दिनकर कपूर, प्रदेश महासचिव, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट, उत्तर प्रदेश

जन राजनीति को देश के पैमाने पर खड़ा करने के लिए ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट पिछले लम्बे समय से राष्ट्रीय राजनीति में प्रयास कर रहा है। इसी दिशा में एआईपीएफ का राष्ट्रीय अधिवेशन 7-8 दिसंबर 2025 को नई दिल्ली के सुरजीत भवन में आयोजित किया जा रहा है। अधिवेशन की तैयारी में उड़ीसा, झारखंड, महाराष्ट्र, हरियाणा आदि राज्यों में दौरे कर वहां चल रहे विभिन्न संगठनों और आंदोलनों के लोगों से सम्पर्क किया गया है। दिल्ली में भी एक टीम ने जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों, प्रबुद्ध नागरिकों, पत्रकारों, अधिवक्ताओं और समाज सरोकारी लोगों से अधिवेशन के संदर्भ में संवाद किया है। अधिवेशन के प्रमुख सवालों संविधान की रक्षा, आजीविका और सामाजिक अधिकार, समावेशी राष्ट्रवाद और जन लोकतंत्र के प्रति लोगों में गहरी रुचि दिखाई दे रही है। दरअसल यह सवाल आज भारतीय राजनीति में सबसे केंद्रीय विषय के बतौर मौजूद है।

देश में संविधान पर खतरे को लोग गहराई से महसूस कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत से दूर रखने में इस सवाल ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित न्याय के सिद्धांत, बंधुत्व, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, संप्रभुता, संघवाद, एकता और अखंडता, विचार की अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, समता, व्यक्ति की गरिमा आदि सब पर आरएसएस-बीजेपी की सरकार ने पिछले 11 सालों में लगातार हमले किए हैं। इनकी तो पूरी कोशिश संविधान को बदलने की है, जिसे इनके नेता कई बार कह भी चुके हैं। वास्तव में भाजपा-आरएसएस शुरू से ही संविधान की मूल प्रस्तावना के विरुद्ध रहा है और संघवाद से लेकर एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का विरोध करता रहा है। इसलिए संविधान की रक्षा के प्रश्न को सम्मेलन में पहला सवाल बनाया गया है।

जहां तक आजीविका की बात है पूरा देश जानता है कि इस समय जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है, बेरोजगारी है, खेती किसानी बर्बाद होती जा रही है और नोटबंदी व जीएसटी ने छोटे मझोले उद्योग धंधों के ऊपर हमला किया है, उसने आम आदमी की आजीविका के सामने गहरा संकट पैदा किया है। खुद तमाम रिपोर्टों में यह बात आई है कि भारतवर्ष की 100 करोड़ आबादी उपभोक्ता बाजार से बाहर है और उसकी क्रय शक्ति में लगातार गिरावट हुई है। देश में असमानता आजादी के पूर्व के भारत से भी ज्यादा हो गई है। देश के 1 प्रतिशत बड़े पूंजी घरानों के पास देश की 40 प्रतिशत से ज्यादा सम्पत्ति है।

अभी यूके के साथ किए समझौते में भी खेती किसानी, पशुपालक समाज और उद्योग धंधों के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। अमेरिका भी टैरिफ के जरिए फर्मासिटिकल, टेक्सटाइल, चमड़ा, डेयरी, कृषि, कंप्यूटर, स्टील, अलुमिनियम आदि क्षेत्रों में अपने दखल के लिए दबाव बना रहा है। जिस तरह से भारत सरकार ने अमेरिका के साथ रणनीतिक समझौता किया हुआ है और अमेरिकी केन्द्र से अपने को जोड़ लिया है। लोगों की शंका है कि वह इन क्षेत्रों में भी अमेरिका के सामने समर्पण कर देगी। यह आने वाले समय में पहले से ही मौजूद रोजगार और आजीविका के संकट को बढ़ाने का ही काम करेगा। साथ ही हमारी आर्थिक सम्प्रभुता के लिए बेहद खतरनाक साबित होगा।

