मो0 आरिफ़ नगरामी

रमजानुल मुबारक का महीना अपने आखिरी मराहिल में पहुंच चुका है। रोजादार इसे अलविदा कहने की तैयारियों के साथ ही ईद की तैयारियों में भी मसरूफ हैं। उन सबके दरमियान बाजारों की रौनक अपने शबाब पर है। इस रौनक में खाने के होटलों पर अफतार से लेकर सहरी तक मौजूद हुजूम चार चांद लगाता हुआ नजर आता है। वैसे तो रोजादारों की भीड हर छोटे बडे होटलों में दिखाई दे रही है लेकिन लखनवी जायकों के लए दुनिया भर में मशहूर टुन्डे कवाबी रहीम के कुल्चे नहारी इदरीस की बिरयानी और अल्लाह बेली वगैरह होटलों में तिल रखने की जगह नहीं रहती। इस भीड में शहर के अलावा आप पास के इजला के भी लोग शामिल होते हैं जो यहा ईद की खरीदारी के साथ साथ लखनऊ के जायकों का लुत्फ लेना नहीं भूलते।

वैसे भी शाहान अवध के जमाने से मुख्तलिफ अकसाम के खाने और पकवान लखनऊ की शान रहे हैं। जबरदस्त लज्जत के साथ नजाकत और नफासत यहां के खानों की पहचान रही हैं चाहे वह रूमाली रोटी हो या मटन कोरमा, बिरयानी हो या कवाब और शीरमाल हर चीज अपने अपप में अपनी पहचान रखती है। इसके पीछे नवाबीन अवध के शौक से ज्यादा उनके जरिये हुनर मंदों की कदरदानी फन्कारों की हौसला अफजाई और उनका फरोग सबसे बडी मानी जाती है। इसी का नतीजा था कि खाना पकाने वाले बावर्चियों ने अपने खानों में तरह तरह की जिददतें पैदा कीं और एक से बढकर पूरी दुनिया में फैली। आज लखनऊ की शीरमाल कवाब, पराठे, मटन कोरमा, बिरयानी, तन्दूरी नान, जरदा, खीर और रूमाली रोटी का पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है।
यही नहीं शाहान अवध के बावर्चियों के हुनर का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब गदर के दौरान एक बावर्ची अंग्रेजों के जरिये हिरासत में लिया गया तो उससे अंग्रेजों ने एक ही फरमाइश की कि हमें भी वही मसूर की दाल पका कर खिलाव जो तुम नवाब साहब को खिलाते थे। जिसपर उसने बरजस्ता ये जवाब दे मना कर दिया कि ये मुंह और मसूर की दाल उसका ये जुमला आज तक मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मसूर की दाल की खासियत क्या थी ये तो नहीं मालूम लेकिन बताते हैं कि एक बार इस बावर्ची ने किसी बात पर नाराज हो कर दाल से भरी पूरी हांडी एक सूखे हुए दरख्त के जड में डाल दी थी और कुछ वक्त के बाद वह दरख्त फिर से हरा भरा हो गया था।

लखनऊ के बावर्चियों के हुनर का ये सिलसिला वहीं खत्म नहीं हुआ बल्कि सीन ब सीना आज की नसल तक भी पहुंचा है ये और बात है कि अब वह पहले वाली जिददत नहीं रही। ज्यादा दूर न जायें तकरीबन 1980 से 85 के दरमियान अकबरी गेट पर मो यूसुफ की एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी जिसमें वह कवाब बेचते थे कवाब भी इतने लजीज कि हमेशा वक्त से पहले ही खत्म हो जाते। अखलाक और किरदार ऐसा कि दोस्तों के लिए कुछ कवाब पहले ही उठाकर अलग रख लेते। एक मरतबा कुछ ऐसा हुआ कि सब कवाब खत्म हो गये दोस्तों का झुण्ड जब दुकान पर पहुंचा तो देखा कि ये कुछ पका रहे हैं दोस्तों ने पूछा उस वक्त ये क्या हो रहा बोले तुम लोगों के खाने का इंतेजाम। दोस्तों ने पूछा कि आखिर पका कया रहे हैं। यूसुफ साहब ने जवाब दिया कि कददू की तरकारी बे तकल्लुफी का आलम ये कि स्भी ने मुंह बनाकर कहा अमां पकाना था तो मुर्ग पकाते। यूसुफ साहब कुछ नहीं बोले सिर्फ मुस्कराते रहे और जब वह कददू की तरकारी खायी गयी तो मुस्कराने की बारी दोस्तों की थी। यूसुफ साहब के उन दोस्तों में से कुछ लोग माशा अल्लाह आज भी हयात हैं जो बकायदा इस बात की तस्दीक रकते हैं कि उस तरकारी के आगे मुर्ग की हैसियत नहीं। इसी दौरान उन्हें बेहद मुष्किल हालात का सामना भी करना पडा दोस्तों के मशवरा पर वह मुम्बई चले गये जहां उन्होंने अल्लाह बेली के नाम से होटल खोला और जल्द ही मुम्बई वालों की जुबान पर लखनऊ का जायका चढाने में कामयाब भी हो गये। उन्होंने अपने खानों के मुनफरिद जायके के साथ साथ अपनी मिलनसारी और अपने किरदार से जल्द ही मुम्बई में ऐ अलग पहचान कायम कर ली। यहां भी उन्हें कुछ मुश्किल हालात का सामना करना पडा लेकिन अपने पुराने दोस्तों की मदद से उन्होंने न सिर्फ उसका सामना किया बल्कि कामयाबी की राह में मजीद आगे बढ गये। दो साल कब्ल उनका लखनऊ में ही इंतेकाल हो गया। उनके वरसा ने गुजिश्ता साल अल्लाह बेली होटल की एक ब्रांच लखनऊ में भी खोली है।

