मोहम्मद आरिफ नगरामी
कश्मीर की धरती सूफयाए किराम की आमाजगाह रही है। बड़ी तादाद में सूफयाए किराम इस धरती पर तशरीफ लाये और इसलाम का अब्दी पैगाम सुनाया। यही वजह है कि मुस्लिम दौरे हुकूमत में कशमीर का राजा तो हिन्दू रहा लेकिन बेशतर कशमीरी पंडितो ने इस्लाम कबूल कर लिया और इस जन्नत निशां धरती पर इस्लाम के अकीदतमंदो की तादाद बढ़ गयी और आज भी अकसरियत में हैं।

सर डा. मुहम्मद इकबाल का आबाई वतन यही वादिये रश्क बागे जिना है। इक़बाल के आबा व अजदाद कशमीर से जाकर लाहौर के सयालकोट में बस गये थे, इकबाल 9 नवम्बर 1873 को सयालकोट में पैदा हुए थे। इकबाल के आबा व अजदाद सुपरगोत के ब्राह्मण थे, इकबाल के वालिद नूर मोहम्मद ने उनको उर्दू फारसी अरबी और अंग्रेजी की तालीम दिलायी, इकबाल भी स्कूल में पढ़ते ही थे, उनके असली जौहर चमकने लगे और उन्होंने शायरी की तरफ तवज्जो की, इकबाल को मौलाना रूम के अशआर निहायत पसन्द थे। उन्होंने मौलाना रूम को रूहानी उस्ताद मान लिया था और दाग देहलवी को अपना कलाम इस्लाह के लिए दिखाते थे, उनके कलाम की इस्लाह करके दाग देहलवी उनकी हौसला अफजाई करते थे, जब लाहौर सरकारी कालेज में दाखिल हुए तो वहां उनकी मुलाकात एक अंग्रेज प्रोफेसर से हुई जिसने उनके अंदरूनी जौहर को पहचाना और निखारने का अज्म किया।

लाहौर में बड़ी तादाद में मुशायरे होते थे जिसमें उस जमाने के मशहूर शोअरा अपना कलाम सुनाते थे, इकबाल भी उन महफिलों में जाते और अपना कलाम सुनाते। जब इकबाल की उमर बाईस साल की थी, तो लाहौर के एक मुशायरे में उन्होंने एक गजल पढ़ी उस मुशायरे में अपने जमाने के माया नाज शायर मिर्जा अरशद गुडगानी भी मौजूद थे। जो चोटी के शोअरा में शुमार होते थे, जब इकबाल ने ये शेर पढ़ा

मोती समझ के शाने करीमी ने चुन लिए
कतरे जो थे मेरे अरके इन्फियाल के

तो मिर्जा अरशद तड़प उठे और कहने लगे इस उम्र में ये शेर!!

इकबाल ने यूरोप की दानिशगाहों में तालीम हासिल की थी वह जमाना यूरोप के उरूज का था और मुसलमान और उनकी तहजीब जवाल पजीर हो रही थी, खुद हिन्दुस्तान में शानदार मुगलिया हुकूमत का सूरज गुरूब हो चुका था, अंग्रेज पूरे तौर पर हावी हो चुके थे, अहले इस्लाम की तहजीब खत्म हो रही थी, और यूरोप की तहजीब तरक्की के मनाजिल तय करती जा रही थी। इकबाल ने अपने इजहार दर्द व गम के लिए फारसी जुबान का इन्तेखाब किया और फारसी जुबान में उनका आला दरजे का कलाम मंजर आम पर आया, उनका ख्याल था कि पूरी दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने के लिए फारसी जुबान ज्यादा मोअस्सिर है। और जुबान के जरिये ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा जा सकता है। “अस्रारे खूदी”,“रूमूजे बे खूदी”, 1914, 1915 में और पयाम मशरिक 1923 में मंजर आम पर आयीं, ये तीनों किताबें फारसी जुबान में हैं और मुशकिल तरीन हैं। इकबाल ने इन तीनों किताबों में जो फलसफा पेश किया है। वह बहुत कारगर और मुअस्सिर होने के साथ साथ वेदान्त, फल्सफा युनान, फल्सफा इस्लाम के आयना में इन्सानी जिन्दगी ओर इस कायनात के राजहाये सर बस्ता ओर कौमों के उरूज व जवाल की गुत्थी को सुल्झाने की नाकाम कोशिश है। इकबाल जो तारीख से नावाकिफ थे इस लिए वह सदा मुसलमानों के जवाल पर कफे दस्त मलते थे, जब कि तारीख शाहिद है कि इस दुनिया का इक्तेदार और जमामे हुकूमत किसी कौम को मजहब की बुनियाद पर नहीं बल्कि अमल और यकीन मोहकम की बुनियाद पर मिला करती है, जब मुसलमान किरदार के गाजी थे तो इस दुनिया के इक्तेदार उनके कदमों में था, और जब वह अमल से आरी होते गये तो उनकी कामयाबी व कामरानी की देवी रूठ गयी और यूरोप के लिए अपनी बाहें फैला दी।

