डाॅ0 शिव शंकर त्रिपाठी

‘’शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’
धर्म का प्रमुख साधन शरीर है, यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो हम धर्म (नियमित कार्यों) का पालन सुचारू रूप से नहीं कर सकते हैं अतः शरीर को स्वस्थ रखना परमावश्यक है। इस परम स्वास्थ्य को आयुर्वेद में आरोग्य जीवन कहा गया है और यह आरोग्य जीवन केवल ‘आयुर्वेद’ से ही सम्भव है। अमृतमयी इस आयुर्वेद के जनक भगवान श्री धन्वन्तरि हैं, जिनका प्रार्दुभाव अमृत कलश लिये हुए क्षीर सागर के मन्थन से हुआ, धन्वन्तरि भगवान विष्णु के अंश माने जाते हैं और उनके आशीर्वाद से दूसरे जन्म में काशिराज धन्व के पुत्र के रूप में हुआ और वे दिवोदास धन्वन्तरि के नाम से प्रसिद्ध हुए इनके शिष्यों में सबसे अधिक ख्याति प्राप्त शल्य चिकित्सक आचार्य सुश्रुत थे।

श्री धन्वन्तरि को आयुर्वेद चिकित्सक शास्त्र के उपदेशक तथा दीर्घायु प्राप्त कर जीवन को सार्थक बनाने वाले स्वास्थ्य की रक्षा के उपायों के प्रणेता के रूप में भारत में ही नहीं अपितु सारे विश्व में वैद्य समाज द्वारा भगवान धन्वन्तरि का जन्मोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को इनकी पूजा अर्चना कर हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

हम सभी शरद पूर्णिमा के बाद प्रतिवर्ष कार्तिक मास को कृष्ण पक्ष में स्वास्थ्य और सम्पदा के पर्व रूप में मनाते हैं। इस पक्ष में स्वच्छता का अत्यधिक महत्व माना गया है। हमारे रहने के आवास-निवास साफ धुले-पुते बनाये जाते है। वर्ष भर से एकत्रित कूड़ा-करकट हटाया जाता है। नवीन वस्तुएं वस्त्र, आभूषण, बर्तन, परिधान मिष्ठान खरीदे जाते हैं। यह सब क्यो? इसका कारण है कि भारतीय पौराणिक विश्वास के अनुसार मानव जीवन को सुगम बनाने के लिए सुर और असुरों ने मिलकर सामाजिक विचार मन्थन किया। दोनों ने एकमत से यह तय पाया कि जीवन चलाने के लिए नियंत्रण विधान एवं साधन सम्पन्न्ता अपेक्षित है। साधन प्राप्ति हेतु पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त जलराशि क्षीर सागर को लक्ष्य बनाकर समुद्र मन्थन कर उससे प्राप्त प्रतीकों का प्रयोग जीवन निर्वाह हेतु आरम्भ किया।

समुद्र मन्थन वास्तव में मानव जीवन में किये जाने वाले कर्म का प्रतीक है। व्यक्ति माॅं के गर्भ से उत्पन्न होकर जातक कहा जाता है। कुछ समय माता-पिता के लालन-पालन व पराश्रयी रहकर युवा होते-होते स्वयं विद्या-बल-बुद्धि और कार्य कुशलता से उपार्जित साधनों का प्रयोग करता है। इसी प्रकार समुद्र, हमारे चारों तरफ अनंत वातावरण का प्रतीक है। मन्थन, लक्ष्य निर्धारित कर किये जाने वाला कर्म का प्रतीक है। अतः समुद्र मन्थन से हमें जो प्रेरणा मिलती है उसमें वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार की सम्पदाओं का समावेश होता है।

समुद्र मन्थन से सुर और असुरों ने शाश्वत एवं सनातन जीवन के प्रतीक अमृत को प्राप्त किया। अमृत प्राप्ति का दिन शरद पूर्णिमा के रूप में प्राकृतिक मन को प्रसन्न एवं शीतल चन्द्रमा के धवल प्रकाश में मनाया जाता है इसीलिए ‘‘अमृत क्षीर भोजन’’ की परम्परा शरद पूर्णिमा से जुड़ी है और उसे सौल्लास मनाते हैं।
धन्वन्तरि त्रयोदशी (धनतेरस) को हीं समुद्र मन्थन से धन-धान्य एवं रत्नादि सम्पदा के स्वामी कुबेर का आविर्भाव हुआ अतः दीपदान, मिठाइयाॅं, नूतन वस्त्र, धातु-पात्र, नये बही खाते एवं कलम-दवात की पूजा भी व्यापारी वर्ग करता है। रात्रि देर तक बाजारों में क्रय-विक्रय का मेला चलता है। वास्तव में धन तेरस शारीरिक तथा सामाजिक स्वास्थ्य समृद्धि का पर्व है। ऐसा काल चक्र चला कि हम शारीरिक स्वास्थ्य को भूल गये तथा सामाजिक स्वास्थ्य की प्रधानता के साथ धनतेरस को केवल सम्पदा विनिमय का पर्व मानने लगे। यह सब मुद्रा के मूल्यांकन की महत्ता के समाज में व्याप्त होने से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः धनतेरस सभी के लिए स्वास्थ्य एवं सुख-समृद्धि का पर्व है।

आयुष मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2016 से प्रत्येक वर्ष धनतेरस को मनाई जाने वाली धन्वन्तरि जयन्ती के दिन को ‘राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस’ के रुप में मनाने के लिए घोषणा की।

डाॅ0 शिव शंकर त्रिपाठी
अध्यक्ष, अखिल भारतीय आयुर्वेद विशेषज्ञ सम्मेलन, उत्तर प्रदेश
एवं पूर्व प्रभारी चिकित्साधिकारी (आयुर्वेद)
राजभवन, उ0प्र0, लखनऊ।