दीवान सुशील पुरी

1919 में जालियांवाला बाग की घटना ने देश के नवयुवकों के अंदर जोश पैदा कर दिया था। उस समय चंद्रशेखर पढ़ाई कर रहे थे, गांधी जी के 1921 के असहयोग आंदोलन में अन्य क्रांतिकारी लोगों की भांति चंद्रशेखर जी भी सड़कों पर उतर आए और गिरफ्तार हो गए। उन्हें 15 बेंतों की सजा मिली थी, उस समय चंद शेखर जी की उम्र 15 या 16 साल की रही होगी। जैसे-जैसे बेंत उन पर पड़ते थे, उसकी चमड़ी उधेड़ जाती थी, फिर भी चंद्रशेखर जी के मुख से “भारत माता की जय“ ही निकलता रहा। उनसे पूछा गया – तुम्हारा नाम क्या है? तो उन्होंने बताया आजाद । आजाद जी तब तक भारत माता की जय बोलते रहे, जब तक बेहोश नहीं हो गए। 5 फरवरी 1922 को चैरी चैरा काण्ड के बाद गाँधी जी ने आंदोलन स्थगित कर दिया। इससे आज़ाद की आस्था गाँधी जी से उठ गयी। चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (सेंट्रल प्रोविंस अब मध्यप्रदेश ) में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके पुरखें बदरका (उन्नाव जिला) बैसवारा से थे। आजाद जी के पिता का नाम सीताराम तिवारी तथा माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद जी के पिता बहुत गरीब थे, 5 रु0 महीने पर माली का कार्य करते थे। वैसे कई लोगों में दुविधा बनी हुई है कि आज़ाद जी का जन्म बदरका (उन्नाव जिला) में हुआ था। जबकि उनका जन्म भाबरा गाँव (सेंट्रल प्रोविंस अब मध्यप्रदेश ) में हुआ था। एक बार आजाद जी ने बाग़ से 5 -6 कच्चे आम तोड़ लिए। उनके पिता जी ने उन्हें बहुत मारा और आजाद जी भाग कर बंबई चले गए। आजाद जी कुछ दिन वहाँ खलासी की नौकरी की, जो भी पैसा मिलता था, उससे दोनों वक्त का भोजन ढाबे पर जाकर कर लेते थे। फिर वहाँ पर पता चला कि बनारस में संस्कृत मुफ्त में पढ़ाई जाती है, तो आजाद जी वहाँ से बनारस आ गए। उस समय बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ था । वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रण्वेश चटर्जी के संपर्क में आए और क्रांतिकारी दल “हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ“ के सदस्य बन गए। कहने को आजाद जी संस्कृत, हिन्दी थोड़ी – थोड़ी जानते थे, अंग्रेजी पढ़ने का उनका मन नहीं था। अंग्रेजी से बड़ी नफरत थी और वह पढ़ना भी नहीं चाहते थे। लेकिन देश की आजादी के लिए उन्होंने अटूट काम किया। उनके अन्दर शक्ति, साहस, और ज्वलन्त देशभक्ति थी। देश की आजादी के लिए उनके अन्दर जज्बा था। बड़े – बड़े देशभक्त उनका लोहा मानते थे और आजाद जी के साथ उनके एक इशारे पर एक्शन करने को तैयार हो जाते थे। क्रांतिकारी दल संगठन के पास धन की कमी होने के कारण कोई ठोस कार्यक्रम नहीं हो पा रहा था, कुछ सदस्य यहां जबरदस्ती रुपया वसूल करने की सोच रहे थे, तो कुछ इसके विरुद्ध थे कि ये एक प्रकार की डकैती होगी। 7 मार्च, 1925 में बिचपुरी तथा 24 मई 1927 को द्वारकापुर में डकैती डाली गई लेकिन कोई विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका था। पूर्व निश्चित रईसों के घर डकैती डाली थी, आजाद जी छत पर से गोली चलाते रहे जिसमें एक किसान की गोली लगने से मृत्यु हो गई थी। इस खबर से सबको आत्मग्लानि सी महसूस हुई थी, फिर तय हुआ कि अब देहात में एक्शन बंद कर दिए जाए। गाजीपुर गंगा के किनारे उदासीन साधुओं का अच्छा खासा मठ था। उसकी आय काफी अच्छी थी। किसी तरह वहाँ के महंथ के साथ क्रांतिकारी राम कृष्ण खत्री जी का परिचय हो गया। कुछ दिन बाद महंथ बीमार हो गया। महंथ जी ने खत्री जी से कहा , आपकी नजरों में कोई सुशील लड़का हो तो बताइयेगा। उसे मैं शिष्य बनाकर जीते जी इस मठ की सारी व्यवस्था उसके सुपुर्द कर देना चाहता हूँ । खत्री जी ने इस बात की चर्चा अपने साथियों से की उनमें चंद्रशेखर आजाद भी थे और वे झट से तैयार हो गए। इस पर उनके साथियों ने कहा आजाद तुम पागल हो गए हो, तुम साधू बनोगे तो यहाँ पार्टी का काम कौन करेगा? सर मुड़वाना पडेगा, दीक्षा लेनी पड़ेगी, गोबर उठाना पड़ेगा और संस्कृत के