–एस आर दारा पुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट
एक समाचार-पत्र के अनुसार इस बार आरएसएस दलितों को जोड़ने के लिए एक बड़ा कार्यक्रम करने जा रहा है। इसके अनुसार पहली बार अंबेडकर जयंती पर देशभर की शाखाओं में फोटो पर पुष्प अर्पित किए जाएंगे। अंबेडकर जयंती यानी 14 अप्रैल को शाखाओं में खासतौर पर डॉ. भीमराव अंबेडकर के उन बयानों के बारे में बताया जाएगा, जिसमें राष्ट्र भक्ति के साथ हिंदुत्व को बल मिलता है। संघ 11 बिंदुओं से अंबेडकर के हिंदुत्व को समझाएगा।
अतः संघ द्वारा डा. अंबेडकर के प्रचारित/प्रसारित किए जाने वाले विचारों/बिंदुओं के सही अथवा गलत होने का विश्लेषण किया जाना जरूरी है। इसी दृष्टि से संघ द्वारा अंबेडकर के हिन्दुत्व को समझाने हेतु चुने गए 11 बिन्दुओं पर टिप्पणी जरूरी है, जो निम्नवत हैं:
टिप्पणी: यह कथन गलत है। अंबेडकर ने संदर्भित पुस्तक में कांग्रेस के मुस्लिम परस्त होने की जगह कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग के साथ प्रथम चुनाव में चुनाव पूर्व वादे के अनुसार सत्ता में हिस्सेदारी न दे कर तथा अकेले सरकार बना कर मुस्लिम लीग को अलगाव में डालने की बात कही है जिससे कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दूरी और अविश्वास बढ़ा और वह पाकिस्तान की मांग की ओर दृढ़ता से बढ़ने लगी।
टिप्पणी: यह बात सही है कि डा. अंबेडकर समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे परंतु इसका व्यापक विरोध होने के कारण वे इस बारे में कुछ कर नहीं पाए। उस समय यह आम राय बनी थी कि इसमें जबरदस्ती करने की बजाए आम सहमति, जब भी संभव हो, बनाई जाए। क्या आरएसएस इस बात को भी बताएगी कि जब डा. अंबेडकर हिन्दू महिलाओं को अधिकार दिलाने वाला हिन्दू कोडबिल लेकर आए थे तो उन्होंने तथा हिन्दू महासभा ने इस बिल का कितना कड़ा विरोध किया था? उन्होंने डा. अंबेडकर को हिन्दू विरोधी तथा अछूत के रूप में हिन्दू परिवारों को तोड़ने वाला कहा था तथा उन्हें जान से मारने की धमकी तक दी गई थी। संविधान सभा में सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा कांग्रेस के हिन्दू सदस्यों के व्यापक विरोध तथा नेहरू द्वारा 1952 के चुनाव के आसन्न होने के कारण इसको पास नहीं कराया गया जिस पर डा. अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। क्या देश में ऐसी कोई उदाहरण है जब किसी मंत्री ने महिलाओं के अधिकारों के लिए इस्तीफा दिया हो? आरएसएस को अपने विरोध के इतिहास को भूल कर केवल मुसलमानों के विरोध की बात नहीं करनी चाहिए। इस संबंध में व्यापक सहमति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। इस बारे में मुस्लिम समाज को भी खुले दिमाग से विचार करना चाहिए।
टिप्पणी: यह बात सही है कि डा. अंबेडकर जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के पक्षधर नहीं थे। अतः उन्होंने संविधान में इस धारा को ड्राफ्ट नहीं किया था। परंतु डा. अंबेडकर हिंदुवादी अखंड राष्ट्रवाद के पक्षधर नहीं थे बल्कि भारत के विभाजन के खिलाफ थे। उनका यह दृढ़ मत था कि हमें प्रयास करके मुस्लिम लीग को स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव होने के डर को निकाल कर पाकिस्तान की मांग छोड़ देने के लिए मनाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए। आज आरएसएस मुसलमानों/ईसाइयों एवं अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव एवं उत्पीड़न की जो नीति अपना रही है क्या यह देश की एकता एवं अखंडता के लिए सही है?
