.

अखिलेश के दावे का समर्थन करने वाले मुद्दे तो बहुतेरे हैं मगर देखने वाली बात यह होगी समाजवादी पार्टी या उसका गठबंधन इन ज्वलंत मुद्दों को अपने हक़ में कैसे मोड़ता है. अतिआत्मविश्वास का खमियाज़ा तो अखिलेश पिछले चुनाव में भुगत चुके हैं इसीलिए इस बार वह बहुत संभल संभलकर कदम रख रहे हैं. 400 सीटों उनका दावा भले हो लोगों नकली लगे मगर इन दावों से बढ़ता सपा कार्यकर्ताओं का जोश बिलकुल असली है और सत्ता तक पहुँचाने में जोशीले कार्यकर्ताओं का बहुत बड़ा होता है.