नई दिल्ली: केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कई अहम मुद्दों पर गुरुवार को अपने ब्लॉग के जरिए विपक्ष पर बड़ा हमला बोला. जेटली ने एक बार फिर नोटबंदी, जीएसटी, सीबीआई, आरबीआई, राफेल सौदे, सुप्रीम कोर्ट और जज लोया की मौत को लेकर उठ रहे सवालों पर जवाब दिया.

सीबीआई केस में उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम लिया लेकिन अन्य मुद्दों पर वह स्पष्ट तौर पर किसी का नाम लेने से बचते नजर आए.

लुटियंस दिल्ली में सरकारी मामलों की हलचलों से वाकिफ लोग जानते हैं कि हमारी जांच एजेंसी में कुछ लोग इतने प्रभावशाली हो गए थे कि वे खुद को ही कानून समझने लगे थे. एक संप्रभु सरकार की ज़िम्मेदारी बनती थी कि यह सुनिश्चित किया जाए हर जांच एजेंसी में एक सफाई अभियान चलाया जाए.

सरकार केवल यही चाहती थी कि जांच एजेंसी में ज़िम्मेदारी और गरिमा सुनिश्चित की जाए. धुर विरोधियों ने इस मामले में जो रवैया अपनाया, उस पर सवाल खड़े होते हैं. स्वायत्ता हमेशा एक अच्छा आइडिया रहा है. लेकिन यह समझना चाहिए कि जवाबदेही अगर न रह जाए तो कोई भी जांच एजेंसी भयंकर साबित हो सकती है.

जो खुद को जानकार मानते हैं, उन्हें खुद से एक सवाल ज़रूर करना चाहिए – 'विनीत नारायण केस में जो फैसला आया और जो संशोधन ​हुए, उसके बाद क्या केंद्रीय जांच एजेंसी के प्रमुखों की गुणवत्ता बेहतर हुई या बदतर?' अगर जवाब में दो नज़रिये सामने आते हैं तो बात बनेगी नहीं.
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अब विरोधियों ने एक और हमला इस बात पर बोला है कि प्रधानमंत्री की अगुवाई में बनी एक कमेटी ने सीबीआई प्रमुख का तबादला कर दिया. कमेटी के सामने एक सवाल था कि क्या सीबीआई प्रमुख का तबादला करने के लिए उनके पास कोई स्पष्ट कारण था? प्रथम दृष्ट्या, सीवीसी रिपोर्ट एक उचित और प्रासंगिक कारण के रूप में सामने थी. कमेटी का काम सीवीसी के नतीजों के खिलाफ सुनवाई करना नहीं था.

अगर इस रिपोर्ट को किसी किस्म की चुनौती दी जा सकती थी तो उसके लिए कोर्ट सही जगह थी. कमेटी ने सीवीसी रिपोर्ट की अनदेखी नहीं की. इसके बावजूद, प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने सुप्रीम कोर्ट में दर्ज याचिका में दावे के साथ कहा कि सीबीआई प्रमुख एक ईमानदार शख्स थे और उन्हें गलत प्रक्रिया के तहत बदनीयत कारणों से हटाया गया.

बेदखल प्रमुख की वकालत करते हुए वह भूल गए कि उनके दोषों या मासूमियत पर फैसला लेने वाली कमेटी का हिस्सा वह नहीं थे. उनकी असहमति उन्हें ही पक्षपाती साबित करती है. कुल मिलाकर एक ऐसा व्यक्ति एक सम्माननीय जज पर उंगली उठाता है, जो खुद सवालों के घेरे में रहा है.

बता दें कि सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच विवाद के बाद से सीबीआई सुर्खियों में बनी हुई है. विवाद सामने आने के बाद सरकार ने दोनों अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया था. और नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक नियुक्त किया था. आलोक वर्मा ने खुद को छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी. कोर्ट ने वर्मा को राहत देते हुए उन्हें सीबीआई चीफ बनाए रखने के पक्ष में फैसला दिया था. हालांकि इसके दो दिन बाद ही पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली सेलेक्शन कमेटी ने 2:1 वोटों से आलोक वर्मा का ट्रांसफर कर दिया था. वर्मा ने नये पद पर जॉइन करने में असमर्थता जाहिर करते हुए इस्तीफा दे दिया था. इस पूरे घटनाक्रम को लेकर विपक्ष खासकर कांग्रेस सरकार पर सरकारी संस्थाओं के काम में हस्तक्षेप का आरोप लगा रही है.