टिप्पणी: डा. अंबेडकर ने कभी भी आरएसएस ब्रांड हिंदुवादी राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया था। उनका राष्ट्रवाद सभी नागरिकों की स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की अवधारणा पर आधारित था परंतु आरएसएस की विचारधारा इसके बिल्कुल विपरीत है। वे किसी भी प्रकार के नस्लीय एवं धार्मिक भेदभाव पर आधारित राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। उन्होंने कहा था, “कुछ लोग कहते हैं कि वे पहले हिन्दू, मुसलमान या सिख हैं और बाद में भारतीय हैं। परंतु मैं शुरू से लेकर आखिर तक भारतीय हूँ।“
टिप्पणी: यह कथन एक दम असत्य है। उन्होंने अपने भाषण में कहीं भी वामपंथ का विरोध नहीं किया था। उन्होंने अपने भाषण में सभी प्रकार के अधिनायकवाद का विरोध किया था चाहे वह सर्वहारा का अधिनायकवाद ही क्यों न हो। डा. अंबेडकर अपने राजनीतिक चिंतन में सोशलिस्ट (समाजवादी) थे। डा. अंबेडकर वास्तव में लिबरल डेमोक्रेट (उदारवादी लोकतांतन्त्रिक) थे। वे स्टेट सोशलिस्म (राजकीय समाजवाद) के प्रबल पक्षधर थे। उनके राजकीय समाजवाद की पक्षधरता की सबसे बड़ी उदाहरण उनके अपने संविधान के मसौदे जो “राज्य एवं अल्पसंख्यक” पुस्तिका के रूप में छपी है, में मिलती है। इसमें उन्होंने सारी कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर सामूहिक खेती की मांग की थी। इसके अतिरिक्त वे बीमा के राष्ट्रीयकरण तथा सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य बीमा के भी पक्षधर थे जबकि आज आरएसएस चालित भाजपा सरकार इन सबके निजीकरण में जुटी हुई है।
टिप्पणी: डा. अंबेडकर पंथ निरपेक्ष नहीं बल्कि धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के पक्षधर थे। डा. अंबेडकर धर्म के राजनीति में प्रवेश के विरोधी थे। वे धर्म को एक निजी विश्वास मानते थे और राज्य के कार्यों से इसे दूर रखने के पक्षधर थे। आरएसएस डा. अंबेडकर को पंथ निरपेक्ष राष्ट्र का पक्षधर बता कर अपनी हिन्दुत्व की राजनीति एवं हिन्दू राष्ट्र की स्थापना को उचित ठहराना चाहती है।
टिप्पणी: यह कथन बिल्कुल असत्य है। बाबासाहेब ने अपनी जीवनी में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है। यह भ्रम बाबासाहेब द्वारा सावरकर के निमंत्रण पत्र के उत्तर में लिखे पत्र को गलत ढंग से पेश करके पैदा किया जा रहा है। अतः पत्र पूरी तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि पाठकों को सावरकरियों की बौद्धिक बेईमानी का पता चल सके। इसमें लिखा था: “अछूतों के लिए रत्नागिरी किले पर मंदिर खोलने के लिए मुझे आमंत्रित करने के लिए आपके पत्र के लिए बहुत धन्यवाद। मुझे बहुत खेद है कि पूर्व व्यस्तता के कारण, मैं आपका निमंत्रण स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं, हालांकि, सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में आप जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के इस अवसर पर मैं आपको अवगत कराना चाहता हूं। जब मैं अछूतों की समस्या को देखता हूं, तो मुझे लगता है कि यह हिंदू समाज के पुनर्गठन के सवाल से गहराई से जुड़ा हुआ है। यदि अछूतों को हिन्दू समाज का अंग होना है तो अस्पृश्यता को दूर करना ही काफी नहीं है, उसके लिए आपको चतुर्वर्ण्य को नष्ट करना होगा। यदि उन्हें अभिन्न अंग नहीं बनना है, यदि उन्हें केवल हिंदू समाज का परिशिष्ट होना है, तो जहां तक मंदिर का संबंध है, अस्पृश्यता बनी रह सकती है। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि आप उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने इसे महसूस किया है। यह कि आप अभी भी चतुर्वर्ण्य के शब्दजाल का उपयोग करते हैं, हालांकि आप इसे योग्यता के आधार पर उचित बताते हैं, दुर्भाग्यपूर्ण है। हालाँकि, मुझे आशा है कि समय के साथ आपमें इस अनावश्यक और शरारती शब्दजाल को छोड़ने का पर्याप्त साहस होगा।