चंद महिला पत्रकारों के चेहरे लखनऊ की पत्रकारिता की शान कहे जाते थे। पांच महिलाओं की रिपोर्टिंग पचास पुरुष पत्रकारों पर भारी पड़ती थी। गुजिश्ता तीन दशक की लखनवी पत्रकारिता का एक ऐसा ही चेहरा कम हो गया। अफसोस इस बात का कि कोरोना की आंधी उन्हें भी बेबसी की मौत दे रही है जिनका एक फोन मामूली इंसान को वीवीआईपी ट्रीटमेंट वाला इलाज दिलवाने के लिए काफी था। लखनऊ की पत्रकारिता के एक युग जैसी शख्सियत ताविषी जी की बेबसी वाली मौत को आप कुछ कह लीजिए। दास्तान बयान करने वाले पर पैनिक क्रिएट करने का इल्जाम लगा दीजिए या इस दास्तान को नियति कह लीजिए। महामारी का डरावना चेहरा भी कह सकते हैं। चरमराई स्वास्थ्य सेवाएं का आइना, सरकार या पत्रकार संगठनों/पत्रकार नेताओं का नाकारापन भी कह सकते हैं।

जो आपको सूट करे वो कह लीजिए पर उनकी मौत के मातम को संवाददाता समिति के रेडीमेड शोक संदेश से ऊपर होना चाहिए। फिक्र ज़रूरी है। मसलन ताविषी जी की सांसे उखड़ते वक्त लखनऊ की एक वरिष्ठ महिला पत्रकार ने दिल्ली में बैठे दिग्गज पत्रकार हेमंत शर्मा से अस्पताल में दाखिला दिलवाने की मदद की गुहार लगाई। नौ सौ राज्य मुख्यालय के पत्रकारों द्वारा चुनी गई उ.प्र.सवाददाता समिति को पता भी नहीं था कि लखनऊ की पत्रकारिता का एक सितारा इलाज के अभाव में टूट रहा है। ताविषी मौत के काले बादलों से बचकर निकलने की सटपटाहट में पत्रकारिता के साथी रहे पत्रकारों से मदद मांग रहीं थी। अंततः मदद हुई भी, लेकिन वाया दिल्ली से। भला हो योगी सरकार के मंत्री बृजेश पाठक का जिन्होंने फौरन मदद की। लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। सांसे अटक चुकी थीं, जालिम कोरोना वायरस इस उम्रदराज महिला जर्नलिस्ट की ज़िन्दगी पर हावी हो चुका था।

मौत की आंधी में जिन्दा रहने का अहसास कराना भी ज़रूरी है। सवाल उठाना दुश्मनी, द्वेष, विरोध, कुंठा या पैनिक क्रिएट करना नहीं। देश,प्रदेश की सत्ता हो या यूपी में चुनी हुई संवाददाता समिति हो। उसकी कार्यशैली पर सवाल उठाना जिन्दा रहने की अलामत है। भास्कर दुबे हों, प्रभात त्रिपाठी हों या प्रभावहीन और पहचानहीन मेरा जैसा अदना सा पत्रकार हो। सवाल सबके जायज़ हैं, उनको स्वीकार करना चाहिए है। सवालों को खारिज नहीं करना चाहिए,उसपर विचार हो, चिंतन-मनन हो।

लखनऊ में पत्रकारों की मौतों की झड़ी लगी है। ये दूसरी वेब है। विज्ञान बताता है कि कोरोना की चार वेब होंगी और हर वेब पिछली वेब से चार गुना खतरनाक होगी।

ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी बढ़ती जा रही है। ताविषी भी आक्सीजन के लिए तड़प कर चली गईं।

कोरोना काल के प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने वाला उ.प्र.राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति का चुनाव बहुत खर्चीला था। बताया जाता है कि उम्मीदवारों के चुनावी का कुल चुनावी खर्च करीब तीस-चालीस लाख तक पंहुच गया था।

काश इतनी कीमती संवाददाता समिति प्रयास करके भविष्य में किसी ताविषी, किसी सच्चे, किसी प्रमोद…. की उखड़ती सांसों को बचाने के लिए एक आक्सीजन सिलेंडर बैंक तैयार कर ले।

इन बातों को आप सियासत कहें या लफ्फाजी कहें, पर मेरा मानना है कि किसी हमपेशा कलमकार साथी की मौत पर श्रद्धांजलि को विमर्श से जोड़ना चाहिए है। चालीस शब्दों के शोक संदेश से आगे बढ़कर चार सौ शब्दों की श्रद्धांजलि दें। हेमंत शर्मा जी और दीपक शर्मा जी की तरह। जिनके कलम ने ताविषी जी को जो श्रद्धांजलि दी जो विमर्श की सूरत में है, चिंतन-मनन करने पर विवश करती है।

नई पीढ़ी भले ही ताविषी जी को कम जानती हो पर वो लखनऊ की पत्रकारिता का एक सुनहरा दौर थीं। चंद महिला पत्रकारों में शुमार ताविषी जी की विशिष्ट पहचान थी। लखनऊ के एतिहासिक अंग्रेजी अख़बार पायनियर का वो पर्याय थी। चार दशक की पत्रकारिता में उनकी छवि का दामन पाक और बेदाग रहा। किसी विवाद,सियासत या पार्टीवाद से वो कोसों दूर रहीं। स्थापित जर्नलिस्ट थीं, बड़ी पंहुच थी और प्रभावशाली पत्रकार उनके कलीग थे। बताने के लिए दो नाम ही काफी हैं। दिग्गज हेमंत शर्मा जी जैसे देश के विख्यात और प्रभावशाली पत्रकार पॉलीटिकल फील्ड रिपोर्टिंग के साथी थे और दीपक शर्मा जैसे चर्चित पत्रकार उनके जूनियर कलीग थे।

लेकिन वक्त का सितम हवाओं का भी मोहताज कर देता है। एक आक्सीजन का भी इंतेज़ाम नहीं होने देता।
श्रद्धांजलि

  • नवेद शिकोह