डॉ. आंबेडकर को प्रायः दलितों के उद्धारक के रूप में पहचाना जाता है जबकि वे सभी पददलित वर्गों दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़े थे. परन्तु वर्ण व्यवस्था के कारण पिछड़ी जातियां जो कि शूद्र हैं, अपने आप को अछूतों (दलितों) से सामाजिक सोपान पर ऊँचा मानती हैं. एक परिभाषा के अनुसार पिछड़ी जातियां शूद्र हैं तो दलित जातियां अति शूद्र हैं. अंतर केवल इतना है कि पिछड़ी जातियां सछूत और दलित जातियां अछूत मानी जाती हैं. यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि सछूत होने के कारण पिछड़ी जातियों का कुछ क्षेत्रों में अछूतों से अधिक शोषण हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़ी जातियां कट्टर हिन्दूवाद के चंगुल में फंसी रही हैं जबकि दलित हिन्दू धर्म के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहे हैं. सामाजिक श्रेष्ठता के भ्रम के कारण पिछड़ी जातियां डॉ. आंबेडकर को अपना नेता न मान कर दलितों का नेता ही मानती आई हैं. यह इसी लिए भी है क्योंकि अधिकतर पिछड़ी जातियां सवर्ण हिन्दुओं के प्रभाव में रही हैं और उन्हें डॉ. आंबेडकर के बारे में बराबर भ्रमित किया जाता रहा है ताकि वे डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से प्रभावित होकर दलितों के साथ एकता स्थापित न कर लें और सवर्णों के लिए बड़ी चुनौती पैदा न कर दें. पिछड़ों और दलितों में इस दूरी के लिए दलित और पिछड़ों के नेता भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं जो कि जाति की राजनीति करके अपनी रोटी सेंकते रहे हैं.
अब अगर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाये तो डॉ. आंबेडकर ने जहाँ पददलित जातियों के अधिकारों के लिए जीवन भर संघर्ष किया वहीँ उन्होंने पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष किया. इस तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है:-
6.डॉ.आंबेडकर ने ही 1928 में साईमन कमीशन के सामने भारत के भावी संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वकालत की थी.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर ने न केवल दलितों हितों के लिए ही संघर्ष किया बल्कि वे जीवन भर पिछड़े वर्ग के हितों के लिए भी प्रयासरत रहे. उन के प्रयास से ही संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान हो सका और उन द्वारा पैदा किये गए दबाव के कारण ही प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ. बाद में मंडल आयोग गठित हुआ और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिला जिस के लिए पिछड़े वर्ग को बाबासाहेब का अहसानमंद होना चाहिए.
अतः पिछड़े वर्ग को उन के उत्थान के लिए बाबासाहेब के योगदान को स्वीकार करना चाहिए. वर्तमान की नयी चुनौतियों के परिपेक्ष्य में इन वर्गों की एकता को पुनर स्थापित करने की ज़रूरत है. यह बात भी सही है कि दलितों और पिछड़ों में कुछ वर्गीय अन्तर्विरोध हैं जिन्हें हल किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. यह सर्विदित है कि दलित, अति पिछड़े (हिदू, ईसाई और मुसलमान) कुदरती दोस्त हैं. यह समीकरण जातिगत न होकर साझे मुद्दों पर ही आधारित हो सकता है जो कि देश में बहुसंख्यकवाद और हिन्दुत्ववादी राजनीति का सामना कर सकता है.
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