अलावा गुरुमुखी भी पढ़नी पड़ेगी। आजाद जी ने कहा मैं सब कुछ कर लूँगा, मैं जाति का पंडित हूँ, मुझसे अच्छा शिष्य कौन होगा। कम से कम डकैतियाँ डालने से तो अच्छा ही है। साधू बनकर आसानी से धन प्राप्त किया जा सकता है। मन्मथ नाथ जी ने कहा, महंथ पता नहीं कब मरेगा? अगर उसकी मृत्यु नहीं हुई तो हमारी आगे की सारी योजना चैपट हो जायेगी। कुछ दिन बाद खत्री जी और मन्मथ नाथ जी दोनों गाजीपुर आजाद जी से मिलने गए। थोड़ा एकांत में मिलते ही आजाद जी ने कहना शुरू कर दिया कि महंत तो बिमारी से अच्छा हो गया है। दो किलो दूध रोज पीता है। अभी इसके मरने कि आशा नहीं है । थोड़े दिन बाद आजाद जी बनारस भाग गए। 9 अगस्त, 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया । केवल एकमात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था । उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जाएगा और ऐसा ही हुआ । आजाद जी को तो पकड़ नहीं पाए, परंतु पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर, 1927 तथा उस से 2 दिन पूर्व राजेंद्र नाथ लाहिड़ी जी को 17 दिसंबर, 1927 फांसी पर लटका दिया गया। क्रांतिकारी देश बंधू चितरंजन दास की पत्नी श्रीमती बसंती देवी ने कलकत्ता की विशाल जनसभा में कहा था कि हिन्दुस्तान के नौजवानों ने चूड़ियां पहन ली है। लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में निकल रहे जुलुस पर क्रूर सुप्रींटेंडेंट ए स्काट के आदेश पर लाला जी के सर पर लाठी लगने से मृत्यु हो गयी थी। इसका प्रभाव क्रांतिकारियों पर पड़ा। उन्होनें गलती से जूनियर अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी जबकि ए0 स्काट की हत्या करनी थी। जिसने लाला लाजपत राय पर लाठियाँ बरसा कर मरवाया था। जबकि लाला लाजपत राय नरम दल के थे और क्रांतिकारी गरम दल के थे। उन दिनों उत्तर हिन्दुस्तान में जितने भी क्रन्तिकारी कार्य हुए, उन सभी में किसी न किसी रूप में आजाद जी ने हिस्सा लिया था। चाहे वह केंद्रीय असेम्ब्ली का हो, या लाहौर में जूनियर ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स कि हत्या हो, या काकोरी कांड आदि। क्रांतिकारी इतिहास में यह एक अनोखा उदाहरण है, वह शहीद होने तक कभी पकड़े नहीं गये। 1925 में अधिकांश कार्यकर्ताओं के पकड़े जाने के बाद पार्टी छिन्न भिन्न हो गयी थी। दल की पुनः संगठन की जिम्मेदारी आज़ाद जी पर आ गयी थी और देखते ही देखते उनके नेतृत्व में भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, भगवती चरण वोहरा, दुर्गा भाभी, शिव वर्मा, प्रकाशवती पाल और कई क्रांतिकारियों का सुसंगठित दल बन गया। उस दल का नाम “हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन रखा गया। 6 फरवरी, 1931 को पंडित मोतीलाल नेहरू के देहांत के बाद आजाद जी भेष बदलकर उनकी शव यात्रा में शामिल हुए थे। इलाहाबाद के अल्फर्ड पार्क में जब चंद्र शेखर आजाद जी अपने मित्र के साथ मंत्रणा कर रहे थे तभी सी.आई.डी. का एस.एस.पी. नाट बाबर जीप से वहां पहुंचे, उसके पीछे- पीछे कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गई। दोनों ओर से गोलीबारी होती रही। आजाद जी 27 फरवरी, 1931 को वीरगति को प्राप्त हो गए लेकिन उन्होंने अपनी पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी कि जिन्दा न पकडे जाएँ। वह पिस्तौल क्रांतिकारी दुर्गा भाभी ने उन्हें दी थी। दुर्गा भाभी (पत्नी भगवती चरण वोहरा ) का नाम अपने आप में चर्चित है। वह भगत सिंह की पत्नी बनकर कलकत्ता मेल से अंग्रेजी सरकार का मिशन फेल करने के लिए यात्रा की थी। आज की युवा पीढ़ी दिशा विहीन हो चुकी है। दे डोन्ट नो अबाउट काला पानी पनिशमेन्ट गिवेन बाई दी ब्रिटिशर्स टू दी फ्रीडम फाइटर्स टिल ब्रेथ। ये क्रांतिकारी भी तो माँ के लाल थे। हम लोग जो खुली साँस ले पा रहे हैं इन्हीं की कृपा से ले पा रहे हैं।

(लेखकः “शहीद स्मृति समारोह समिति“के उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष हैं)