जहां तक खानों में जिद्दत का सवाल है तो उस कडी में हाजी अब्दुर्रहीम का नाम आज भी लिया जाता है जिन्होंने गिलाफ वाले कुल्चे की ईजाद कीं आज पूरे लखनऊ में नहारी के साथ इस्तेमाल होने वाला कुल्चा ही गिलाफ वाला कुल्चा कहलाता है। ये दो परतों पर मुश्तमिल होता है। पहली परत में खमीर के साथ गुंधे हुए मैदे का बेस तैयार करके उस पर दूध घी औ मैदे की दूसरी परत चढा कर तंदूर में धीमी आंच पर पकाया जाता हैं इस गिलाफ वाले कुल्चे की खासियत ये होती है कि ये अंदर से मुलायम और उपर से खस्ता और कुरकुरा होता हैं उसके साथ इस्तेमाल होने वाली नहारी भी कुछ अलग अंदाज से पकाई जाती हैं तकरीबन 70 से 80 मसालों पर मुश्तमिल हाजी अब्दुर्रहीम का तेयार करदा स्पेशल नहारी मसाला ही उन्हें दूसरों से अलग करता है। शाम को खाई जाने वाली नहारी सुबह से पकना शुरू होती है। चैक वाके तहसीन अली खां की मस्जिद सामने तकरीबन 100 पहले हाजी अब्दुर्रहीम के जरिये खोली जाने वाली ये दुकान आज उनकी तीसरी नस्ल चला रही है जिसमें उने पोते मंजूर हमद मो उसामा मो बिलाल मो शुऐब और मो जैद शामिल हैं। उन लोंगों ने लखनऊ की शान कही जाने वाली उस दुकान शीरमाल तंदूरी चिकन और जाफरानी खीर भी मिलती है।

आज भी जब लखनऊ के जायकांे की बात होती है तो टुन्डे कवाबी के साथ ही हाजी अब्दुर्रहीम का नाम भी लिया जाता है। लोगों का कहना है कि उन दोनों के साथ बाकी मदरसा फरकानिया मौलाना ऐनुल कुजात साहब की दुआयें है। बताते हैं उन दोनों ने उनकी बहुत खिदमत अंजम दी थी इसी का नतीजा है कि उनके जांनशीन की बहुत सी लापरवाही और बेतवज्जुही के बावजूद ये दोनों मुसलसल आज भी कायाबियों की राह पर गामजन हैं। ये वजह थी कि हाजी अब्दुर्रहीम साहब जब तक हयात रहे मदरसा फरकानिया तलबा के लिए हमेशा खुसूसी रिययात करते रहे। पहले जैसा कि आम रवाज था कि दुकानों पर गाहकों से सिफ्र रोटी के पैसे लिये जाते थो सालन वगेरा उसके साथ मुफत होता था हाजी साहब भी मदरसा के बच्चों से सिर्फ कुल्चा के पैसे लेते थे बाद में जब ये रवाज खत्म हो गया तब भी वह उन बच्चों के साथ यही उसूल इख्तेयार यिे रहे। अपनी जिन्दगी तक उनकी हमेशा यही कोशिश रही कि मदरसा का कोई भी बच्चा भूखा न रहे। उनके खाने के लिए उनके होटल के दरवाज ेहमेशा खुले रहे चाहे बच्चों के पास हों या न हों।

अकबरीगेट पर रहीम होटल के नाम से एक और होटल है जो उनके बेटे हाजी जुबैर और पोते हाजी जहीर चला रहे हैं पहले े पुरानी दुकान में ही बैठते थे बाद में उन्होंन अपनी अलग दुकान कर ली। रहीम होटल के पास ही मुबीन होटल भी काफी पुराना है। उस होटल के बानी मो मुबीन के अजदाद भोपाल में नवाबीन के यहां रूकाबदारी करते थ्रो। 1857 में ये होटल लखनऊ मुनतकिल हो गया। नख्खास तिराहे पर खुलने वाला ये होटल 1965 में अकबरी गेट पर मुंतकिल हो गया। आज ये होटल सातवें पुश्त जिसमें शुऐब यहिया जकरिया वगैरह शामिल हैं चला रही हैं।

