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ज़मीने करबोबला पर हुसैन आते हैं

ज़मीने करबोबला पर हुसैन आते हैं,
ख़ुदा के दीन के हर पहलू को दिखाते हैं।

आज मोहर्रम की तीसरी तारीख़ है, कल ही निवासए रसूल हज़रत इमाम हुसैन इराक़ के तपते बन करबला में तशरीफ़ लाए। यानी दूसरी मोहर्रम को। रास्ते में यज़ीद इब्ने मुआविया का 1000 का लश्कर हुर बिन यज़ीद रियाही की सरदारी में इमाम हुसैन को गिरफ़्तार कर के कूफ़ा ले जाने के लिए आया था, इमाम जानते थे मगर चूंकि वह सब प्यास से मरने के करीब थे इस लिए उन्हें पानी पिला कर उनकी जान बचाई, यहां तक उन के घोड़ों और जानवरों को भी पानी पिलाया, मगर मुसलमान इतना इस्लाम से दूर हो चुका था कि पानी पीने के बाद इमाम को गिरफ़्तार कर कूफ़ा ले जाने की बात करने लगा, इमाम ने कहा तुम मुझे कहीँ नहीं ले जा सकते हो, मैं अपनी मर्ज़ी से चालूं गा। और फिर 2 मोहर्रम को फ़रात नदी की एक नहर अल्क़मा के किनारे इमाम पहुंच कर रुक गए। यह वही जगह थी जहां की मिट्टी रसूले ख़ुदा ने इमाम हुसैन के बचपन में अपनी एक पत्नी हज़रत उम्मे सलमा को दे कर कहा था कि, जब यह मिट्टी ख़ून में डूब जाए तो समझ लेना मेरा हुसैन शहीद हो गया।

यहां पर इमाम हुसैन ने इंसान की आज़ादी की बात ही नहीं कि बल्कि उसे अमली तौर पर कर के दिखाया। इस्लाम इनसान की आज़ादी की बात करता है, मगर ज़ालिम हमेशा अवाम की आज़ादी के दुश्मन होते हैं। वह समझते हैं कि जिस्मों पर पाबंदी लगा कर किसी को ग़ुलाम बनाया जा सकता है, मगर यह ग़लत है। इंसानी आज़ादी ज़ेहन से चलती है, जिस पर किसी का बस नहीं चलता।

जब इमाम हुसैन करबला पहुंचे तो पता किया कि यह ज़मीन किसकी है, मालूम हुआ बनी असद क़बीले की है, इमाम हुसैन ने उन्हें बुला कर ज़मीन खरीद ली, फिर उसे हिबा करते हुए कहा कि यह ज़मीन मैं तुम्हें वापस करता हूँ, बस अगर हम इस जमीन पर मारे जाएं तो तुम लोग मुझे दफ़न कर देना, अगर हुकूमत से डर कर न आ सकना तो अपनी औरतों से कहना कि जब पानी लेने आएं और हमें दफ़न कर दें, अगर पाबंदी ज़्यादा बढ़ा दी जाए और वह भी न आ सकें तो बच्चों से कहना खेलते हुए आ कर हम पर मुट्ठियों से मिट्टी दाल दें। इस तरह इमाम हुसैन ने इस्लाम की तालीम का वह सबक़ पढ़ाया कि, मेहमान मेज़बान की मर्ज़ी से कुछ दिन बना जा सकता है, लेकिन मुस्तक़ील सुकूनत चाहे क़ब्रों में ही क्यों न हो अपनी ज़मीन पर ही जायज़ है।

इमाम हुसैन ने नहर के किनारे अपने ख़ैमे लगवा दिए, उधर यज़ीद बिन मुआविया ( जो इस्लाम के नाम पर अपनी नाजायज़ हुकूमत के तख़्त पर बैठा हुआ था ) ने अपनी फ़ौजों को भेजना शुरू किया। कुल बहत्तर लोग जिस में बूढ़े और बच्चों की अक्सरियत थी, और औरतों को डराने के लिए लाखों मुसलमान इकट्ठा हो रहे थे। सोंचने की बात है कि उस पहले दौर के मुसलमान कैसे थे जो अपनी नबी की औलाद, उनके घर की औरतों और बच्चों पर जुल्म ढा रहे थे, उन में तो बहुतों ने नबी को देखा था, और इमाम हुसैन का क्या मर्तबा अल्लाह और रसूल के नज़दीक था जानते थे, फिर भी ज़ुल्मो सितम ढाने में आगे आगे थे।