इकबाल की गजलिया शायरी

इकबाल जब अपनी गजलिया शायरी में हकीकत को मजाज से मिला देते हैं तो कभी मजाज बोल कर हकीकत मुराद लेते हैं तो ऐसी हसीन गजल आलमें वजूद में आती कि फिर उसका जवाब मुम्किन नहीं होता।

तूर पर तूने जो ऐ दीदए मूसा देखा
वही कुछ कैस से देखा पस मोहमल होकर
मेरी हस्ती जो थी मेरी नजर का परदा है
उठ गया बज्म से मैं परदा महफिल होकर
ऐन हस्ती हुआ हस्ती का फना हो जाना
हक दिखाया मुझे इस नुक्ता ने बातिल होकर
खल्क माकूल है महसूस है खालिक ऐ दिल
देख नादा जरा आप से गाफिल होकर

इकबाल की नज़्मों में हुब्बुल वतनी का जज्बा अपने तमाम एहसासात व जज्बात के साथ मोजज़न है। हिमाला, सदाये दर्द, तस्वीर दर्द, आफताब, तराना हिन्दी, नया शवाला, इकबाल की वतन परस्ती की बेहतरीन नज्में हैं।

कब जुबां खोलें हमारी लज्जत गुफ्तार ने
फूंक डाला जब चमन को आतिश पैकार ने

लेकिन इकबाल की शायरी की बद किस्मती उस वक्त से शुरू होती है जब इकबाल ने हिन्दी वतनियत को खैराबाद कह कर उसके बजाये इस्लामी तालीम की तब्लीग शुरू कर दी, यानी मुसलमानों की कौमियत की बुनियाद वतन नहीं बल्कि मजहब है।

निराला सारे जहं से उसको अरब को मेमार ने बनाया?
बना हमारा ही सारे मिल्लत की इत्तेहाद वतन नहीं है।

मायानाज इस्लामी स्कालर हजरत मौलाना हुसैन अहमद मदनी से इकबाल की इस सिलसिले में एक लम्बी बहस चली चूंकि मौलाना हुसैन अहमद मदनी तकसीम हिन्द के मुखालिफ थे जो तकसीम हिन्द की राह हमवार करे। चूंकि अल्लाम इकबाल ने तकसीम की तरफ मसलमानों को मायल करना शुरू कर दिया था, इसलिए मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने इकबाल को आगाह करते हुए कहा कि तकसीम वतन के भयानक नतायज बरआमद होते। आज दुनिया ने देख लिया कि मौलाना हुसैन अहमद मदनी हक पर थे, इकबाल बातिल पर थे, इस वक्त मौलाना हुसैन अहमद मदनी इकबाल को ये बात समझाई थी, कि आंहजरत स.अ.व. के तजदीक कौमियत की बुनियाद मजहब पर नहीं है बल्कि वतनियत पर है। उन्होंने मिसाल पेश की थी कि जब आं हजरत स. को तब्लीग के दौरान तायफ के लोगों ने लहूलुहान कर दिया था तो हजरत जिबरील अमीन आये थे और अर्ज किया था कि अगर हुक्म हो तो दोनों पहोडो को मिला दूं और ये कौम सदा के लिए खत्म हो जाये, आप स. ने फरमाया था कि ये मेरी कौम ले लोग हैं मुऐ पहचानते नहीं, यहां आप स. ने अपनी कौम मजहब की बुनियाद पर नहीं बल्कि वतन की बुनियाद पर कहा है, वरना उस वक्त तक अहले तायफ ने इस्लाम कबूल नहीं किया था, (याद रहे कि तारीख का एक वाकिया ये है कि फातेह सिंध मुहम्मद बिन कासिम सकफी तायफ के ही रहने वाले थे) लेकिन इकबाल बज़िद रहे और मुस्लिम लीग के 1930 के इलाहाबाद इजलास में जिसकी इकबाल ने सदारत की थी नजरिया पाकिस्तान पेश किया और मुस्लिम लीग के दौ कौमी नजरिया की हिमायत कर दी।

