डाॅ. इन्दु सुभाष

10 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। भारत में पुरूष को आज मानव में नहीं गिना जाता है। क्या पुरूष मानवाधिकार के दायरे में नहीं आता है? यदि आता तो आज महिला कानूनों के दुरूपयोग के कारण, महिला से दोगुना संख्या में आत्महत्या कर रहे पुरूषों के पक्ष में मानवाधिकार आयोग झूठा मुकदमा लिखाने वाली महिलाओं के खिलाफ कार्यवाही करता। मानवाधिकार आयोग को महिला उत्पीड़न की 17479 षिकायतें मिली जिनमें उन्होंने 14800 मामले निस्तारित किये। किन्तु इस निस्तारण में  कितने प्रतिशत मामले झूठे पाये गये और उन पर क्या कार्यवाही की गई इस पर सब मौन क्यों है? एक आंकड़े के अनुसार दहेज के 99 प्रतिशत व रेप के 73 प्रतिशत मामले झूठे पाये जाते हैं। जाहिर है कि पूरी जांच के बाद महिला द्वारा पुरूष पर झूठा मुकदमा दर्ज कराना पुरूष उत्पीड़न की श्रेणी में आता है। ताजुब्ब है कि मानवाधिकार आयोग को विगत तीन वर्षों में क्या एक भी मामला पुरूष उत्पीड़न का नहीं मिला? प्रति वर्ष लगभग 64000 पुरूष आत्महत्या कर रहे हैं। इनमें से कई लोंगों ने मानवाधिकार आयोग में षिकायत की मगर उनके आंकड़े तक शामिल नहीं किये गये। क्या मानवाधिकार स्वयं लिंगभेद के आधार पर कार्य करके महिला आयोग की तरह कार्य करेगा?

मानवाधिकार आयोग को असीम ताकत प्राप्त है। ये महिला आयोग की तरह लिंगभेद के दायरे में नहीं बंधा है। विगत कुछ वर्षाें में जिस तरह सोये पडे चुनाव आयोग, केन्द्रीय सतर्कता आयोग आदि ने अपना वजूद दिखाया है उसी तरह मानवाधिकार आयोग को अपनी शक्तियों का इस्तेमाल जन कल्याण विशेषकर पुरुषों के लिये करना चाहिये, क्योंकि महिलाओं के लिये महिला आयोग न सिर्फ उनके कल्याण मे लगा है बल्कि पुरुष विरोधी  कार्य करने और संविधान विरुद्व लिंग-भेद आधारित कानून तक बनवाने में लगा हुआ है।  

सन् 2005 सितम्बर में विवाहित महिलाओं को मायके की पुश्तैनी सम्पत्ति तक में भाई के बराबर हिस्सा दिया गया। यहां तक कि मृतक आश्रित के रूप में विवाहित पुत्री को नौकरी तक अधिकार दिया जा रहा है। सरकारी नौकरी में महिला को कम अंक होने पर भी वरीयता दी जा रही है। अब जबकि नौकरी और सम्पत्ति अधिकार के मामले में महिला पुरूष बराबर है तो लिंग भेद के आधार पर पुरूष की आय व सम्पत्ति में महिला का दखल क्यों? खासतौर से जब पत्नी पति की गृहस्थी में नहीं रहती और मायके में रहकर भी नौकरी नहीं करती है तो उसे मुफ्त का गुजारा भत्ता क्यों? क्या ये पुरूष का मानवाधिकार हनन नहीं हैं? पति की सम्पत्ति में पत्नी को हिस्सा लेकिन पत्नी की सम्पत्ति में पति का हिस्सा नहीं क्यों?

