एशिया के तेल बाजार में भारी उथल पुथल मची हुई है। इसमें गेम चेंजर के तौर पर देखे जा रहे हैं दो देश- भारत और चीन। भारत और चीन के रिफाइनरों ने जापान जैसे बड़े खिलाड़ियों के करीब-करीब एकाधिकार वाले इस बाजार में सेंध लगा दी है और अमेरिका जैसे सबसे बड़े ऑयल कंज्यूमर को भी चुनौती दे कर रख दी है।

तेल कंपनियां ने भारत और चीन के बाजार को ध्यान में रखते हुए न सिर्फ ट्रेडिंग के नियम बदले हैं बल्कि पेमेंट और कारोबारी डील संबंधी पुरातन तरीकों में भी आमूलचूल बदलाव करने की ओर अग्रसर दिखाई दे रही हैं।

चीन और भारत की दुनिया के तेल बाजार में कुल हिस्सेदादरी 1990 से लेकर अब तक 16 फीसदी तक बढ़ चुकी है। यह तीन गुना बढ़ी है। अमेरिका का इस बाजार में हिस्सा करीब 20 फीसदी था और ऐसे में चीन और भारत की हिस्सेदारी का इस आंकड़े (16 फीसदी) तक पहुंचना एक प्रकार से बतौर कंज्यूमर बाजार के एकाधिकार में सेंध लगाना है। ऐसे में तेल कंपनियां भी चीन और भारत की डिमांड के मांग और जरूरतों के मुताबिक, कारोबार के नियमों में फेरबदल कर रही हैं। इन क्षेत्रों में पहले कई देश लॉन्ग टर्म डील किया करते थे लेकिन अब तेल कंपनियां इन दोनों देशों की मांग के मुताबिक कैश कार्गोज़ भी ले रही हैं और लॉन्ग टर्म डील कम कर रही हैं।

पहले एशिया के बड़े तेल खरीददार जापान से थे। ये तेल कंपनियां ग्लोबल डिमांड के 10 फीसदी हिस्सा हुआ करती थीं। ये लॉन्ग टर्म कॉन्ट्रैक्ट किया करते थे। लेकिन अब चीन और भारत ने चूंकि एशियाई बाजार में महती भूमिका निभानी शुरू कर दी है, तब ये कंपनियां स्पॉट बेसिस ट्रेडिंग पर ज्यादा जोर दे रही हैं। इन कंपनियां की प्राथमिकता है कीमत और सुनिश्चित शिपमेंट शेड्यूल को लेकर डिलिवरी संबंधी लचीलापन।