14 सितंबरः  हिंदी दिवस पर विशेषः

डॉ. रामजीलाल जांगिड़

जब तक हम हिंदी को राष्ट्रीय और अपनी प्रान्तीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे तब तक स्वराज्य की बातें निरर्थक हैं . मोहनदास करमचंद गाँधी

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने वर्ष 1916 से हिंदी में ही भाषण देना प्रारम्भ कर किया और देशवासियों से आग्रह किया कि अपने पत्र.व्यवहार हिंदी में ही किया करें। 

 5 फरवरी 1916 को महाराज काश्मीर के सभापतित्व में कांशी नगरी प्रचारिणी सभा का 22 वां वार्षिकोत्सव हुआ था। उसमें हिंदी में भाषण देते हुए देश के युवकों से आग्रह किया कि वे प्रतिज्ञा करें कि परस्पर पत्र व्यवहार हिंदी में ही करेंगे। वकीलों से आग्रह किया था कि वे न्यायालय का कार्य हिंदी में किया करे।

मई 1917 में बापू ने पत्र.पत्रिकाओं में विस्तृत विचार प्रकाशित किए जिनके अपनाने में समूचे देश में हिंदी का प्रचार बढ़ सकता था, लिपि की समस्या सुलझ सकती थी।

वर्ष 1917 में 28, 29 और 30 अप्रैल को अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का अष्टम सम्मेलन इंदौर में हुआ उसमें अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए बापू ने कहा दृ मुझे खेद है कि जिन प्रांतों की मातृभाषा हिंदी है वहां भी उस भाषा की उन्नति करने का उत्साह नहीं दिखाई देता है। जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी.अपनी प्रान्तीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे तब तक स्वराज्य की सब बाते निरर्थक हैं।

दिसम्बर 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कलकत्ता के अधिवेशन में उन्होंने स्पष्ट कहा दृ मैने गत वर्ष लखनऊ कांग्रेस में प्रतिज्ञा की थी कि मैं अब कांग्रेस में हिंदी के सिवाय कभी अंग्रेजी भाषा में न बोलूंगा। आप यदि हमारा व्याख्यान सुनना चाहें तो हिंदी सीख कर आयें।

4 फरवरी 1929 को राष्ट्रीय विश्व विद्यालय कलकत्ता में बापू ने कहा ” आप उर्दू और हिंदी साहित्यों में बहुत बड़ा भंडार पायेंगे। जो कुछ मैने हिंदी के बारे में विगत भाषण में  कहा है वह वर्तमान हिंदी के लिए है। हिंदी में तुलसीकृत रामायण के बराबर दूसरा ग्रंथ ही नहीं है।

अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के अष्टम सम्मेलन में जो कि बापू के सभापतित्व में हुआ था, बापू के सद्प्रयत्न से ही उसमें यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था कि मंद्रास प्रांत में हिंदी प्रचार की व्यवस्था की जाय, अतएव वर्ष 1918 में बापू ने अपने कनिष्ठ पुत्र देवदास गाँधी और स्वामी सत्यदेव को दक्षिण में हिंदी प्रचार करने के लिए भेजा।   

उस सम्मेलन में ही यह निश्चय हुआ था कि दक्षिण में हिंदी प्रचार कार्य करने में जितना भी व्यय होगा उसको इंदौर के तत्कालीन महाराजा साहब और सर सेठ हुकुमचंद तथा वर्धा के सेठ जमनालाल देंगें। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने व्यवस्था  भार स्वीकार किया था। यह व्यवस्था इतनी सफल हुई कि आठ.नौ वर्ष में ही हिंदी की और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना करके सब भार अपने उपर ले लिया।

वर्ष 1933.36 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का चौबीसवां सम्मेलन इंदौर में ही बापू के ही सभापतित्य में हुआ। इस सम्मेलन में भी बापू ने हिंदी भाषा भाषियों से आग्रह किया कि वे अहिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी प्रचार की व्यवस्था करें। बापू की अपील पर कालपी की हिंदी विद्यार्थी सम्प्रदाय ने आसाम प्रांत में हिंदी प्रचार के लिए अपने दो प्रचारक भेजे थे।

इंदौर सम्मेलन की विशेष सफलता का सर्वथा श्रेय पूज्य बापू को ही है। बापू ने हिंदी भाषा भाषियों से अनुरोध किया कि वे सरल शब्दों का ही प्रयोग करके हिंदी को सर्वप्रिय बनाने का प्रयास करें। 

तुलसी और सूरए रामायण और गीता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए जो महत्वपूर्ण भाषण उन्होंने दिया थाए उसका कुछ अंश इस प्रकार था दृ भाषा की सुंदरता शब्दाड़म्बर में नहीं बल्कि उसके बोलने वालों की जिंदादिली और उनकी अनुभूति में है। तुलसी और सूर की भाषा को कौन कंगाल कह सकता है। तुलसी के रामचरित मानस में शब्दाड़म्बर नाम मात्र को नहीं हैए उन्होंने राम और सीता को सामने प्रत्यक्ष खड़ा कर दिया है। जिसे भक्ति के पवित्र जल में स्नान करना होता है। वह तुलसी और सूर के पास जाता है। वे कवि जीवित थे और इनकी जीवनी शक्ति हृदयों में उफन कर अन्य लोगों को परिप्लावित करने के लिए निकल पड़ती थी परंतु आज भाषा कंगाल है।

राष्ट्र भाषा हिंदी के कवियों को प्रोत्साहन देते हुए अपने भाषण में उन्होंने कहा था  हिंदी में रवीन्द्र नाथ जैसे कवि उत्पन्न करने की आवश्यकता है। मैं हिंदी साहित्यकारों की निंदा नहीं करना चाहता हूँए मैं तो आपके आगे अपना दुख ही रखना चाहता हूँए जिसे आप से छिपाना ठीक नहीं समझता। मेरा यह कहना चाहे टूटी.फूटी हिंदी ही में क्यों न हो पर यदि इसकी चोट किसी को लग जाय तो इसे मैं अच्छा ही समझूंगा। हिंदी में भी जब तक रवीन्द्रनाथ की तरह कोई व्यक्ति पैदा नहीं होताए जिसका हृदय गंगा उसी तरह बह निकलने, तब तक उसकी स्थिति पर संतोष नहीं किया जा सकता। जब तक हिंदी में उच्च साहित्य का निर्माण न होगा तब तक अवश्य ही कुछ लोग उसके राष्ट्रभाषा बनाए जाने पर हंसेंगे ही।

राष्ट्रपिता बापू ने जीवन भर हिंदी को उंचा उठाने, सर्वप्रिय बनाने और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए भरसक प्रयास किया और  खुले तौर से उसका समर्थन कर जनदृजन को मार्गदर्शन दिया।