राजेश सचान

राजेश सचान


देश में कोराना संक्रमितों की संख्या एक लाख दस हजार पार कर गई है। मौजूदा डबलिंग रेट 13 दिन के आधार पर 31 मई तक संक्रमितों की संख्या 2 लाख पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि अभी हम पीक (चरम) पर नहीं पहुंचे हैं। जून-जुलाई में पीक होने की संभावना जताई जा रही है। शुरुआत में महामारी का केंद्र चीन का वुहान था, बाद में यह यूरोपीय व खाड़ी के देशों में शिफ्ट हो गया। इसके बाद इसकी ग्रेविटी का सेंटर अमरीका बना हुआ है। जैसे हालात हैं उसमें अमरीका के बाद भारत के महामारी का प्रमुख केंद्र बनने से इंकार नहीं किया जा सकता है।

महामारी के प्रबल होने के आसन्न खतरे से निपटने के लिए पिछली लापरवाही, गलतियों और कमजोरियों से सबक लेते हुए जिस स्तर की तैयारियों की जरूरत है उसे अगर नजरअंदाज किया गया तो इसकी भारी कीमत देश को खासकर गरीबों को चुकानी पड़ेगी। दरअसल कोविड-19 महामारी के संभावित पीक के वक्त ही देश के तमाम हिस्सों में मलेरिया, टाईफाइड आदि संक्रामक बीमारियां के प्रकोप का भी पीक होता है और इनका ग्रेविटी का केंद्र पिछड़े अंचल होते हैं जैसे उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जनपद है। अगर वक्त रहते इन बीमारियों से भी निपटने का प्रभावी उपाय नहीं किये गए तो इनसे गरीबों की होने वाली मौंतों में तेजी से ईजाफा होगा।

दरअसल संक्रामक बीमारियों के रोकथाम और इससे संक्रमित होने वाले व्यक्तियों के ईलाज के लिए अभी भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक निर्भरता है। प्राईवेट स्वास्थ्य सेवाएं गरीबों की पहुंच के बाहर हैं और सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं कोविड-19 महामारी के लिए एक तरह से आरक्षित कर दी गई हैं। दरअसल लाकडाऊन के वक्त प्रवासी मजदूरों समेत समग्रता में कार्ययोजना के अभाव का खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है। अगर लाकडाऊन के वक्त ही मजदूरों व अन्य लोगों को घरों को भेज दिया गया होता तो अब जिस तरह से महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु जैसे महामारी के प्रमुख केंद्रों से वापस लौट रहे प्रवासी मजदूरों से संक्रमण का खतरा पैदा हुआ है उससे बचा जा सकता था और बेवजह मजदूरों को अपार यातनाओं को न झेलना पड़ता।

भले ही सरकार लाकडाऊन को सफल बतायें, लेकिन सच्चाई यही है कि लाकडाऊन अपने लक्ष्य की पूर्ति में कामयाब नहीं रहा है , सही मायने में लाकडाऊन की अवधि का बेहतर उपयोग करने से हम चूक गए हैं। महामारी के पीक पर पहुंचने के पहले ही लाकडाऊन में रियायतें देना खतरे से खाली नहीं है। भारत में अगर अमरीका, यूरोप आदि देशों से रिकवरी दर अच्छी है तो इससे पीछे स्वास्थ्य संबंधी तैयारियां नहीं बल्कि अन्य वजहें प्रमुख हैं, जैसे यहां बुजुर्गों व गंभीर संक्रमण के मरीजों की संख्या का कम होना तथा अच्छी इम्यूनिटी आदि। फिलहाल जब भारत में अभी पीक आना बाकी है तो अन्य मुल्कों से तुलना करने की बात उचित नहीं है। सरकार चाहे जितनी अच्छी तैयारियों की बात करे लेकिन अभी तक हम 137 करोड़ आबादी में से महज 26 लाख के करीब ही टेस्ट कर पाये हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण में 10 करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूरों की संख्या बताई गई है। वैसे तमाम जानकार प्रवासी मजदूरों की संख्या 15-20 करोड़ के बीच मानते हैं। सरकारी-गैरसरकारी सूचनाओं के आधार पर मालूम होता है कि अभी भी मजदूरों की अच्छी खासी तादाद लाकडाऊन में फंसी हुई है। इन मजदूरों को सुरक्षित भेजने की मांग हर ओर से उठ रही है खासकर सोशल मीडिया में। इन मजदूरों की सुरक्षित वापसी, इनकी समुचित जांच और गांवों में मनरेगा से लेकर रोजगार के हरसंभव उपाय फौरी तौर पर बेहद जरूरी हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री के बहुप्रचारित कोराना पैकेज में गरीबों, मजदूरों व किसानों की समस्याओं के हल के लिए दूरगामी उपाय तो नहीं ही किये गए हैं बल्कि फौरी राहत के उपाय भी नहीं किया गया। उलटे सार्वजनिक संपत्ति को कारपोरेट के हवाले करने की कार्यवाही में तेजी से मौजूदा संकट में और ईजाफा होगा।