उत्तर प्रदेश राज्य मुुख्यालय पर मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के चुनावी महाभारत के संग्राम में कोई अगर जीता तो वह है अहंकार। महाभारत की तरह उत्तर प्रदेश के पत्रकारों के चुनावों में पत्रकारों की सेना दो खेमों में विभाजित हो गई। ऐसा सम्भवतःपहली बार हो रहा है जब एक ही समिति के लिए दो- दो जगह चुनाव आयोग का गठन होकर दो जगहों पर चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में कोई गाॅंधी जैसा भी सामने नही आया जिसने विभाजन को रोकने के लिए कोई व्रत, सत्याग्रह किया हो। इन घटनाओं से तटस्थ पत्रकार को झटका लगा है उनको लगता है पत्रकार एकता को गहरी चोट लगी है।

अब से पहले उत्तर प्रदेश के पत्रकारों की एकता का दंभ भरने वाली मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति में दलीय निष्ठा से ऊपर रह कर विभिन्न ट्रेड युनियन के सदस्य व अन्य एक ही पैनल से चुनाव लडते तथा सभी वर्गो का समर्थन हांसिल करते थे, किन्तु इस बार 600 से अधिकार पत्रकारों की मतदाता सूची में सिर्फ एक ही खेमें का नेतृत्व करने की मानो होड मची थी। इतना भ्रम व असमंजस पत्रकारों मे था कि कई पत्रकारों तो दोनो ही खेमों में प्रत्याशी बन गएं। कईयों ने तो दोनो ही तरफ दोनों दिन वोट भी दिये। सर्वमान्य नेतृत्व के आकाक्षीं लोगों को तगडा झटका लगा है। 

महाभारत की तरह पत्रकारों के इन चुनावों में लगभग सभी किरदारों ने अपनी-अपनी भूमिका अदा की, द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह भी विवश थे, क्योकि वे हस्तिनापुर की तरह सिंहासन के प्रति वफादार,मौन थे। कृष्ण भी थ,े किन्तु कोई अर्जुन जैसा कायर योद्धा नही था जो महाभारत की तरह पत्रकारों इस चुनावीे रण में अपनों को सामने देखकर रण छोडना चाहता हो। कोई यह मानने को तैयार न था कि अपनों से हार में असल विजय है।

पत्रकारों के इस विभाजन से अगर किसी को सबसे ज्यादा नुकसान होगा तो वह है पत्रकारों का। यह चुनाव पत्रकारों के कल्याण कार्यक्रम के किसी एजेण्डे के बिना लडा गया। जानकारों का मानना है कि पत्रकारों के विभाजन से प्रदेश में पत्रकार उत्पीडन की घटनांए बढेंगी। 

पत्रकारों के विभाजन की पीडा भी देश के व प्रदेश विभाजन से कम कष्टकारी नही है। मालूम हो समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव अपने मुख्यमंत्रित्व काल में पत्रकारों के सभी संगठनों को एक मंच पर आने की अपील की थी किन्तु उसका भी असर न दिखां , वहीं उनकी पार्टी की ही सरकार में पत्रकारों का विभाजन समझ से परे है। इस बार चुनावों में 29 व 30 अगस्त को दो दिन मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के चुनाव सम्पन्न हुए। सरकार के सचिवालय प्रशासन ने पत्रकारों के एक गुट को सचिवालय एनेक्सी में चुनावों की तथा दूसरे गुट को विधान भवन प्रेस रूम में अनुमति देकर आग में घी का काम किया। 

इन चुनावों में पत्रकारों को विभाजित करने के सारे शिगुफे छोडे गए असली बनाम नकली पत्रकार, लिख्खाड बनाम अण्डे बेचने वाले पत्रकार, प्रिंट मीडिया बनाम इलेक्ट्रानिक्स मीडिया आदि आदि। इसी बीच किसी ने प्रस्ताव रखा कि जब दो-दो पत्रकारों की कमेंटियां बन ही रहीं है तो फिर इलक्ट्रानिक्स मीडिया, फोटोग्राॅफर, स्वतन्त्र पत्रकार व साइबर व सोशल मीडिया के लोग भी क्यों न अपनी – अपनी कमेटियंा बना लें। जिस तरह पत्रकार विभाजन की तरफ बढ रहें है ऐसे में आगे आने वाले दिनों में ऐसे दिन भी देखने को मिल सकते हैं कि अलग-अलग माध्यम के पत्रकार अपने गुट बना लें।

सामानंान्तर समिति बन जाने से अब रोज-रोज नए विवाद सामने न आयेगें इसकी क्या गारण्टी! समिति के दो-दो अध्यक्ष, चार-चार उपाध्यक्ष, दो-दो सचिव व कोषाध्यक्ष, संयुक्त सचिव के चार- चार,तथा कार्यकारिणी सदस्य के 8 व 11 पदाधिकारी अपनी अपनी कर सकते हैं। कहीं असली -नकली का खेल न शुरू हो जाए। एक दूसरे पर कीचड उडेलने से परहेज क्यों करेगें। एक-दूसरे पर जालसाजी के आरोप मढंे जा सकते हैं। एक दूसरे को नैतिकता की दुहाईं, यहां तक एक दूसरे की पोल-पट्टी खोलने का घिनौना खेल भी खेला जा सकता है। इसका अन्त कहां होगा कोई नही जानता। एक बात और किसी भी समिति का कार्यकाल क्या होगा यह तय किया जाना अभी भविष्य की गर्त में है….। यह भी शक्ति प्रर्दशन होगा कि आखिर सरकार किस समिति को मान्यता देती है। 

चुनावों पूर्व समझा जा रहा था कि चुनावों तक विवाद का अंत हो जाएगा, चुनावांे से पहले एकता के प्रयास किए गये किन्तु तब तक देर हो चुकी थी। रण के चुनावी मैदान में उन्मादी योद्धा बेताब थे उनको युद्धविराम का संदेश देना उल्टा पडा। आखिर सभी प्रयास असफल साबित हुए। जब कभी पत्रकार एका में बाधको का विश्लेषण होगा तो तब दोनो ही तरफ के चुनाव अधिकारियों की भूमिका पर चर्चा अवश्य होगी। 

जरूरत अब साक्षात् शिव की है जो समुद्र मन्थन की भांति पत्रकारों के चुनावों के मन्थन से निकले विष का पान कर लंे।

अरविन्द शुक्ला

संवाददाता स्पूतनिक

लखनऊ.226001

मों0-9935509633

लेखक की अपनी राय पर आधारित है यह लेख