ज़ीनत शम्स

फ़ैसल की मां को पता नहीं था कि आज उसका बेटा कोरोना कर्फ्यू में सब्ज़ी बेचने जायेगा तो वह कभी वापस नहीं लौटेगा, उसे पता होता कि परिवार की भूख मिटाने के लिए कुछ कमाने की नीयत से निकला उसका फैसल पुलिस की दरिंदगी का शिकार हो जायेगा तो वह उसे हरगिज़ बाहर न भेजती , वह भूखी मर जाती पर अपने लाल को मौत के मुंह का निवाला न बनने देती। आज भी वह फैसल फैसल चिल्लाती है और बेहोश हो जाती है.

21 मई शुक्रवार का दिन फ़ैसल हुसैन जुमे की नमाज के बाद करीब 2:00 बजे अपने घर से सब्जी बेचने निकला था उन्नाव के बांगरमऊ में छोटी सी मार्केट में फ़ैसल को कुछ पुलिस वालों ने रोका, नाम पूछा और थप्पड़ मारे। कोरोना कर्फ्यू को तोड़ने के जुर्म में थाने ले गए. ज़िंदा! मगर थाने जाकर वह मुर्दा हो गया. उसे अपने गुनाह (कोरोना कर्फ्यू तोड़ने) की सज़ा मौत के रूप में चुकानी पड़ी.

फ़ैसल, जो 6 लोगों के परिवार में अकेला कमाऊ पूत था. बाप बूढ़े और बीमार, मां की आंखों में रोशनी कम और एक भाई जो मानसिक और शारीरिक तौर पर बीमार, एक बहन जो शादी करने लायक, एक नाबालिग छोटा भाई जिसके ऊपर अब परिवार की जिम्मेदारी आन पड़ी है. टूटा फूटा घर है जिसकी छत टपकती हैं, गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाला एक परिवार जिसके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ही जीवन का लक्ष्य हो उनके परिवार का एकमात्र कमाऊ सदस्य पुलिस कस्टडी में बर्बरता का शिकार हो जाय तो आप सोचिये कि उस परिवार पर क्या बीत रही होगी।

फ़ैसल ने कोरोना कर्फ्यू ही तो तोड़ा था, यह कोई ऐसा गुनाह तो न था कि उसकी जान ही ले ली जाय. सरकार ने तो कोरोना महामारी को देखते हुए लॉकडाउन का आदेश दे दिया, ठीक भी था ,कोरोना के मामले बहुत बढ़ गए थे, सरकार की मजबूरी थी. पर मजबूरी तो फ़ैसल की भी थी, उसकी ज़िन्दगी तो रोज़ कुआं खोदो और रोज़ प्यास बुझाओ जैसी थी और उस मजबूरी में वह घर से बाहर कुछ पैसे कमाने निकला तो जिसकी उसे ऐसी सजा मिली कि मानवता भी शर्मसार हो जाय.

उससे भी शर्मनाक बात यह कि उस परिवार को कोई सरकारी मदद भी नहीं मिली और न ही सरकार या सत्ताधारी दल का कोई नुमाइंदा उस परिवार के आंसू पोछने गया. जाता भी कैसे? नाम फ़ैसल जो था! कुछ महीने बाद चुनाव भी हैं। हाँ, सपा की तरफ से ज़रूर उस परिवार की थोड़ी आर्थिक मदद की गयी और आगे भी करने का वादा किया गया. किसी की जान लेने के बाद चंद पुलिस कर्मियों को सस्पेंड या बर्खास्त करना एक ऐसी कार्रवाई लगती है जैसे उस गरीब परिवार पर कोई एहसान किया गया हो.

सरकारी संरक्षण में पुलिसया बर्बरता की यह कोई पहली कहानी नहीं है, सैकड़ों-हज़ारों कथाएं ऐसी मिल जाएँगी आपको। कल ही बस्ती में एक युवक के हाथ में कील इसलिए ठोंक दी गयी कि उसने मास्क नहीं पहना था. यह कैसा तरीका है नियमों के पालन कराने का जिससे इंसानियत तार तार हो रही है. नियमों का पालन करवाने में बर्बरता करने का हक़ किसने दिया।

फ़ैसल तो मर गया, मगर कई सवाल ज़रूर छोड़ गया. क्या अगर वह फ़ैसल न होकर कुछ और होता तब भी उसके साथ ऐसा ही बर्ताव होता?, क्या फ़ैसल की मौत का कोई राजनीतिक रंग भी है? एक सबसे अहम् सवाल फ़ैसल की माँ का है, उसे भरोसा नहीं कि उसे इन्साफ मिलेगा, उसका मानना है कि आरोपी पुलिसवालों की जांच पुलिस ईमानदारी से कैसे करेगी? और सवाल बिल्कुल जायज़ है. वैसे आपको क्या लगता है? फ़ैसल की मौत हुई है या हत्या?