कोविड महामारी के बाद तमाम राज्य सरकारों ने कानून लाकर काम के घंटे 12 कर दिए हैं और मजदूरी की दर लगातार कम की जा रही है। केंद्र सरकार ने 2017 में न्यूनतम मजदूरी का वेज रिवीजन किया था जो कानूनन 5 साल के बाद 2022 में हो जाना चाहिए था, जिसे अभी तक नहीं किया गया। मजदूरी दर के कम होने से इस भीषण महंगाई में आम आदमी के लिए अपने परिवार की जीविका चलाना बेहद कठिन होता जा रहा है। देश में एक करोड़ सरकारी विभागों में पद खाली पड़े हुए हैं। छात्रों-नौजवानों के बार-बार आंदोलन के बावजूद इन्हें भरने पर सरकारों का ध्यान नहीं है। बल्कि हो यह रहा है कि डाउनसाइजिंग के नाम पर सरकारी विभागों में जो पद खाली पड़े हुए हैं, उन्हें बड़े पैमाने पर खत्म किया गया है। बेहद कम मजदूरी पर ठेका/संविदा पर काम कराना परिपाटी बन गई है। अब तो लाए गए नए लेबर कोड में इससे भी बदतर फिक्सड टर्म इम्पलायमेंट की श्रेणी ला दी गई है, जिसमें मजदूरों को कोई भी सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी। लेटरल एंट्री वगैरा के जरिए उच्च पदों पर कॉरपोरेट घराने के लोगों को नियुक्त करने की बात भी सामने आती रहती है। दिल्ली चुनाव के समय आठवें वेतन आयोग की केंद्र सरकार द्वारा की गई घोषणा पर 7 महीने बीतने के बाद भी अमल नहीं हुआ।

समाज में अभी भी पहचान आधारित भेदभाव के शिकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अति पिछड़ा वर्ग, पसमांदा मुसलमान और महिलाओं जैसे तबकों के अधिकारों का हनन जारी है। अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए बजट में सब प्लान जरूर लाया जाता है। लेकिन इसका बड़ा हिस्सा कॉर्पोरेट घरानों के लिए चलाई गई योजनाओं पर खर्च किया जा रहा है। शिक्षा जैसे बेहद जरूरी मद में कुल बजट का बहुत ही कम हिस्सा खर्च किया जाता है। उसमें भी उच्च शिक्षा, रिसर्च जैसी मदों पर तो बजट घटा ही दिया गया है। महिलाओं के संदर्भ में देखें तो नाइट शिफ्ट में काम करने पर रोक जैसे जो कानूनी संरक्षण उन्हें हासिल थे वह भी उनसे छीन लिए गए है। आए दिन वे शारीरिक एवं सामाजिक हमलों का शिकार होती हैं। अति पिछड़ा समाज प्रतिनिधित्व से वंचित है, उसके लिए 2017 में बने जस्टिस रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट जो 2023 में केंद्र सरकार के पास पहुंच गई थी, को भी मोदी सरकार ने संसद के पटल पर नहीं रखा है। यदि यह रिपोर्ट सामने आए तो अन्य पिछड़ा वर्ग में से अति पिछड़े समुदाय के आरक्षण कोटे को अलग करने की लोकतांत्रिक मांग को पूरा किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में देखें तो आदिवासियों के बहुततेरे तबके जैसे कोल, धांगर आदि को आज भी अनुसूचित जनजाति की सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है। इन सभी तबकों के विकास के लिए बजट में विशेष सब प्लान और इनके शिक्षा, न्यायापालिका, मीडिया, सरकारी नौकरियां और सभी प्रशासनिक तंत्रों एवं निजी क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व जैसे सामाजिक अधिकारों की बात एआईपीएफ के प्रस्तावित नीति लक्ष्य में पुरजोर तरीके से उठाई गई है।

