‘ख़ुमार’ का सुरूर ऐसा था कि उतरने का नाम ही नहीं लेता था। शायद इसीलिए किसी ने कहा कि ‘खुमार, आपका तखल्लुस गलत है। सुरूर होना चाहिए था।’ क्योंकि ‘ख़ुमार’ के उतरने की सूरत होती है जबकि ‘सुरूर’ के चढ़ने की। मुशायरे के दौरान ख़ुमार बाराबंकवी एक बार कलाम शुरू करने के बाद लोगों के इसरार पर घंटों-घंटों शेर पढ़ने पड़ते थे। वे जिस भी महफ़िल में होते, वह महफ़िल लूट लेते।

बाराबंकी में जन्में ख़ुमार बाराबंकवी जिनका असल नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था, उनके करीबी उन्‍हें प्यार से ‘दुल्लन’ कह कर भी बुलाते थे। उनकी आज यौमे पैदाइश है। ख़ुमार साहब की ख़ालिस शायरी की बात करें तो वे यहां तरक्कीपसंद शायरों से अलग खड़े नज़र आते थे। वे साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी या फिर अली सरदार ज़ाफरी की तरह नहीं लिखते थे। यानी उनके शेर कड़े नहीं होते थे। और न ही वे मज़ाज की तरह ग़म और इश्क़ में भी डूबे होते थे।

ख़ुमार साहब, जिगर मुरादाबादी या हसरत जयपुरी के जैसे नाज़ुक शेर लिखते थे। उनके अशआरों में कहने वाले का शर्मीलापन या भोलापन झलकता है और ग़ज़ल अपनी मासूमियत के साथ उभरती है। यही ख़ुमार बाराबंकवी की ख़ासियत थी। वह छोटी बहर के बड़े शायर थे। मिसाल के तौर पर उनकी एक ग़ज़ल का शेर है, ‘न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है, दिया जल रहा है हवा चल रही है’। मानों ख़ुमार कह रहे हैं कि, ‘दुनिया, मैं दीये की मानिंद जलता रहूंगा। माने, इश्क़ करता रहूंगा। मुझे बुझाने की तेरी कोशिशें अपनी जगह सही।’ यहां शायर किसी से लड़ नहीं रहा है, बस जो उसका फ़र्ज़ है, उसे पूरा कर रहा है।

उर्दू अदब में नज्म को नई दिशा देने और हिंदी साहित्य में ग़ज़ल की इबारत लिखने में ख़ुमार साहब का योगदान उल्लेखनीय है। उनकी शायरी भी उनकी शख्सियत की तरह किसी को भी बड़ी ही सहजता से अपनी और आकर्षित कर लेती है। ख़ुमार साहब आने वाली पीढ़ी में भी खूब पढ़े जाएंगे।