“ इससे स्पष्ट है कि इस पत्र में डा. अंबेडकर चतुर्वर्ण को समाप्त करने के बाद ही अछूतों के हिन्दू समाज में समावेश की संभावना व्यक्त करते हैं जबकि सावरकार छुआछूत समाप्त करने हेतु केवल मंदिर प्रवेश की बात करते हैं। इससे स्पष्ट है कि अछूत समस्या के बारे में दोनों के नजरिए एवं कार्यनीति में जमीन आसमान का अंतर है।
टिप्पणी: यह कथन बिल्कुल गलत है क्योंकि जातिगत भेदभाव मिटाने के मसले पर संघ और अंबेडकर के विचार पूरी तरह से भिन्न हैं। बाबासाहेब जाति विनाश के पक्षधर थे जबकि संघ जातियों को नष्ट नहीं बल्कि जाति समरसता (यथास्थिति ) का पक्षधर है। संघ मनुस्मृति को हिंदुओं का पवित्र ग्रंथ मानता है जबकि बाबासाहेब इसे घोर दलित विरोधी ग्रंथ मानते थे। इसी लिए उन्होंने 25 दिसंबर, 1927 को इसका सार्वजनिक दहन भी किया था। संघ जातिव्यवस्था को कायम रखते हुए हिन्दुत्व (हिन्दू राजनीतिक विचारधारा) के माध्यम से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में जी जान से लगा हुआ है जबकि बाबासाहेब हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के कट्टर विरोधी थे। वास्तव में, डॉ. अम्बेडकर 1940 में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि “यदि हिंदू राज एक सच्चाई बन जाता है, तो निस्संदेह, यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी… [यह] स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है। इस हिसाब से यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।“
टिप्पणी: इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबासाहेब भारतीय संस्कृति पर पूरा विश्वास रखते थे परंतु वह संस्कृति आरएसएस द्वारा परिभाषित संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। आरएसएस भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में परिभाषित करता है जबकि भारतीय संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। इससे में हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, पारसी आदि संस्कृतियों का समुच्चय है। आरएसएस हिन्दू संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से श्रेष्ठ मानता है।
टिप्पणी: यह सही है कि बाबासाहेब इस्लाम और इसाइयत को विदेशी धर्म मानते थे परंतु उन्होंने इन धर्मों को कभी भी हेय दृष्टि से नहीं देखा। यह अलग बात है कि उन्होंने भारत में इन धर्मों में व्याप्त बुराइयों जैसे जातिभेद आदि की आलोचना की, उसे हिन्दू धर्म की छूत माना और उन्हें उन धर्मों को मूल भवना के अनुसार सुधार करने के लिए भी कहा। बौद्ध धर्म को अपनाने में भी उन्होंने राष्ट्रहित को ही ऊपर रखा था।
टिप्पणी: यह बात सही है कि बाबासाहेब ने “शूद्र कौन और कैसे” पुस्तक में कहा है कि आर्य लोग भारतीय मूल के थे। उनका यह अध्ययन उस समय तक उपलब्ध जानकारी पर आधारित था। परंतु इसके बाद विभिन्न नस्लों के डीएनए के अध्ययन से पाया गया है कि आर्य जाति का डीएनए ईरान और अन्य यूरपीय नस्लों से मिलता है जो निश्चित तौर पर मध्य एशिया से आए थे।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आरएसएस द्वारा 14 अप्रैल से चलाया जाने वाला बौद्धिक कार्यक्रम डा. अंबेडकर के विचारों को गलत ढंग से अपने पक्ष में दिखा कर उन्हें हिन्दुत्व के पक्षधर के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास है जबकि डा. अंबेडकर और संघ की विचारधारा में जमीन आसमान का अंतर है।
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