लखनऊ: कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में अपनी गहरी छाप छोड़ने वाली शॉर्ट फिल्म ”द पॉपकॉर्न” अब सिनेमा प्रेमियों के लिए MX प्लेयर पर भी उपलब्ध है । एब्सोल्यूट वेंचर्स के बैनर तले बनी यह शार्ट फिल्म पाइनवुड स्टूडियो लन्दन , न्यू दिल्ली फिल्म फेस्टिवल और मुंबई शार्ट फिल्म फेस्टिवल से पुरस्कृत होने के बाद अब आम दर्शकों के लिए उपलब्ध करवाई गई है। खास बात यह है कि इस फिल्म के निर्देशक कोई प्रोफेशन नहीं बल्कि पेशे से भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी शिवेंद्र प्रताप सिंह हैं। उन्होंने इस फिल्म के बारे में बताया कि बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ ही इस फिल्म के निर्माण का आधार है। यही वजह है कि इस फिल्म को कई फिल्म समारोहों में भरपूर सराहना मिली है।

फिल्म निर्देशक शिवेंद्र प्रताप सिंह ने अपनी इस फिल्म के बारे में बताया कि यह फिल्म एक बच्चे की जिज्ञासु प्रवृत्ति और संघर्ष क्षमता पर आधारित है। फिल्म का मुख्य किरदार टिंकू न केवल अपने परिवेश के बाहर निकलकर सपने देखता है बल्कि उसे पूरा करने के लिए पूरी शिद्दत के साथ अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है। टिंकू के साथ भी वही होता है जो आम तौर पर हम सभी के साथ होता है ; जब भी हम कुछ नया या लीक से हटकर करना चाहते हैं तो हमारा समाज , हमारा परिवेश , हमारा परिवार आसानी से उसकी इज़ाज़त नहीं देता है। जैसी पुरानी परिपाटी रही है ; उगते सूरज को सब सलाम करते हैं। संघर्ष , महत्वाकांक्षा , सपने और क्षमताओं का ताना बाना बुनती हुई यह फिल्म दर्शकों में जिंदगी के प्रति एक नए नज़रिये को जन्म देती है।

इस फिल्म की पूरी शूटिंग वाराणसी में की गयी है। जबकि कलाकारों का चयन देश के अलग अलग भागों से किया गया है। मुख्य किरदार उमर इकबाल दिल्ली से हैं। सह कलाकार अचिन्त्य मिश्रा उत्तर प्रदेश से, दीक्षा सैनी हरियाणा से। इसी तरह फिल्म की तकनीकी टीम फरीदाबाद से है जिसमे सह -निर्देशक उमेश राजपूत , संपादक प्रदीप सैनी और एक्सेक्यूटिव प्रोड्यूसर धीरज सूद की मुख्य भूमिका रही।

फिल्म के निर्देशक शिवेंद्र प्रताप सिंह लखनऊ के रहने वाले हैं . वर्ष 2015 में इन्होने सिविल सेवा परीक्षा पास की और भारतीय राजस्व सेवा में जाने का मौका मिला लेकिन चूंकि फिल्म निर्माण में रूचि बचपन से ही थी इसलिए सही मौका मिलने पर द पॉपकार्न का निर्माण शुरू हो गया।

बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ ही इस फिल्म के निर्माण का आधार है। यही वजह है कि इस फिल्म को कई फिल्म समारोहों में भरपूर सराहना मिली है। शिवेंद्र प्रताप सिंह के शब्दों में एक व्यस्क की तुलना में एक बच्चा कहीं ज्यादा जिज्ञासु होता है ; इस नज़रिये से वह प्रकृति के रहस्यों से तुलनात्मक रूप से ज्यादा चमत्कृत होता है और प्रकृति के ज्यादा करीब होता है। जबकि एक व्यस्क की बौद्धिकता ओढ़ी हुई बौद्धिकता बन जाती है जिसमे मौलिकता और स्वाभाविक जिज्ञासा धीरे धीरे गायब होने लगती है। एक छोटा बच्चा हर छोटी से छोटी घटना को समझना चाहता है इसलिए वह बिना थके हुए बार बार सवाल करता रहता है। तब तक सवाल करता रहता है जब तक या तो उसकी जिज्ञासा शांत न हो जाये या उसे शांत न करा दिया जाए। बालमन की दुनिया एकदम अलग है। एक बच्चे को इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं लगता है। उसे पूरा विश्वास होता है कि जो उसकी कल्पना में आ सकता है वो सच भी हो सकता है। उसे कोई संशय नहीं होता है इसीलिए बच्चे की इच्छाशक्ति एक व्यस्क की इच्छाशक्ति के मुकाबले कही ज्यादा मजबूत होती है। इसी मैकेनिज़्म को समझने और समझने की कोशिश ही फिल्म की मूल आत्मा है। जिज्ञासा , प्रयोग , अनुभव और विश्वास यह एक दूसरे से जुडी हुई कड़िया हैं।

उनका कहना है कि किसी भी बच्चे का विश्वास यदि पहली तीन प्रक्रियाओं से होकर पका है तो निश्चित है कि उसके मानसिक पोषण के लिए आवश्यक पोषक तत्व एकदम ताज़ा और शुद्ध होंगे लेकिन समस्या तो तब पैदा होती है जब हम उसे पका पकाया विश्वास परोस देते हैं जो बासी है और जिससे पोषण तो दूर की बात है ; उसका मानसिक हाज़मा ही ख़राब होता है। हमें इस बात को समझना और स्वीकार करना होगा कि बालसुलभ जिज्ञासा प्रकृति का एक अनमोल उपहार है। इस जिज्ञासा को प्रयोग और अनुभव की प्रक्रिया से गुजरना ही होगा। बच्चे को बासी विश्वास परोसने की बजाय उसे अपने विश्वास खुद ही पकाने दीजिये ताकि उसे आवश्यक मानसिक पोषण मिले । इस फिल्म के माध्यम से शिवेंद्र ने अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। यशवंत व्यास के शब्दों में कहें तो द पॉपकॉर्न एक ऐसा जादू है जिससे जिंदगी फूटती है।