-विनोद बंसल

बात पांच दिसंबर 2017 की है जब देश के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंड पीठ स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक चर्चित 77 वर्षों से लंबित मामले पर अपनी पहली सुनवाई हेतु उपस्थित थी. इससे पहले 11 अगस्त को न्यायालय ने सभी पक्षकारों को अपने अपने पक्ष के दस्तावेज समय पर जमा कराने हेतु आदेश दिया था. अपराह्न 2 बजे भारत के वरिष्ठ वकीलों, वादी-प्रतिवादियों तथा अपीलकर्ताओं इत्यादि से खचा-खच भरे न्याय कक्ष में जैसे ही प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में गठित पीठ ने सुनवाई प्रारम्भ की तथा श्री रामलला विराजमान की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के. पाराशरण, सी एस वैद्यनाथन तथा हरीश साल्वे ने अपना पक्ष रखना प्रारम्भ किया, दूसरे पक्ष ने व्यवधान पैदा करना प्रारम्भ कर दिया. पूर्व कानून मंत्री तथा काँग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे तथा राजीव धवन ने एक के बाद एक लगातार कार्यवाही में रोड़े अटकाए. जब न्यायाधीशों ने उन सभी से सुनवाई आगे बढ़ने देने को कहा तो वे सीधे तौर पर धमकी या धौंस देने पर उतारू हो गए और कहा कि यदि ये सुनवाई नहीं रुकी तो वे न्यायालय का बहिष्कार करेंगे.

मुस्लिम पक्षकारों की ओर से पैरवी करते हुए इन वकीलों ने कहा कि यह सुनवाई भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के इशारे पर हो रही है क्योंकि उसी के चुनाव घोषणा पत्र में इसका वर्णन भी है और सुब्रमण्यम स्वामी ने भी इस सम्बन्ध में प्रधान मंत्री को पत्र भी लिखा है. दूसरा वे बोले कि इस मामले की सुनवाई की अभी जल्दी ही क्या है? इसे जुलाई 2019 के आम चुनाव के बाद ही प्रारम्भ करनी चाहिए. तीसरा, कपिल सिब्बल ने कहा कि इस मामले में निर्णय से बाहर गम्भीर परिणाम होंगे तथा इससे देश के साम्प्रदायिक ताने बाने को नुकसान पहुंचेगा. चौथा, मुकदमे के महत्त्व को देखते हुए उच्चतम न्यायालय के पांच या सात सदस्यीय पीठ ही सुनवाई करे न कि वर्तमान तीन सदस्यीय पीठ इसकी सुनवाई करे. पांचवा, मुख्य न्यायाधीश की सेवा निवृति की तिथि आने वाली है अत: यह मामला उनके रहते पूरा नहीं सुना जा सकता. छटा बहाना यह था कि न्यायालय को दिए जाने वाले 90,000 पृष्ठों के दस्तावेजों के अनुवाद हेतु भी समय चाहिए. इस सब के ऊपर पूर्व कानून मंत्री व कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल ने तो भरे कोर्ट को धमकी तक दे डाली कि यदि हमारी बातें नहीं मानी गई तो हम कोर्ट का बहिष्कार करेंगे. इस प्रकार पहले ही दिन की बहस में राजनीति, धमकियां, असंसदीय भाषा-शैली, अतार्किक बहसबाजी से देश की सर्वोच्च न्यायालय को दो चार होना पड़ा.

मात्र दो ही दिन बाद सात दिसंबर को एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय को फिर इन तथाकथित वरिष्ठ वकीलों को आड़े हाथों लेते हुए सीधी चेतावनी देनी पड़ी. प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ को यहाँ तक कहना पड़ा कि “वकीलों को कानून का मंत्री कहा जाता है. उन्हें कोर्ट का अधिकारी भी कहा जाता है किन्तु दुर्भाग्य से वकीलों का एक छोटा सा समूह अपनी आवाज बढ़ा रहा है. जोर से चिल्लाने वालों को स्पष्ट तौर से समझ लेना चाहिए कि उन्हें सहन नहीं किया जाएगा. आवाज बढाने का अर्थ है कि या तो वे अपने पक्ष को रखने में अक्षम हैं या वे उसके लिए पूरी तरह से तैयार नहीं हैं”

वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे तथा राजीव धवन के रामजन्म भूमि अयोध्या मामले, दिल्ली सरकार की केंद्र के साथ खींच-तान मामले तथा एक और अन्य मामले का हवाला देते हुए प्रधान न्यायाधीश को गुस्से से कहना पड़ा कि “जब बेंच धवन की दलीलों से असहमती व्यक्त करती है तो वे आग बबूला(“atrocious”) हो जाते हैं. अयोध्या केस में तो उनका व्यवहार और भी अधिक नृशंस(“atrocious”) दिखा. बेंच ने कहा कि यह बार की परिपाटी नहीं है. यदि बार इनको ठीक नहीं करती तो हमें इनको ठीक करना पड़ेगा.”

मामला यहाँ तक ही रुकता तो भी चल जाता किन्तु, इन कथित वरिष्ठ वकीलों की ऐंठ इससे भी एक कदम और आगे बढ़ गई और तीन ही दिन बाद राजीव धवन ने कोर्ट में वकालत नहीं करने तक की धमकी भी दे डाली. देश के प्रधान न्यायाधीश को भेजे अपने पत्र में उन्होंने आरोप लगाया कि दिल्ली सरकार मामले में उन्हें कोर्ट में अपमानित होना पड़ा. धवन ने कहा कि “आप मेरे वरिष्ठ वकील के गाउन को वापस ले सकते हैं किन्तु फिर भी मैं उसे अपनी यादों व सेवाओं को याद रखने के लिए अपने साथ रखूँगा”. हालांकि, जब न्यायालय ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया तो वे बेशर्मी से न्यायालय में लौट आए.

न्यायालय में बार-बार दी जा रही धमकियों को बेंच पर निष्प्रभावी जान इस “शाउटिंग ब्रिगेड” ने अब राजनैतिक दाव-पेच लगा मुख्य न्यायाधीश पर ही महाभियोग लगाने के लिए विपक्षी राजनेताओं को एकत्र कर लिया और कुछ वरिष्ठ न्यायाधीशों को अपने ही मुख्य न्यायाधीश के विरूद्ध प्रेस के समक्ष उतार कर देश में एक नया किन्तु बेहद दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास रच डाला. महाभियोग का मामला जब संसद के समक्ष पहुंचा तथा राज्यसभा के सभापति के नाते श्री एम वेंकय्या नायडू ने इसे अस्वीकार कर दिया तो यह ब्रिगेड देश के उप-राष्ट्रपति पर भी प्रहार से बाज नहीं आया.

खैर ! सुनवाई के अनेक मोड़ों पर आए अटकावों, भटकावों, धौंस व धमकियों के सतत प्रहारों से बचते-बचाते तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा, जिनसे मामले के निस्तारण की पूरी अपेक्षा थी, ने 2 अक्तूबर 2018 को अपना कार्यकाल तो पूरा कर लिया किन्तु मसला वहीँ का वहीं रहा.

नए मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई ने जब कार्यभार सम्भाला और सुनवाई के लिए एक पीठ का गठन किया तो उसमें सामिल एक जज पर ही प्रश्न चिन्ह लगा कर दिया गया और यहाँ तक कि पीठ के जजों का धर्म देख बाबर बादियों ने प्रश्न किया कि इसमें कोई मुस्लिम जज क्यों नहीं है? अंततोगत्वा सुनवाई प्रारम्भ से पूर्व ही ‘साउटिंग ब्रिगेड’ की दोनों मांगों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मान लिया और एक न्यायाधीश को पीठ से हटना पड़ा. ऐसे ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त मध्यस्तों के नामों पर भी खूब टीका-टिपण्णी हुई.

