मोहम्मद आरिफ नगरामी

हज की इबादत जिन अज़ीम अम्बियाई यादों से वाबस्ता है उनमें एक अहम यादगार एक ख़ातून, हज़रत हाजरा से मुताल्लिक़ है। एक मां का अपने बच्चे की प्यास बुझाने की सई को अल्लाह तआला ने इतना पसन्द फ़रमाया कि हज के लिये ज़रूरी क़रार दे दिया गया। आज हर हाजी काबातुल्लाह का तवाफ़ करने के बाद सफ़ा व मरवह की पहाड़ी पर आता है और हज़रत हाजरा की तरह सफ़ा व मरवह के दरमियान सात चक्कर लगाता है। एक ख़ातून से वाबस्ता यह यादगार हज की इबादत का एक लाज़मी हिस्सा है।

हज औरत पर अलाहिदा फ़र्ज़ होता है और मद पर अलाहिदा होता है और दोनों पर हर एक के अपने हालात के मुताबिक़ यह हुक्म है। यूं तो दोनों पर ज़िन्दगी में एक बार हज फ़र्ज़ होता है और यह फ़र्ज़ियत उस वक़्त आयद होती है जब हज करने की इस्तेताअत मौजूद हो। लेकिन इस्तेताअत का मफ़हूम मर्द और औरत दोनों के हालात की रिआयत की वजह से मर्द के लिये अलाहिदा है और औरत के लिये अलाहिदा। मर्द पर हज उस वक़्त फ़र्ज़ होता है जब घर के रोज़मर्रा के अख़राजात के अलावा मक्का मुकर्रमा आमदोरफ़्त, वहां दौराने हज रहने-सहने और खाने-पीने के बक़द्र रक़म मौजूद हो। औरत पर हज उस वक़्त फ़र्ज़ होता है जब उसके पास मज़कूरा रक़म मौजूद होने के अलावा मज़ीद दो बातें पाई जायें अव्वल यह कि उसके साथ कोई महरम मौजूद हो और दूसरे यह कि वह इद्दत न गुज़ार रही हो। महरम से मुराद शौहर, बाप, भाई, बेटा, चचा, ख़ुसर, दामाद वग़ैरह यानि वह अफ़राद जिनसे औरत का निकाह हराम हो साथ ही यह भी ज़रूरी है कि वह महरम क़ाबिले भरोसा और नेक हो। जिसके साथ औरत की इस्मत व इज़्ज़त महफूज़ रहे।

औरत के लिये बेहतर यही है कि वह अपने शौहर, बेटे या भाई के साथ सफ़रे हज पर रवाना हो। यहां यह बात भी वाज़ेह रहे कि औरत के लिये महरम की शर्त दरअस्ल सफ़र की हालत के लिये है क्योंकि रसूल स.अ. का हुक्म है कि (औरत तीन दिन का सफ़र बग़ैर महरम के न करे) इसी तरह हुक्म है कि इद्दत के दिनों में औरत हज नहीं करेगी क्योंकि जिस औरत के शौहर का इंतिक़ाल हो गया हो वह चार माह दस दिन और जिस औरत को तलाक़ होती हो वह बक़द्र तीन हैज़ घर के अन्दर रहेगी। इस हालत में सफ़र करने की इजाज़त नहीं है।

औरत का एहराम मर्दों से मुख़्तलिफ़ है मर्द पूरे हज के दौरान हालत एहराम में कोई सिला हुआ कपड़ा नहीं पहन सकता है और सर को ढांप सकता है औरत का एहराम सिर्फ़ उसके चेहरे से मुताल्लिक़ है क्योंकि सरकारे दोजहां हज़रत मोहम्मद स.अ. ने फ़रमाया है कि ‘‘औरत का एहराम सिर्फ़ उसके चेहरे में है’’ लिहाज़ा ख़वातीन अपने तमाम सिले हुए कपड़े पहन सकती है और उसके सर भी ढके रहेंगे। एहराम के दौरान औरत को ख़ुश्बू लगाने की मुमानेअत है और न ही ख़ुश्बू वाली कोई चीज़ इस्तेमाल कर सकती है।

तवाफ़ ख़ानएकाबा के गिर्द सात फेरों में मुकम्मल किया जाता है जिसमें शुरू के तीन फेरों में मर्दों को रमल करने यानि तेज़-तेज़ चलने का हुक्म है जबकि औरत की निस्वानी शख़्सियत का लिहाज़ करते हुए शरियत ने उसे दौराने तवाफ़ रमल करने का हुक्म नहीं दिया है। इसी तरह तवाफ़े काबा के बाद सफ़ा व मरवह के दरमियान सई करते हुए कुछ दूर तक अजनबी मर्दों के साथ तेज़ दौड़ने के हुक्म से भी मुस्तसना रखा गया है लिहाज़ा यहां औरत अपनी तमाम रफ़्तार से चलकर सई पूरी करेगी।

दस ज़िलहिज्जा को आमाले हज के दौरान ख़ानए काबा का तवाफ़ करने का एक रूक्न है यह तवाफ़ छूट जाये तो हज ही नहीं होता है। तवाफ़े काबा के लिये पाक होना ज़रूरी है नापाकी की हालत में तवाफ़ मोतबर नहीं है।

