दलित एक्ट की चर्चा एक बार फिर जोरों पर है। सवाल ये है कि आजादी के 72 साल बाद भी हम इस एक्ट की निहायत जरूरत को महसूस कर रहे हैं, इसकी भी एक बड़ी वजह है। दलित एक्ट के नाम से जाना जाने वाला अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम-1989 की अनिवार्य आवश्यकता क्यों है ? इसको समझने के लिए वर्ष-1928 में मद्रास प्रेसिडेंसी की एक घटना का जिक्र करना जरूरी है, जिसका डा. आंबेडकर ने खुद उल्लेख किया है।

वर्ष-1928 में दलितवर्ग तथा आदिम जातियों की शिकायत की जांच करने के लिए बंबई सरकार द्वारा नियुक्त की गई कमेटी ने मद्रास प्रेसीडेंसी के तिन्नेवल्ली जिले के एक दलित समूह का जिक्र किया है, जो दृष्टि वर्जित लोगों का एक ऐसा वर्ग था, जिसे पुराणावन्ना कहते हैं। उन्हें दिन में बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। क्योंकि कहा जाता था कि उनपर नजर पड़ने से ही आदमी भ्रष्ट हो जाता था। ये अभागे लोग निशाचरों की तरह जीवन जीने को मजबूर थे। ये अंधेरे में ही अपनी मांद से बाहर निकलते थे और फौरन पौं फटने के पहले ही लकड़बग्घे-विज्जू की भांति अपने-2 अपने घरों की ओर लौट पड़ते थे। कोई रोजगार न होने के कारण इनके पास कुत्तों या अन्य जानवरों का मांस खाने के अलावा इनके पास कोई विकल्प नहीं था। ये मरे हुए जानवरों का मांस खाने के लिए भी मजबूर होते थे।

हिन्दी बेल्ट के उत्तर प्रदेश और बिहार में मुशहर जातियों के लोग 60 और 70 के दशक तक शादी विवाह या तेरहवीं के भोजों में जूठी पत्तल पर अवशेष जूठन को पाने के लिए कुत्तों के साथ दौड़ लगाते देखे जाते थे या कहा जा सकता है कि इन्हें इसके लिए मजबूर किया जाता था कि ये कुत्तों की तरह भोजन के लिए दौड़ लगाए और कुत्तों के साथ ही भोजन करें। यह हाशिए के समाज के साथ हो रहे भेदभाव का एक नमूना था और इसे देश के कई हिस्सों में भी देखा जा सकता था।

सामाजिक भेदभाव के कारण उपजी दलित वर्गों की बदहाली, बेचारगी, उत्पीड़न, शोषण और अपमान से इन्हें निजात दिलाने के लिए देश की आजादी के बाद नागरिक संरक्षण अधिनियम-1955, नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम-1977, अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम-1989 तथा अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनयम-1995 संसद द्वारा बनाए गए।

जातीय आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न रोकने तथा सामाजिक न्याय दिलाने के लिए इस एक्ट को दलित एक्ट के नाम से भी जाना जाता है। धीरे-धीरे यह एक्ट इस देश के शोषित वर्ग की लाइफ लाइन बन गया। इस एक्ट को हाशिए के समाज के लिए जीवन रेखा इस लिए कहा गया, क्योंकि इसके बिना इस समाज के साथ सामाजिक न्याय की कल्पना या इनके जीवन जीने के अधिकार की हम बात नहीं कर सकते हैं। यह आज इनकी लाइफ लाइन अपने आप बन गया और सरकरों ने भी मान लिया कि यह इनके संरक्षण और जीवन यापन के लिए निहायत जरुरी है।

इस अधिनियम के खिलाफ समय-समय पर आवाजें भी उठती रही हैं और इसके दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं, किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब पैदा हुई, जब दलितों की नेता कही जाने वाली मायावती ने अपने मुख्यमंत्री काल में इस अधिनियम को निष्प्रभावी कर दिया। वर्ष-2007 में जारी आदेश में कहा गया कि इस अधिनियम के तहत एफआईआर तब तक नहीं दर्ज की जाएगी, जब तक कि शिकायत की जांच नहीं हो जाती है। इतना ही नहीं, यह भी आदेश दिए गए दलित महिला के साथ बलात्कार की स्थिति में भी एफआईआर दर्ज करने के पूर्व मेडिकल रिपोर्ट में पुष्टि जरूरी है। इस आदेश का दलितों की ओर से व्यापक विरोध के फलस्वरुप मायावती को इसे वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब बिना जांच के अनुसूचित जाति एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज न करने तथा इस एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने के आदेश हुए, तो दलितों की ओर से इसका भी कड़ा विरोध हुआ। यद्यपि इस विरोध में राजनैतिक दलों ने भी अपनी रोटियां सेकीं, किंतु इसमें दो राय नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने दलितों को अंदर तक हिलाकर रख दिया, क्योंकि सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न से मुक्ति का यह सुरक्षा कवच उनसे छींन लिया गया था।

उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मोदी सरकार में इस अधिनियम को वर्ष-2015 में इसे संशोधित कर और ज्यादा धारदार बना दिया था। इसमें कई अन्य अपराधों को भी शामिल करते हुए धारा 4 (2) के तहत लोक सेवकों के कर्तव्य को परिभाषित कर जानबूझकर की गई उपेक्षा को दंडनीय अपराध बनाया गया है।

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए इस एक्ट को पुनर्वहाल करने के लिए संसद द्वारा इसे पुनः पास कर कानून बनाने के निर्णय ने दलितों को बड़ी राहत दी है और दलितों के पक्ष में मोदी सरकार का यह निर्णय स्वतंत्रता दिवस के पूर्व दलितों को दिया गया अनुपम तोहफा है। इसका देश के दलितों ने स्वागत किया है।

डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल

दलित चिंतक एवं अध्यक्ष अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम

मो. 9450504094