जब बात लखनऊ की बिरयानी की आती है तो सबसे पहला नाम इदरीस का आता है। पाटानाला चैकी के सामने वाके इस दुकान के सामने गाडियों की लम्बी कतारें कीाी भ्ज्ञी देखी जा सकती हैं यहां बिरयानी बडी डेगों में नहीं बल्कि छोटी देगचियों में दम की जाती है ताकि लोगों को हमेशा बिल्कुल ताजा बिरयानी पेश की जा सके। दम बिरयानी की जो भी खुसूसियात होती हैं वह सब यहां की बिरयानी में पाई जाती हैं। लखनऊ का ये वाहिद होटल है जिसमें बैठने तक का माकूल इंतेजाम न होने के बावजूद टाइम टेबल के मुताबिक चलता हैं यहां फजिर के बाद से 12 बजे तक कुल्चा नहारी शाम चार बजे तक रूमाली रोटी और मटन कोरमा और उसके बाद रात 11 बजे तक बिरयानी दस्तियाब होती है। हांलाकि रमजान के दौरान ेे टाइम टेबल काफी हद तक तब्दील हो जाता हैं दूर दूर से आने वाले ज्याद तर लोग यहां खानों की पैकिंग ही राते हैं लेकिन जायकों के शौकीन ये भूल कभी नहीं करते भले ही उन्हं अपनी गाडियों के अंदर ही बैठ कर यहां की खानों का लुत्फ लेना पडे। और एहसान के साथ जिस ने माहे रमज़ान के रोज़े रखे अल्लाह ताला उसके तमाम गुनाहों को माफ़ फरमाता है।’’ रमज़ानुल मुबारक रहमत का अज़ीम महीना में तौबा और इस्तग़फ़ार की कसरत करें दुनिया और आखि़रत की आफ़ात व मुसीबत से निजात मिल जाएगी। अल्लाह ताला फ़रमाता है! तुम्हें जो कुछ मुसीबते पहुंची है वह तुम्हारे अपने हाथो का बदला है। और वह तो बहुत सी बातो को दर गुज़र फ़रमाता देता है। अल्लाह ताला का इरशाद है। ऐ ईमान वालो अल्लाह के सामने सच्ची तौबा करो

कुरआन करीम की कसरत से तिलावत करें चूकि कुरआन पाक रमज़ानुलमुबारक में नाज़िल हुआ है। अल्लाह ताला के रसूल सल0 रमज़ानुल मुबारक में कुरआन पाक का दौर फ़रमाते है। सदकात व ख़ैरात की कसरत करें सदक़ात का सवाब सत्तर गुना ज्यादा बढ़ा दिया जाता है। इस मुबारक माहे रमज़ान में नमाज़े बजमाअत पाबंदी से अदा करें एक नमजा से दूसरी नमाज़ एक जुमा से दूसरा जुमा एक रमज़ान से दूसरे रमजानुलमुबारक तक के गुनाहों को अल्लाह ताला माफ़ फ़रमाता है, साथ ही नमाज़ तहज्जुद का एहतेमाम करें और दुआओं का भी एहतेमाम करें क्योकि रोज़ा दार की दुआ इफ़्तार से क़ब्ल रद नही होती। अपने भाइयों को नेकी का हुक्म करना। बुराई से रोकना। दावत व तबलीग़ का काम ज्यादा करना। मालिके हक़ीक़ी की इबादत के लिये इंसान में तक़वा पैदा हो तो खु़दा की इबादत व अताअत और फ़रमाबरदारी की लिज्जत महसूस होती है। तक़वा यह है कि इनसान हराम चीज़ो से इजतनाब करे। रोज़ा एक ऐसी इबादत है कि कोई भी दूसरी इबादत इस का बदल नही बन सकता

हज़रत आयशा सिद्दीक़ रज़ी अल्लाह अनहा से रवायत है कि रसूल अल्लाह सल0 शाबान की महीने का इतना एहतेमाम न फ़रमाते फिर जब रमज़ानुलमुबारक का चांद नज़र आता तो रोज़े रखने लगते। रमज़ानुल मुबारक नेकियों का महीना हे इस माहे मुबारक में अपने मुलाज़मीन के साथ नेहायत नरमी और शफ़क़त के साथ पेश आना चाहिए अब अपने नफ़्स पर कन्ट्रोल करना हमारा काम है जमीआ अहले इस्लाम यह अज़्म कर लें तो इस मुक़द्दस महीने का साया हम हम पर ऐसा कि हमेशा के लिए दुनिया की मुसीबते और आखि़रत के अज़ाब से निजात पालेंगे अल्लाह ताला हम सब मुसलमानो को अमल सालेह की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएं। आमीन!