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तीन साल में कॉर्पोरटे सेक्टर का 2.4 लाख करोड़ रुपये का लोन ठंडे बस्ते में

नई दिल्ली: पिछले कई चुनावों से किसानों का लोन माफ करने का ट्रेंड चला हुआ है। 2008 लोकसभा चुनाव से लेकर 2018 तक केंद्र सरकार के अलावा कई राज्यों में किसानों के ऋण माफ किए जा चुके हैं। हालांकि, किसानों की कर्जमाफी के संबंध में देश पर आर्थिक बोझ बढ़ने की दलील हमेशा दी जाती रही है। लेकिन, दूसरी तरफ अगर इसकी तुलना कॉरपोरेट सेक्टर के बैड लोन से करें तो यह यह कुछ भी नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक कॉरपोरेट का ठंडे बस्ते में डाला गया 3 सालों को बैड लोन किसानों की 10 साल की ऋण माफी से भी ज्यादा है।

आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक बीते 10 सालों में अलग-अलग राज्यों ने किसानों के 2.21 लाख करोड़ रुपये के करीब कर्ज माफ किए हैं। वहीं, सिर्फ तीन साल में कॉरपोरेट सेक्टर के 2.4 लाख करोड़ रुपये के बैड लोन ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। अप्रैल 2018 में केंद्र सरकार ने राज्यसभा में बताया कि आरबीआई के डाटा के मुताबिक पब्लिक सेक्टर के बैंकों ने 2,41,911 करोड़ रुपये का कॉरपोरेट सेक्टर वाले बैड लोन खत्म कर दिए हैं। यह प्रक्रिया 2014-15 से लेकर 2017 के बीच पूरी की गई।

गौरतलब है कि कॉरपोरेट सेक्टर का बैड लोन ऐसा नहीं कि पहली बार ठंडे बस्ते में डाला गया हो। बल्कि, कानूनी प्रक्रिया के तहत बैंक कर्जदाता का लोन समय-दर-समय राइट-ऑफ करते हैं ताकि वे अपना बैलेंस शीट ठीक रख सकें। जबकि, दूसरी ओर किसानों के कर्ज माफी का हिस्सा एक साथ नहीं बल्कि 10 सालों के अंतराल में कई टुकडों में जारी किया गया। इसमें अलग-अलग राज्यों ने किसानों की स्थिति को देखते हुए लोन माफी का दायरा बढ़ाया या घटाया। 2008 में जहां राष्ट्रीय स्तर पर 52,260 करोड़ रुपये किसानों को माफ किए गए, वहीं राज्यों की बात करें तो 2014 में आंध्र के 24,000 और तेलंगाना के किसानों के 17000 करोड़ रुपये का ऋण माफ किया गया। इसके बाद 2016 में तमिलनाडु ने 6000, 2017 में उत्तर प्रदेश ने 36,000, महाराष्ट्र ने 34,000 और पंजाब ने 10,000 करोड़ रुपेये की ऋण माफी की। 2018 में कर्नाटक ने 34,000 और राजस्थान ने 8000 करोड़ रुपये के ऋण माफ कर दिए।

जानकार बताते हैं कि किसानों के संदर्भ में ऋण माफी कारगर उपाय नहीं है। इससे मुश्किल का अंत नहीं हो पा रहा है। बल्कि, मुसीबत जस की तस बनी है। किसानों की दिक्कत ये है कि वे खेती से पर्याप्त पैसा नहीं कमा पा रहे हैं। खेतों में लगने वाली पूंजी और श्रम के बदले मिलने वाला मुनाफा काफी कम है। ऐसे में अगर इस स्थिति को सही से ठीक करने की कोशिश की जाए तो हालात काफी हद तक सुधारे जा सकते हैं।

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