भारतीय जनता पार्टी और संघ के लोग अपने को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी कहते हैं। जबकि उनका राष्ट्रवाद यूरोप की विदेशी अवधारणा पर आधारित है। जो भारतवर्ष में दो राष्ट्र की अवधारणा का बुनियादी आधार बना। वह अल्पसंख्यक विरोध और पाकिस्तान विरोध की अवधारणा पर चलते हुए एक सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को देश में थोपने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि इसके बरअक्स भारत का राष्ट्रवाद आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में साम्राज्यवाद के विरुद्ध बना है। यह राष्ट्रवाद समावेशी है, इसमें समाज के हर तबके की गरिमा और हिस्सेदारी है और वैमनस्य व घृणा नहीं बल्कि मैत्रीभाव इसका मूल सिद्धांत है। अमेरिकी साम्राज्यवाद का जिस तरह का हमला भारत के ऊपर किया जा रहा है उसके विरुद्ध समावेशी राष्ट्रवाद ही भारत की संप्रभुता की रक्षा कर सकता है। इस देश से प्यार करने वाले हर नागरिक के लिए आज कॉर्पोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के विरूद्ध देश के लोगों समेत पड़ोस के सभी देशों के साथ मैत्रीभाव निर्मित करना वक्त की जरूरत है।

आजादी के बाद हमें राजनीतिक लोकतंत्र को मिला था। उसी समय डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था कि यदि हम सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं दे पाए तो राजनीतिक लोकतंत्र को भी बचाए रखना बेहद मुश्किल है। इस समय देश में अधिनायकवाद का दौर चल रहा है। एसआईआर और तमाम प्रक्रियाओं के जरिए जो एक वोट तक का अधिकार हर नागरिक को हासिल था उसे भी छीन लेने की येन केन प्रकारेन कोशिश हो रही है। जो भी लोकतांत्रिक संस्थाएं आजादी के बाद निर्मित की गई थीं उनकी स्वायत्तता पर हमला किया गया है जिससे उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ गई है। इसलिए जन लोकतंत्र जिसमें राजनीतिक लोकतंत्र की रक्षा के साथ साथ सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को सुनिश्चित करना ही देश के हर नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी कर सकता है। इसीलिए एआईपीएफ ने अधिवेशन में अपने संविधान में प्रस्तावित राजनीतिक अवधारणा के बतौर जन लोकतंत्र, आजीविका और समावेशी राष्ट्रवाद को भी अपना वैचारिक आधार घोषित किया है।

एआईपीएफ ने संगठन के स्तर पर भी भारतीय राजनीति में एक अभिनव प्रयोग किया है। पहली बार किसी राजनीतिक दल ने अपने संविधान में पार्टी के मूलभूत सिद्धांत से सहमति रखते हुए संगठन के अंदर विरोध पक्ष बनाने की अनुमति दी है। यहीं नहीं निचली कमेटी को सांगठनिक स्वायत्तता दी है और ऊपरी कमेटी की भूमिका अधिक से अधिक सुझावमूलक रखी है। एआईपीएफ ने संविधान में नौकरशाही और व्यक्तिवाद की प्रवृत्तियों से निपटने के लिए उच्च कमेटी से लेकर निचली कमेटी तक सांगठनिक ढांचे को इस तरह संयोजित किया है जो क्षैतिज है और अल्पमत को भी व्यवहार की छूट दी है। कहा गया है कि भारतीय समाज की क्षेत्रीय, भाषाई तथा अन्य सामाजिक विविधताओं के परिपेक्ष्य में भी यह सांगठनिक व्यवस्था अपेक्षित है। एआईपीएफ संविधान में विभिन्न तरीकों से जन राजनीति के लिए काम करने वाले संगठनों, समूहों को अपनी स्वायत्तता को बरकरार रखते हुए एआईपीएफ का हिस्सा बनने का प्रावधान किया गया है। उम्मीद है कि भारतीय राजनीति में एआईपीएफ का चीथा राष्ट्रीय अधिवेशन एक मील का पत्थर साबित होगा।