जब भी आसमान पर हिलाल ( दूज का चांद ) दिखाइ देता है तो हिजरी साल का कोई महीना शुरू होने का एलान कर जाता है। हिजरी साल का पहला महीना मोहर्रम है, जो ग़म और गिरिया साथ लाता है। यह रोना यूं ही नहीं होता, रोने से ही ज़िन्दगी का पता चलता है।जब बच्चा मां के तन से निकर कर धरती पर आता है तो रो कर अपनी ज़िंदगी का एलान करता है। मालूम हुआ रोना न तो कमज़ोरी है और न ही मायूसी का सबब, बल्कि यह तो सेहत और सलामती की खुली निशानी होता है।

हर नए साल पर लोग मुबारकबाद देते हैं। खुशियां मनाते हैं।पर हिजरी साल के शुरू होने पर ऐसा नहीं किया जाता। जो नहीं जानता उस की बात अलग है मगर, जो मुसलमान जान कर भी ऐसा करते हैं वह नबी का कलमा तो पढ़ते हैं पर नबी के वफ़ादार नहीं हो सकते। जैसे कि करबला में नबी के निवासे और उनके घर वालों पर मुसीबत ढा कर उन्हें भूखा प्यासा शहीद करने वाले मुसलमान ही थे। जिस महीने में नबी के लाल इमाम हुसैन को शहीद कर के क़यामत तक ज़ुल्म की कहानी लिखी गई वह सोग का महीना है, ग़म का महीना है, ग़म में मुबारकबाद नहीं दी जाती, ग़म में शामिल हो कर दुख बटाया जाता है।

बेशक हिजरी साल के महीनों के नाम का (संबंध) ताल्लुक़ इस्लाम से है मगर यह काम नबी-ए करीम मोहम्मद साहब से शुरू नहीं हुआ, बल्कि दुनियाँ के सब से पहले अपने को मुसलमान में शुमार होने की दुआ हज़रत इब्राहीम और उनके बेटे हज़रत इस्माईल ने की थी। इस से ज़ाहिर होता है इस्लाम पहले से था। मगर महीनों के नाम को रायज इन्हीं नबियों के दौर से हुआ।

हिजरी साल तो नबी के मक्का से हिजरत (छोड़ कर) मदीना आने से शुरू हुआ। मगर महीनों के नाम पहले से था। पर साल की गिनती उस तरह से नहीं की जाती थी जैसे आज हम सब करते हैं। जिस साल कोई बड़ी घटना हो जाती थी उसी के नाम से साल चलता रहता था जब तक कि कोई दूसरी घटना न हो जाये, ऐसा होने पर साल का नाम उस घटना से जोड़ दिया जाता था।

रसूल की हिजरत से यह न सिर्फ़ साल मशहूर हुआ बल्कि रसूल ने हर महीने की फ़ज़ीलत ( महत्वम ) भी बताई। जिसमें रमज़ान अल्लाह का महीना, शाबान रसूल का महीना, रजब मौला अली का महीना और रबीहुस सानी बीबी ( रसूल की बेटी जनाबे फ़ातिमा ) का महीना क़रार पाया। वहीं शव्वाल ईद का महीना, ज़िल्हिज्ज् हज और क़ुरबानी का महीना और मोहर्रम नबी के निवासे इमाम हुसैन के सोग का महीना हुआ।

मोहर्रम की चांद रात से ही पूरी दुनियां में हुसैन हुसैन की सदायें बुलंद होने लगती हैं, सोगवारों के घरों में मजलिस का फ़रशे आज बिछ जाती है, औरतें अपने सोहाग की निशानियों को तर्क कर देती हैं, खाने पीने की रवायत भी बदल जाती है, हर कोई जो अपने दिल मे इंसानियत का दर्द रखता है वह अपने मोहसिन हज़रत हुसैन इब्ने अली की कुर्बानियों को अपनी तरह से याद कर के ख़िराजे अक़ीदत ( श्रद्धांजलि ) पेश करने लगता है।

यही वह ग़म है जो दुनियाँ में आता है तो हर तऱफ अपना असर छोड़ जाता है, जब तक दुनियाँ में इंसान और इंसानियत का वजूद बाक़ी रहे गया यह ग़म उनके दिलों में जवान होता रहे गा।

सारे जहां को घेरे हुए है अज़ा – ए शाह,
यह ग़म वह ग़म नहीं है कहीं हो कहीं न हो।

मेहदी अब्बास रिज़वी