यहां मुझे यह कहने दीजिये कि रसूल के सामने जो मुसलमान थे या उनकी औलादों में अक्सर मुसलमान का लिबादा तो ओढ़े हुए थे मगर वह क़तई मुसलमान नहीं थे। जैसे आज तमाम आतंकवादी गिरोह इस्लाम का नारा लगा कर इंसानियत पर ज़ुल्मों सितम की बारिश करते हैं मगर इस्लाम से उनका कोई नाता नहीं होता। यह सोंच वहीं से आई है जो करबला में इस्लाम का नाम ले कर असल इस्लाम को ही क़त्ल कर रहे थे।

यहां मैं इस्लाम के एक बेशकीमती उसूल की बात करना चाहता हूँ। अक्सर लोग जंग और जिहाद में फ़र्क़ नहीं कर पाते, इस की वजह हुकूमत साज़ी के लिए बरबर्ता को जिहाद का नाम दिया गया, जब कि वह जंगें थीं। जंग में कौन क्या कर रहा है, किस को कौन मार रहा है, कैसे कैसे ज़ुल्म ढायें जाते हैं इस के कोई मानी नहीं होते। सच और झूठ का फ़ैसला जीत पर होता था, जीत कैसे भी मिले वही सच्चा कहलाता था, यह अलग बात है कि वह अमन पसंद शहरियों का घर गिरा दे, उन्हें क़त्ल कर दे, औरतों और लड़कियों को कनीज़ बना कर उन्हें अपनी हवस का शिकार बना दे या मर्दों को ग़ुलाम बना कर इन पर जुल्म व सितम के पहाड़ तोड़ दे तो सब जायज़ होता था, या फिर है, मगर، जिहाद इस्लामी निज़ाम में एक इबादत है। इबादत का एक वक़्त मुक़र्रर होता है, एक हद की दीवारें भी होती हैं, जैसे कि सारी इबादतों की। जिहाद का मानी होता है अच्छाई के लिए जद्दो जेहद ( कोशिश ) करना। इसे लिए सबसे पहले अपने नफ़्स से लड़ना पड़ता है, ज़माने की हिर्स व हवस से जो गंदगियां ख़ुद में समा जाती हैं उस से अपने को दूर कर के पाकीज़ा करना। फिर ज़ुबान पर क़ाबू पाना, ताकि कोई ऐसी बात मुंह से न निकलने पाए जिस से किसी को या समाज को तकलीफ़ पहुंचे, फिर कलाम का जिहाद, आप जो लिखते हैं उस से समाज मे बुराई या फ़साद पैदा न होने पाए, ऐसा लिखा जाए जिस से आलमे इंसानियत में अम्न व अमान की फ़िज़ा कायम हो। और अगर कोई जान व माल के लिए हमला आवर हो तो पहले उसे सही रास्ता दिखाना, अगर फिर भी वह हमला करता है तो अपनी दफ़ाह ( सुरक्षा ) में मुक़ाबला करना, मगर इस शर्त के साथ कि किसी दुश्मन के मरने पर उस के मुर्दा जिस्म को छत बिछत नहीं किया जा सकता, भागते पर पीछे से वार नहीं किया जा सजता, औरतों, बूढ़ों और बच्चों पर कोई हमला नहीं किया जा सकता। न तो पेड़ों को काटा जा सकता है और न ही घरों को जलाया जा सकता है। अगर इस से अलग हट कर कुछ किया जाए गा तो वह जिहाद नहीं आतंकवाद कहलाएगा।

इस्लामी में जिहाद सर्जन के ऑपरेशन जैसा होता है, जब दवाएं काम नहीं कर पाती तो उस हिस्से को काट कर अलग कर दिया जाता है जिससे जान का ख़तरा होता है। जिहाद इंसानियत को बचाने के लिए होता है न कि ज़ुलम व सितम ढाने के लिए।

इमाम हुसैन ने करबला में जिहादे इस्लामी का बेहतरीन नमूना पेश किया, जब कि सामने वालों ने ज़ुल्म व बरबरियत की हदें ओआर कर दीं। नबी के नवासे ने बेशक़ीमती कुर्बानियां देकर असल इस्लाम को भी बचाया और इंसानियत को भी ताक़त दे दी।

मेहदी अब्बास रिज़वी

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