तौक़ीर सिद्दीक़ी

सोशल मीडिया पर आज एक अपील देखी जो एक स्कूल द्वारा जारी की गयी है, स्कूल राजधानी लखनऊ का है. अपील में “द कश्मीर फाइल्स को देखने का सभी से अनुरोध किया गया है. अपील में जज़्बातों को भड़काने वाली तमाम बातों के साथ इस फिल्म को देखने की सिफारिश की गयी है. एक स्कूल द्वारा पब्लिकली किसी फिल्म को देखने की सिफारिश करने का शायद यह पहला मामला होगा। सवाल उठता है यह क्यों? एक ऐसी फिल्म जिसमें दो समुदायों का संघर्ष, हिंसा, क़त्लेआम दिखाया गया हो उसे देखने की सिफारिश शिक्षा का एक सदन कर रहा है. नफरत के सन्देश का प्रसार करने के लिए यह स्कूल क्यों आगे आया, भले ही यह अमानवीय और सत्य घटना पर आधारित एक फिल्म हो मगर है तो इसमें हिंसा ही और शिक्षा का हिंसा से क्या लेना देना।

मुंबई दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक करने से मना कर दिया था ताकि माहौल न बिगड़े. यह फिल्म भी माहौल बिगाड़ रही है. माहौल बिगाड़ने के लिए तो राजनीतिक पार्टियां और साम्प्रदायिक संगठन पहले से देश में मौजूद हैं फिर किसी स्कूल जो कि जूनियर स्तर का है, उसके संचालकों को ऐसी क्या ज़रुरत पेश आयी कि वह नफरत को बढ़ावा देने वाली ऐसी फिल्म को देखने के लिए लोगों से सार्वजनिक अपील कर रहे हैं, उनकी इस अपील के बाद तो यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने स्कूल के बच्चों को भी फिल्म दिखाई होगी या देखने के निर्देश जारी किये होंगे। सच्चाई के नाम पर फिल्म में दृश्यों को जिस वीभत्स रूप फिल्माया गया है वह बच्चों के कोमल मस्तिष्क को छोड़िये परिपक्व व्यक्तियों के दिमाग़ पर एक नकारात्मक प्रभाव छोड़ रहे हैं और एक सम्प्रदाय विशेष के लिए मन में ऐसा ज़हर पाल रहे हैं जो देश और समाज के लिए बेहद घातक साबित हो सकता है.

“द कश्मीर फाइल्स” को अब जिस तरह एक पार्टी विशेष और सरकार का समर्थन मिल रहा है उससे यह पूरी तरह से साफ़ हो चूका कि इस फिल्म को अब एक मूवमेंट बनाया जा रहा है, जिसपर आने वाले दिनों में राजनीतिक रोटियां सेंकने की तैयारी है. फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री के बयान इस आग को और हवा दे रहे हैं, उनका फिल्म के आलोचकों को आतंकवाद का समर्थक बताना यह साबित करता है कि वह भाजपा की उसी लाइन पर चल रहे हैं जहाँ सवाल उठाना एक अपराध और सवालों से भागना एक कला है.

फिल्म से एक भारी भरकम कमाई करने के लिए एक सोची समझी रणनीति जिसे आप साज़िश भी कह सकते हैं एक छद्म राष्ट्रवाद का रूप दिया जा रहा है. फिल्म देखने के लिए पुलिसवालों को एक दिन की छुट्टी की बात हो, थियटर बुक कराकर मुफ्त फिल्म दिखाने की कोशिश या खाली सिनेमाहाल के बाहर हॉउसफुल का बोर्ड लगाने की कारस्तानी, सबका सार यही है कि फिल्म को इतना विवादित दिखाओ कि हर कोई न चाहते हुए भी इसे देखने को मजबूर हो. फिल्म और राजनीति के अनोखे गठबंधन का रास्ता इस फिल्म ने खोला है. फिल्म बनाने वाले पैसा मिलने से खुश, फिल्म का समर्थन करने वाले राजनीतिक ध्रूवीकरण से खुश, दोनों के उद्देश्य पूरे। इन सबके बीच कश्मीरी पंडितों के उद्देश्यों का आज भी कोई पुरसाहाल नहीं, वह अपने को ठगा सा महसूस करते हुए सारा तमाशा देख रहे हैं और पूछ रहे हैं कि मुझे वापस कश्मीर कब पहुंचाओगे?