सुनवाई जब पुन: प्रारम्भ हुई तो फिर सर्वोच्च न्यायालय की मर्यादाओं को बारम्बार तार-तार करने के सतत प्रयास जारी रहे. कभी इन ‘वरिष्ठ वकीलों’ ने मुख्य-न्यायाधीश के समक्ष न्यायालय द्वारा पक्षपात करने के सरे-आम आरोप लगाए तो कभी कार्यवाही में बाधक बन न्यायालय को कार्यवाही बीच में ही रोकने को मजबूर किया. कभी कहा कि यदि आप लगातार सुनवाई करेंगे तो यह ‘अमानवीय’ व ‘अव्यावहारिक’ होगा. 9 अगस्त को चौथी लगातार सुनवाई पर धवन के धमकी दी कि सुनवाई में जल्दवाजी की तो वे न्यायालय का सहयोग नहीं कर पाएंगे और फिर कहा कि मैं यह टोर्चर नहीं झेल सकता और मामले की पैरवी छोड़ दूँगा. कभी आरोप लगाया कि आप सिर्फ मुस्लिम पक्षकारों से ही प्रश्न क्यों पूछते हैं? कभी मामले को मध्यस्तता पैनल के भंवर में फंसाने के षड्यंत्र रचे गए तो कभी मुस्लिम पक्षकारों व उनके वकीलों को धमकियों का जिक्र किया गया. कभी हिन्दू धर्म ग्रंथों, आराध्य देवों व हिन्दू भावनाओं को कचोटने के कुत्सित प्रयास हुए. लगातार सुनवाई के 40 वें व अंतिम दिन तो श्री राजीव धवन ने अपनी रही सही कसर भी पूरी कर ली. श्री राम जन्मभूमि के पवित्र मानचित्र को मुख्य-न्यायाधीश के उपस्थिति में पूरी संविधान पीठ के सामने ही खचाखच भरे कोर्ट रूम में ही फाड़ कर न्यायालय की मर्यादा को फिर से तार-तार कर डाला. इस पर मुख्य न्यायाधीश को कहना पडा कि यदि आप की संतुष्टि अभी भी नहीं हुई हो तो इसके और टुकडे कर सकते हैं, हम यहाँ से उठ जाते है.

श्री राम जन्म भूमि मामले में चली सुनवाई ने अनेक उन राम-द्रोहियों तथा न्याय द्रोहियों को बे-नकाब कर दिया जो अभी तक व्यवस्था में सेंध लगा कर, धौंस जमाकर या अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर इसे चरमराने में ना जाने कब से सक्रिय थे. वास्तव में मुट्ठीभर वकील पता नहीं कब से अपनी पूर्व कानून मंत्री, राजनेता और वरिष्ठता की दबंगई न्याय व्यवस्था पर चला रहे थे. एक महत्वपूर्ण विचारणीय बात यह भी है कि आखिर उपरोक्त अशोभनीय न्याय-विरोधी व्यवहार सिर्फ मुस्लिम पक्षकारों का ही क्यों रहा? दो वर्ष चली इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई में किसी हिन्दू पक्षकार या उसके किसी भी वकील के व्यवहार में तो कोई न्यूनता दृष्टिगोचर नहीं हुई? अब यह सही समय है जब जोर जोर से चिल्लाकर धौंस दिखाने वाली इस शाउटिंग ब्रिगेड को बार या कोर्ट के द्वारा बाहर का रास्ता दिखाकर इनके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाए जिससे कोई भी हमारी न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता व पारदर्शिता में दखल देने का दुस्साहस ना कर सके. हमें गर्व है अपनी न्याय-व्यवस्था पर जो अनेक झंझावातों, प्रहारों व षडयंत्रों को नकारते हुए गत 2 वर्षों में गम्भीरता पूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ी. देश को पूरा भरोसा है कि श्री राम जन्मभूमि पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के लिए एक मिशाल होगा तथा जन्मभूमि पर भगवान श्री राम के राष्ट्र मंदिर का निर्माण शीघ्र प्रारम्भ होगा.

लेखक विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं