लोकल से लेकर अब राज्य मुख्यालय लखनऊ की पत्रकारिता के सफ़र में पत्रकारिता के अपने पच्चीस साल के जीवन में कभी ऐसी पत्रकारिता नही देखी जिसमें सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर पेश किया जाता हो देश की अमन पसंद जनता को हिन्दु-मुसलमान में बाँटने का षड्यंत्र रचा जाता हो, बेरोज़गारी महँगाई बढ़ते अपराध व महिलाओं की लूटती अस्मत को पीछे धकेला जाता हो और ऐसी पत्रकारिता के कार्य को अंजाम देने वाला अपनी इस बेशर्मी पर ख़ुद छाती पीटता हो| लानत हो ऐसी पत्रकारिता और उन पर जो इस पवित्र कार्य को गंदा करने का काम कर रहे हैं …हमने कभी इसका सर झुकने नही दिया चाहे इसके लिए क़ुर्बानी कुछ भी चुकानी पड़ी पर उसके उसूलों पर क़ायम रहे, दुश्वारियों का सामना भी किया और कर भी रहा हूँ परन्तु ज़मीर नही बेचा न अपना और न ही पत्रकारिता का, दोस्तों ने प्रेरित भी किया पर मन स्वीकार नही करता था न करता है| ग़लत ग़लत ही होता है परन्तु उसका परिणाम आने में देर लगती है इस लिए यह गंदा खेल फलफूल रहा है| आज पत्रकारिता और सियासत दोनों पूँजीपतियों के घरों की शोभा बन गई है इसी लिए सियासत भी दम तोड़ रही है और पत्रकारिता भी नि:स्वार्थता दोनों जगह से खतम हो गई है दोनों ही जगह पूँजीपतियों ने हथिया ली है| क़लम चाहे कितनी भी दमदार हो पर पूछा जाता है कि बिजनेस कितना हुआ और कैसे आएगा| इसी चक्कर में दलाली और चाटुकारिता कर रहे है जिनको लाइव टीवी पर यह अपशब्द सुनने को भी मिल रहे ऐसे लोगों को ही प्रबंधतंत्र आगे करता ताकि वह उसका उल्लू सीधा कर सके| बड़ा खेल होता| इन सबके बीच मालिकान के भी आँखों मिर्ची डालने काम होता| यह बात सच है कि कुछ दलाल व चाटुकारों ने इस कार्य को नापाक करने का प्रयास कर रहे है हमें ऐसे लोगों से बचना और बचाना होगा पत्रकारिता को, नही तो सब खतम हो जाएगा| एक और ख़राबी आई है इस दलाली और चाटुकारिता से, जो बिज़नेस ख़ुद ब ख़ुद आता था वह भी अब बिना कमीशन के नही आता क्योंकि अधिकारियों को मालूम है कि जो अब प्रतिनिधि के तौर पर आ रहे हैं उसको कुछ आता जाता तो है नही इस लिये यह कुछ नही कर सकता और यह सही भी है| अधिकारी मालामाल हो रहे है और पत्रकारिता शर्मिन्दा हो रही है। यही हाल सियासत में हो गया है कि बताओ पार्टी को चंदा कितना दोगे या कितना दिलवाओगे, यहाँ बात शुरू और ख़त्म होती है| छोटे संस्थान हो या बड़े दोनों ही संस्थानों में बहुत बुरा हाल है, सब कुछ पैसा है और कुछ नही रवीश , मिलिंद ,पुण्य प्रसून, विनोद दुआ या अभिसार आदि पत्रकारिता के वो नाम जिनके नाम से आज सच जाना जाता है पर इन्हें भी सरकार के ताले में क़ैद करने की भरपूर कोशिश की जा रही है पर इनका ज़मीर इनकी बेबाक़ निर्भीक निडर पत्रकारिता के अलावा कुछ और करने की इजाज़त नही देता है इस लिये इनके साथ ऐसा हो रहा है जिससे यह डर नही रहे बल्कि इनके इरादे और मज़बूत होकर सामने आ रहे हैं और होना भी यह चाहिए। अपने कुछ दोस्त आईएएस और आईपीएस भी है जो मुझे पत्रकारिता के साथ-साथ मेरे किरदार से जानते हैं | ऐसा नही है कि मुझे अनैतिक काम करने के मौक़े नही मिले या नही मिलते| मिलते हैं पर दिल है कि मानता नही| अब आप सोच रहे होगे कि यह सारी बात बताने कि क्या ज़रूरत थी| जब सीनियर साथियों के साथ अन्याय हो रहा हो सच को सच न कहने के लिए मुँह पर सरकारी ताले लगाए जा रहे हों | तब यह दर्द अपने आप ही निकल आया मैं ख़ुद यह बात सोच रहा हूँ कि आज यह अल्फ़ाज़ क्यों निकल रहे है मैं अपने आपको रोक नही पाया और यूँ ही क़लम चल पड़ी आज बस इतना ही बाक़ी और किसी दिन इस बेशर्म पत्रकारिता की बात करेंगे।

पत्रकार तौसीफ़ क़ुरैशी