(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

“सिर्फ (राम) मंदिर ही नहीं बना है, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दस साल में व्यावहारिक रूप से राम राज्य की अवधारणा को लागू कर दिया है।” ये शब्द हैं, नई-दिल्ली में 17-18 को हुई भाजपा की भीमकाय राष्ट्रीय कन्वेंशन में पेश किए गए और स्वीकार किए गए राजनीतिक प्रस्ताव के, जो पूर्व-भाजपा अध्यक्ष व वर्तमान रक्षा मंत्री, राजनाथ सिंह ने पेश किया। नई-दिल्ली में, जी-20 के लिए विशेष रूप से निर्मित, भारत मंडपम में हुई इस कन्वेंशन में करीब बारह हजार भाजपा नेताओं ने हिस्सा लिया बताया जाता है। इसी कन्वेंशन ने एक अन्य निर्णय में जिस प्रकार भाजपा के संविधान में संशोधन किया है और वर्तमान अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल चुनाव के बाद तक के लिए बढ़ाने के अलावा, अध्यक्ष के चुनाव की व्यवस्था में ही संशोधन कर, संसदीय बोर्ड को अध्यक्ष का चयन करने का अधिकार दे दिया है, उससे कम-से-कम इतना तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा सकता है कि इस तरह की राष्ट्रीय कन्वेंशन का औपचारिक दर्जा, इस पार्टी के सर्वोच्च निकाय का होना चाहिए। इस तरह, अब भाजपा के सर्वोच्च निकाय ने बाकायदा प्रस्ताव पारित कर यह ऐलान कर दिया है कि अपने राज के दस साल में नरेंद्र मोदी, भारत में ‘राम राज्य’ ले आए हैं। यहां से खुद मोदी जी का नया राम या राम का अवतार घोषित किया जाना, सिर्फ आधा कदम की दूरी पर रह जाता है।

यह भाषण के प्रवाह में कोई अतिशयोक्ति हो जाने का मामला नहीं है। यह सत्ताधारी पार्टी की शीर्ष कन्वेंशन के अति-महत्वपूर्ण प्रस्ताव के सूत्रीकरण का मामला है। और ऐसा लगता है कि यह सिर्फ एक प्रस्ताव तक सीमित मामला भी नहीं है। भाजपा अध्यक्ष, जेपी नड्डा द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव में भी यही दावा किया गया था। हां! उसमें राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को ‘भारत में अगले एक हजार साल के लिए ‘राम राज्य’ की स्थापना का अग्रदूत’ बताया गया था। और यह भी कि ‘भगवान राम के आदर्शों का अनुसरण करते हुए, प्रधानमंत्री ने देश में सुशासन की स्थापना कर के सच्चे अर्थ में ‘राम राज्य’ की भावना को लागू किया है।’ इस तरह, नरेंद्र मोदी के हाथों राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के रास्ते, संघ-भाजपा तेजी से, मोदी के देश में ‘राम राज्य’ ले आने के दावे की ओर छलांग लगाते नजर आते हैं। बेशक, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और पहले मंदिर के शिला पूजन और अंतत: मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के केंद्र में नरेंद्र मोदी के खुद को स्थापित करने से, इतना तो पहले ही पूरी तरह से स्पष्ट था कि ‘नरेंद्र मोदी के अयोध्या में मंदिर बनवाने’ के दावों का, 2024 के आम चुनाव में संघ-भाजपा द्वारा खुलकर दोहन किया जाएगा। फिर भी, उनके इतनी तेजी से ‘राम राज्य’ कायम कर चुके होने के दावे पर पहुंच जाने से उनके आलोचकों ही नहीं, गैर-अंधभक्त समर्थकों को भी कुछ हैरानी जरूर हुई होगी।

इस हैरानी की वजह यह है कि ‘राम राज्य’ कायम कर देने का दावा, सिर्फ धर्म तथा विशेष रूप से बहुसंख्यक समुदाय के धर्म और राजनीति के गड्डमड्ड कर दिए जाने का ही मामला नहीं है। बेशक, वर्तमान संघ-भाजपा निजाम में, बहुसंख्यक समुदाय के धर्म और राजनीति को गड्डमड्ड किए जाने को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया गया है। यह खासतौर पर मोदी के राज के दस साल में हुआ है और जैसा कि हमने पहले कहा, राम मंदिर के बहाने से इसे बहुत तेजी से आगे बढ़ाया गया है। उसमें भी प्राण प्रतिष्ठा ईवेंट के बहाने से, जिस तरह से सिर्फ प्रधानमंत्री को ही नहीं बल्कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति समेत, समूचे शासन तथा प्रशासकीय तंत्र को, एक बहुसंख्यक धार्मिक आयोजन में खींचा गया है और जैसे ‘राष्ट्र’ और ‘राम’ को समकक्ष के रूप में आपस में जोड़ने की कोशिश की गयी है, उसने इस सिलसिले को नयी ऊंचाई पर पहुंचा दिया। बाद में संसद से प्रस्ताव पारित कराने के जरिए, राम और राष्ट्र के पर्याय बनाए जाने पर, राज्य के सर्वोच्च निकाय की भी मोहर लगवा दी गयी। लेकिन, बहुसंख्यक धार्मिक विश्वासों तथा आचारों को काफी हद तक ‘राष्ट्रीय’ की मान्यता दिलाने के इस मुकाम के बाद भी, ‘राम राज्य’ की घोषणा से कुछ झटका तो लगता ही है।

