राजस्थान में भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया है। इस बार भी बीजेपी ने चौंकाने वाले नाम का ऐलान किया। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 2 बार अपने समर्थक विधायकों के साथ शक्ति प्रदर्शन कर आलाकमान को आंख दिखाने की कोशिश की थी, लेकिन मोदी-शाह के दबाव के चलते उन्हें पीछे हटना पड़ा।

पार्टी आलाकमान शुरू से ही यह कहता आया है कि इस बार का चुनाव कमल और पीएम मोदी के चेहरे पर लड़ा जाएगा। ऐसे में वसुंधरा कई बार दिल्ली जाकर पार्टी के आला नेताओं से मिली लेकिन उनको पार्टी ने यह बताने से इंकार कर दिया कि चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी। यानी हर बार उन्हें पार्टी ने यह संकेत दिया कि आप इस बार पार्टी के सीएम कैंडिडेट नहीं होंगे। इसके बावजूद वसुंधरा हरी झंडी मिलने का इंतजार करती रही। विश्लेषकों की मानें तो पार्टी अब राज्यों के सीनियर नेताओं को केंद्र में लाकर राज्य में नई लीडरशिप तैयार करना चाहती है इसी क्रम में छत्तीसगढ़ और राजस्थान में नये सीएम देखने को मिले हैं।

पार्टी ने 2018 में वसुंधरा को सीएम फेस बनाकर चुनाव लड़ा। पार्टी चुनाव में 163 सीटों से 72 पर सिमट गई। इस दौरान प्रदेश की सियासी फिजाओं में एक ही नारा गुंजता था वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं। यानी लोगों का स्पष्ट संदेश था कि पार्टी वसुंधरा को सीएम के पद से उतारकर किसी अन्य को चेहरा बनाए। इतना ही नहीं इसके 6 महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा और गहलोत का सियासी गठजोड़ हर समय चर्चा में रहता है। पिछले दिनों सीएम गहलोत ने धौलपुर की एक रैली में कहा था कि वसुंधरा और कैलाश मेघवाल की वजह से उनकी सरकार जाने से बच गई। हालांकि जब गहलोत सत्ता में होते हैं तो वे वसुंधरा सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार पर कोई एक्शन नहीं लेते हैं। वहीं जब वसुंधरा सत्ता में होती है तो वे गहलोत सरकार के भ्रष्टाचार पर कोई एक्शन नहीं लेती थी। देश में दो विरोधी दलों के शीर्ष नेताओं में ऐसा गठजोड़ कहीं नहीं देखा गया।

वसुंधरा के सीएम की रेस से बाहर होने का एक कारण उनकी निष्क्रियता भी है। वसुंधरा पार्टी के सत्ता से बाहर होते ही एकदम निष्क्रिय हो जाती है। वे कभी भी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नहीं जाती। ना ही पार्टी के विरोध कार्यक्रमों का हिस्सा बनती है। इसकी बानगी मार्च में प्रदेश सरकार के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान देखने को मिला। जब पार्टी ने 8 मार्च को महिला दिवस पर विधानसभा के सामने विशाल धरना प्रदर्शन का आयोजन किया था जिसमें सभी विधायकों को पहुंचने के लिए कहा गया था। इस दिन वसुंधरा ने चूरू के सालासर बालाजी में अपने जन्मदिन पर शक्ति प्रदर्शन किया जिसमें 57 से ज्यादा विधायक पहुंचे थे।

वसुंधरा अटल-आडवाणी के जमाने की नेता है। उस समय पार्टी हिंदी भाषी राज्यों तक सीमित हुआ करती थी। भैंरोसिंह शेखावत से नजदीकी होने के कारण उन्हें राजनीति में उतरने का मौका मिला और इसके बाद वे लगातार सीएम बनती गई। 2014 में जब से भाजपा की सरकार बनी है पार्टी सभी राज्य इकाइयों में लगातार बदलाव कर रही है। उसी का नतीजा है कि वसुंधरा अब प्रदेश में सीएम की रेस से बाहर हो गई है। इसके अलावा कई मौकों पर उनकी आलाकमान से ठन भी गई। 2018 में हार के बाद मदनलाल सैनी प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए। पद पर रहते हुए उनका देहांत हो गया। इसके बाद करीब 2 महीने तक पार्टी नया अध्यक्ष नहीं बना पाई। वजह थी वसुंधरा राजे क्योंकि वसुंधरा अपनी पसंद का अध्यक्ष चाहती थी। ऐसे में पार्टी ने सतीश पूनिया को पार्टी का अध्यक्ष बनाया। हालांकि उनके साथ भी वसुंधरा के रिश्ते कभी सहज नहीं रहे।

राजस्थान में वसुंधरा 2003-2008 और 2013-2018 तक सीएम रहीं। इस कार्यकाल के दौरान पार्टी ऐसी कोई खास रणनीति नहीं बना पाई ताकि पुनः सत्ता में वापसी सुनिश्चित हो सकें। वहीं राज परिवार से होने के कारण और अन्य कारणों के चलते वह जनता के कभी करीब नहीं हो पाई। अक्सर ऐसी शिकायतें सुनने को मिलती थी कि वसुंधरा लोगों के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है। ऐसे में पार्टी आलाकमान ने उन्हें सीएम उम्मीदवार के तौर पर कभी पहली पसंद में नहीं रखा। वहीं एक और कारण 2023 चुनावों के बाद बाड़ेबंदी भी है। हालांकि उसका खंडन एक विधायक ने किया था। इसके बाद लगातार उनका अपने समर्थक विधायकों से मिलना भी एक कारण था।