आज महिला सशक्तिकरण कानून तो सिर्फ बहाना है बल्कि इसके नाम पर महिला को निरंकुश शासन सौंपा जा रहा है। सारी सरकार और न्याय व्यवस्था इनके आगे नतमस्तक हो चुकी है। आबादी में मात्र 1 प्रतिशत के अंतर को ऐसा पेश किया जा रहा है, मानों महिला कोई विलुप्त प्रजाति है। महिला संरक्षण के नाम पर प्रतिवर्ष रू0 98,000 करोड़ से कहीं ज्यादा का बजट है जबकि पुरूष  सुरक्षा के नाम पर 1 रूपया भी नहीं, जबकि पुरूष आत्महत्या की दर महिला से दो गुनी है।

वैवाहिक बलात्कार – ‘‘विवाह’’, संतानोत्पत्ति के लिये न सिर्फ स्त्री-पुरुष बल्कि उसके पूरे परिवार और समाज की सहमति होती है, उसे भी महिला संगठनों की माॅंग पर ‘‘वैवाहिक बलात्कार‘‘ नाम से अपराध बनाये जाने का कुचक्र चलाया जा रहा है।  यह कानून, जिसे केन्द्र सरकार नकार चुकी है, उसे कुछ एक मंत्रियों से मिलकर फिर से पास कराने की कोशिश की जा रही है। यह कानून पास होते ही सारे मामले दहेज की बजाय ‘‘वैवाहिक बलात्कार’’ में दर्ज होंगे और भारत देश रेपिस्टों का देश कहलायेगा। जाहिर है इसका कोई गवाह भी नहीं होगा क्यों बन्द कमरे में कौन गवाह होगा और महिला के बयान को सबूत माना जाएगा।  सरकार घुमा-फिरा कर क्यों काम कर रही है? सीधे-सीधे एक कानून पास कर दे कि महिला जो चाहेगी वही होगा। पुरूषों की औकात सिर्फ बैल की है जो अपनी ताकत केवल महिला तुष्टिकरण के लिए कमाये, लगाये तभी जियेे। संतान उत्पत्ति के लिए इन्हें सिर्फ कुछ स्मार्ट सांड चाहिए। 98 प्रतिषत पुरूष वर्ग भी बैल हो चुका है और बैल को पुनः सांड नहीं बनाया जा सकता।  

एसिड अटैक कानून लिंग भेद रहित है किन्तु सरकार ऐसे प्रचारित करती है कि महिला पर ही ऐसिड अटैक करना जुर्म है। यही कारण है कि ऐसिड अटैक से पीडि़त पुरूष को कोर्ट का सहारा लेना पड़ता है। बड़े अधिकारी इनको मंच पर नहीं लाते और इनके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं। इस लिंग भेद पर मानवाधिकार आयोग चुप क्यों?

पुलिस थानों में मानवाधिकार लिखे होने के बावजूद भी उनका पालन नहीं होता है। कोर्ट द्वारा समय-समय निर्धारित गिरफ्तारी की प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता। यहां तक कि पुलिसवालों को भी कोर्ट के आदेशों की जानकारी तक नहीं होती। महिला कानून की आड़ में पति और उसके परिवार का जमकर आर्थिक शोषण किया जाता है। इसीलिए मानवाधिकार आयोग में सबसे ज्यादा शिकायतें पुलिस उत्पीड़न की होती हैं।

महिलाओं का पक्ष रखने और महिला सुरक्षा के नाम पर, पुरूष उत्पीड़न के लिए नित नए कानून बनाने के लिए महिला आयोग कार्य करता आ रहा है। जबकि पुरूष की बात तक सुनने वाला कोई नहीं हैं। सभी मिलकर पुरूष का उत्पीड़न कर रहे हैं। पुरूष के पास ऐसी स्थिति में एक मात्र विकल्प मानवाधिकार आयोग ही बचता है। किन्तु इस गंभीर पुरूष उत्पीड़न पर मानवाधिकार आयोग भी चुप क्यों है? पुरूष विरोधी कानून बनते समय मानवाधिकार आयोग उसका विरोध क्यों नहीं करता?  इन्ही समस्याओं पर आज यह कार्यशाला आयोजित की गई और मानवाधिकार आयोग को उसका हनुमान बल याद दिलाया गया जो लिंग भेद के सागर को पार कर न्याय करने की क्षमता रखता है।