अगर चे उनकी जिन्दगी में पाकिस्तान नहीं बन सका और उनका इन्तेकाल गैर मुन्कसिम हिन्दुस्तान में हुआ था, बाद में ये बात साबित हो गयी कि कौमियत मजहब की बुनियाद पर नहीं हो सकती, और पाकिस्तान का एक हिस्सा बंगलादेश जो मशरकी पाकिस्तान कहलाता था मजहब की बुनियाद पर मुत्तहिद नहीं रह सका।

जब इकबाल ने मजहब की तब्लीग को अपना शिआर बना लिया तो उनकी शायरी फन्नी व जज्बाती एतबार से कमजोर पड गयी, यकीनन इकबाल बड़े नहीं बहुत बड़े शायर होते अगर पैगम्बर बनने की कोशिश ने करते थे, आलमी शायरी में उनका बहुत बुलन्द मकाम होता, फिर भी इकबाल उन्नीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर करार पाते हैं। इकबाल नात रसूल के बडे अजीम और मुफक्किर शायर हैं, उनकी नातगोई में हस्सान बिन साबित की वालिहाना अंदाज शायरी की झलक नजर आती है एक तवील नात के दो शेर पेश हैं इस नात का अंदाज गजलिया है।

सरापा हुस्न बन जाता है जिस पर हुस्न का आशिक
भला ऐ दिल ऐसा भी है कोई हसीनों में
फड़क उठा था कोई तेरी आदाये मा अरफना पर
तेरा रूत्बा रहा बढ़ चढ़ सब नाज आफरीनों में

इकबाल को आंहजरत स. से वालिहाना व जज्बाती लगाव था, सहाबा किराम की अजमत व रफअत से बेहद मुतास्सिर थे, बदहाल मुसलमानों की हालतेज़ार से परेशान होकर दरबारे खुदावंदी में शिकायत कर दी कि हमने तेरे पैगाम को आम करने में जो खिदमत अंजाम दी है वह बेलौस थी, न हुकूमत न दौलत न सरवत, ये हमारे चाहत के मतमये नजर नहीं थे।

इकबाल ने बच्चों के लिए बहुत कुछ लिखा है उन्होने बच्चों के लिए जो नज्में रकम की हैं उनका अंदाजे बयान निहायत सादा अल्फाज आसान व आम फहेम हैं, उसके बावजूद लफजियात के आसान होने के बावजूद कहीं भी बात गिरने नहीं पाती।

इकबाल अपनी सदी के सबसे बडे शायर होने के साथ साथ अजीम मुफक्किर है। उन्होने मशरिक व मगरिब के मेखानों से जाम नोश किया था, तहजीब व मजाहिब का मुताला किया था इस्लाम के अजीम स्कालर थे लेकिन यहां मोअर्रिख का कलम थर्रा जाता है कि ऐसा दानिशवर और अजीम इस्लाम के स्कालर ने हिन्दुस्तान की धरती पर दो कौमी नजरिये को कैसे पेश कर दिया जिसकी बुनियाद पर आगे चल कर 1947 वह अल्मिया पेश आया जिसकी वजह से हिन्दुस्तान का जो नुकसान हुआ वह यकीनन नाकाबिले तलाफी है, लेकिन मुसलमानों का जो नुकसान हुआ वह तारीख में कभी भुलाया नहीं जा सकता।