औरत के लिये एक परेशानी उस वक़्त पेश आती है जब हज के दौरान उन्हें हैज़ आ जाता है। हैज़ के दिनों में औरत के लिये नमाज़ और रोज़ा माफ़ होते हैं लेकिन दौराने हज वह क्या करे ऐसी सूरतेहाल उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा सिद्दीक़ा को पेश आती थी वह बहुत उदास और ग़मगीन बैठी थीं तो रसूल स.अ. ने हाल पूछा और फ़रमाया कि यह कैफ़ियत अल्लाह तआला ने आदम की बेटियों पर लाज़िम कर दी है तो तुम हज के वह तमाम आमाल अंजाम दो जो दूसरे हाजी बजा ला रहे हैं सिर्फ़ बैतुल्लाह का तवाफ़ मत करो लिहाज़ा हालते हैज़ में औरत हज के दूसरे मनासिक मसलन सई, जुमरात की रमी, वकूफ़े अरफ़ा व मुज़्दलफ़ा वग़ैरह कर सकती है। सिर्फ़ बैतुल्लाह का तवाफ़ करने के लिये वह रूक कर अपने पाक होने का इंतिज़ार करेगी और पाक होकर तवाफ़ करेगी।
लेकिन मौजूदा वक़्त में जबकि सफ़र की तारीख़ पहले से मुतअय्यन होती है जहाज़ में सीट बुक होती है वग़ैरह की मुद्दत महदूद होती है अगर औरत के लिये माहवारी से पाक होने का इंतिज़ार करना मुमकिन न हो मसलन टिकट की तारीख़ आगे न बढ़ रही हो या महरम वग़ैरह दीगर रफ़क़ा का ठहरना मुमकिन न हो तो अब औरत के लिये दो ही सूरत रह जाती हैं या तो नापाकी हालत में तवाफ़े काबा करे या तवाफ़ से महरूम रह जाये और यह बात मालूम हो चुकी है कि तवाफ़े काबा छूटने से हज ही नहीं होता है लिहाज़ा अब एक ही सूरत बाक़ी रह जाती है कि वह हालते हैज़ में तवाफ़े ज़ियारत अंजाम दे ले अलबत्ता नापाक हालत में तवाफ़ करने की वजह से हुदूदे हरम में एक जानवर की कुर्बानी दम की सूरत में देनी होगी।

इसके अलावा मर्द और औरत के दरमियान हज के आमाल में फ़र्क़ का एक मौक़ा यह है कि जब दसवें ज़िलहिज्जा को रमी और कुर्बानी के बाद सर के बाल मुंडवाते या छोटे करा लेते हैं तब ही एहराम की पाबंदी ख़त्म होती है। मर्दों के लिये अफ़ज़ल यह है कि वह बाल मुंडवायें अलबत्ता छोटे करा लेने की भी इजाज़त है। सर के बाल औरत के लिये हुस्न और क़ीमती तोहफ़ा होते हैं यहां भी शरियत बाल मुंडवाने का हुक्म नहीं है।

दसवें ज़िलहिज्जा को सूरज निकलने के बाद जुमरा अक़बा की रमी की जाती है फिर ग्यारह और बारह ज़िलहिज्जा को ज़वाल के बाद मिना के मैदान में तीनों जुमरात पर कंकरियां मारी जाती हैं उस वक़्त बड़ा इजि़्दहाम होता है इस भीड़ से बचने के लिये कुछ हज्जाज दूसरे हाजियों के ज़रिये रमी करा लेते हैं। ऐसा दुरूस्त नहीं है हां अगर कोई मर्द या औरत मरीज़ हो या इस क़द्र ज़ईफ़ हो कि जुमरात तक जाने की ताक़त नहीं है तो दूसरे हाजी से रमी करा सकता है उनके अलावा ख़्वातीन अगर भीड़ से बचकर रमी करना चाहती है तो उनके लिये बेहतर है कि वह रात के वक़्त में रमी कर लें।

हज का आख़िरी अमल तवाफ़े विदा है तमाम हज्जाज मर्द व औरत वापसी से पहले यह तवाफ़ करते हैं जो औरत हैज़ के आलम में हो इससे पहले वाला तवाफ़ जो हज का रूक्न है नापाकी की हालत में करके एक कुर्बानी पेश करेगी यह आख़िरी तवाफ़ ऐसी औरत से माफ़ कर दिया गया है रसूल स.अ. ने हैज़ वाली औरतों को तवाफ़े विदा की रूख़्सत दी है।

यह ख़्वातीन से मुताल्लिक़ हज के चंद मसाएल हैं हज की इबादत का ताल्लुक़ ख़्वातीन के साथ यह ख़ुसूसियत रखता है कि रसूल स.अ. ने हज को ख़्वातीन के लिये अफ़ज़ल जेहाद क़रार दिया है और एहकाम शुरू के मुताबिक़ अंजाम पाने वाला हज ही बारगाहे इलाही में मक़बूल व महरूर होता है।