यह झटका लगने की एक बड़ी वजह यह है कि आम भारतीय के लिए और जाहिर है कि आम हिंदू के लिए भी, ‘राम राज्य’ कम से कम एक ‘धर्म-आधारित राज्य’ का मामला किसी भी तरह नहीं है। राम बेशक, धार्मिक प्रतीक हैं, लेकिन उनसे जुड़े राज्य की आम भारतीय की संकल्पना, ऐसे धर्म-आधारित राज्य की किसी भी तरह से नहीं है, जो समुदायों के बीच और जाहिर है कि व्यक्तियों के बीच भी, किसी भी तरह से भेदभाव करता हो। राम राज्य की संकल्पना, मूलत: धार्मिक आस्था का मामला है, जबकि धर्म-आधारित राज्य की संकल्पना मूलत: सांप्रदायिक भेदभाव बल्कि ऊंच-नीच का मामला है, जो समुदायों में, शासक और शासित समुदाय बनाती है। भारत जैसे मिली-जुली रहनी की परंपरा के देश में, राम राज्य की भी ऐसी धर्म-आधारित राज्य की संकल्पना, लोगों को आसानी से स्वीकार नहीं होगी। इसके अलावा इसका एक कारण और है। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, जिसमें धर्म-आधारित राज्य की ऐसी किसी भी संकल्पना को बलपूर्वक खारिज किया गया था, इसी आंदोलन की सबसे प्रभावशाली आवाज के रूप में महात्मा गांधी ने ‘राम राज्य’ की कल्पना का सबसे ज्यादा उपयोग किया था और सचेत रूप से इसे एक धर्मनिरपेक्ष रूप दिया था।

गांधी की कल्पना का राम राज्य, राम से जुड़ी कथाओं से भी ज्यादा, न्याय-अन्याय, पुण्य-पाप, सही-गलत की उनके नैतिक विवेक से बना था, जिसके केंद्र में थी मनुष्य की बराबरी। और यह बराबरी इसकी मांग करती थी कि जो सबसे पीछे है, सबसे कमजोर है, उसे बराबरी पर लाने के लिए, सबसे ज्यादा मदद दी जाए। ‘कतार के आखिरी आदमी’ की चिंता का गांधी का ताबीज इसी से निकला था और यही उनके लिए राम राज्य की भी असली निशानी थी। राम राज्य की गांधी की संकल्पना का असर, अब भी भारतीयों के बड़े हिस्से के बीच बना हुआ है। राम राज्य की ऐसी संकल्पना के संदर्भ में, दस साल में मोदी राज में जो भारत में बना है, उसे क्या किसी भी तरह से ‘राम राज्य’ कहा जा सकता है? ठीक इसीलिए, मोदी राज के ‘राम राज्य’ होने के दावे आम भारतीयों को चौंकाने ही वाले हैं। राम राज्य के परोक्ष या प्रत्यक्ष इशारों से मोदी राज कोई खास राजनीतिक चुनावी लाभ शायद ही मिल सकेगा।

विडंबना यह है कि मोदी-शाही के असल में ‘राम राज्य’ होने के दावे तब किए जा रहे हैं, जब सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में, चुनावी बांड के जरिए चंदे की समूची व्यवस्था को, संस्थागत भ्रष्टाचार की गोपनीय व्यवस्था मानकर खारिज किया ही है। याद रहे कि मोदी-शाही ने ही धनपतियों से अपारदर्शी तरीके से चंदे लिए जाने की यह व्यवस्था खड़ी की थी और भारी राजनीतिक विरोध को तरह-तरह की तिकड़मों से धता बताकर, देश पर यह व्यवस्था थोपी थी। और अब तक आई सारी जानकारियों के अनुसार, मोदी-शाही ही इस व्यवस्था की सबसे बड़ी लाभार्थी थी, जिसे इस रास्ते से प्राप्त हुए दसियों हजार करोड़ रुपए में से, अस्सी फीसद के करीब हिस्सा मिला था। यानी यह सीधे-सीधे सत्ताधारियों और अरबपतियों के बीच, भ्रष्ट लेन-देन का मामला था। सुप्रीम कोर्ट के इस भ्रष्टाचार पर साफ तौर पर उंगली रखने के बाद, अगर सत्ताधारी पार्टी अपने निजाम को ‘राम राज्य’ बताए, तो इसे उसकी हिमाकत ही कहा जाएगा।

फिर भी मोदी की भाजपा यह हिमाकत कर रही है। बेशक, इसके पीछे आला दर्जे की चाटुकारिता भी है, लेकिन इस सोच पर टिकी हिमाकत भी है कि पब्लिक से और उसमें भी खासतौर पर आम हिंदुओं से, राम के नाम पर और सिर्फ प्रचार के बल पर, वे कुछ भी मनवा सकते हैं। आम देशवासी इस खेल को समझ रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि संघ-भाजपा की इस गलतफहमी को पहले मौके पर ही दूर कर देगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)