लखनऊ। हिंदु राष्ट्र की बात करके तरक्की नहीं की जा सकती। झूठी बातें फैलाकर अलगाव पैदा किया जाता है। इतिहास की सच्चाई को छिपा दिया जाता है। अगर इतिहास पर गौर करें तो तमाम हिंदु शासकों ने हिंदु राज्यों पर हमले किए तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर किसी मुस्लिम शासक ने हिंदु राज्य पर आक्रमण किया तो हल्ला मच जाता है। हिंदु-हिंदु लड़ें तो कोई बात नहीं, हिंदु और मुस्लिम लड़ें तो सांप्रदायिक हिंसा का रूप क्यों ले लेता है। सोमवार को हिन्दी संस्थान परिसर स्थित यशपाल सभागार में सांप्रदायिक सद्भाव सोसाइटी की ओर से आयोजित कांफ्रेंस में ‘देश में सांप्रदायिकता की स्थिति, उत्तर प्रदेश के विशेष संदर्भ में’ विषय पर जस्टिस राजिंदर सच्चर ने यह बातें कहीं। 

उन्होंने कहा कि किसी भी तानाशाही और शातिराना चालों का मुकाबला करने के लिए एक होकर लड़ना होगा। बीफ की बात बहुत जोरशोर से हो रही है, जबकि बीफ का सबसे ज्यादा निर्यात यूपी से होता है और इसके ज्यादातर संचालक हिंदू हैं। बीफ के मुद्दे को किसी मजहब से जोड़ना गलत है। ‘खुदी को कर बुलंद इतना…’ शेर पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि वाहियात सरकारों और सोच से मुकाबला करें, खामोश न बैठें। यह हिन्दु स्टेट नहीं, उनकी जागीर नहीं। पूर्व राज्यसभा सदस्य मो. अदीब ने दंगों के सवाल पर कहा कि हिन्दुस्तान की जमीन ने अपना दामन खुला रखा। लोग आए और पनाह लेते गए। अंग्रेज आए तो लोगों को दो वर्गों में बांट दिया, फिर दंगों की शुरुआत होने लगी। 1923 में जब लोकतांत्रिक सरकार की बात उठी तो लोग दो धड़ों में बंट गए, फसाद हुए। 1947 में देश आजाद हुआ तो विभाजन हुआ। इसने मुल्क के दो टुकड़े किए, 1992 में बाबरी ध्वंस के बाद लोगों के दिलों को काटा गया।

मुख्य वक्ता इरफान इंजीनियर ने चुनौतियों पर चर्चा करते हुए कहा कि वाजपेयी सरकार में भी इतना खतना नहीं था, जितना कि आज मंडरा रहा है। इस खतरे को देखते हुए आज जिस तरह इकट्ठा हुए हैं, उसी एकजुटता और इस बहस को आगे ले जाने की जरूरत है। पिछले डेढ़ सालों में सांप्रदायिक आवाजें ज्यादा बुलंद हुई हैं। ये आवाजें खुद को आजाद महसूस कर रही हैं। ऐसे लोग अनाप-शनाप बके जा रहे हैं। इस पर पूरे समाज, खासतौर से सरकार की चुप्पी है, जो बहुत व्यवधान उत्पन्न कर रही है। अब तो नाथूराम गोडसे का बलिदान दिवस और मंदिर बनाने की कोशिश हो रही है। राष्ट्रपिता की हत्या को वध करार दिया जा रहा है। इस तरह के बयान बेचैन कर देते हैं। देश के 300 से ज्यादा लेखकों ने अवार्ड वापस करने शुरू किए तो इसे भी राजनीतिक चाल बताया गया। पिछले डेढ़ साल में बने माहौल को तोड़ने की जरूरत है।

प्रो. राम पुनियानी ने चुनौतियों से मुकाबला करने की बात कहते हुए बताया कि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर बहुत बड़ा संकट मंडरा रहा है। ऐसे हालात से निपटने के लिए मानवतावादी सोच को समाज तक ले जाने की जरूरत है। धर्म की राजनीति करने वाले नागरिक अधिकारों की बात नहीं करते हैं, जबकि धर्म की भूमिका सिर्फ नैतिक रास्ता दिखाने की होनी चाहिए। पिछले डेढ़ सालों के हालात में जो घुटन महसूस हो रही है, उसमें थोड़ी राहत बिहार चुनाव ने दी है। लेखकों की हत्याएं, खाने पर प्रतिबंध, उलटे बयानों ने हालात बिगाड़े हैं। जब राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति तथा अन्य लोग सहिष्णुता की बात कहते हैं तो उसे ठीक कह दिया जाता है, लेकिन यही बात जब शाहरूख खान कहते हैं तो उन्हें पाकिस्तानी कहा जाता है। अगर देश का शासक चाहे तो तथाकथित साधु-साध्वी को पूरी सजा मिल सकती है, लेकिन शासक वह बात बोलता है, जिसकी जरूरत नहीं होती है।

सीबी त्रिपाठी ने कहा कि बिहार चुनाव ने साबित कर दिया है कि भारतीय जनता सही सलामत है। गोमाता की रक्षा ढोंग और राजनीतिक कुचक्र है। अरुण सिन्हा ने कहा कि देश दुनिया में बहुत ज्यादा माहौल खराब है। इसे सुधारने का तरीका जानना जरूरी है। बहच्चों में नैतिक और आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। अध्यक्षता कर रहे सोसाइटी फार कम्युनल हार्मनी के उपाध्यक्ष चंद्रभान त्रिपाठी ने संस्था की स्थापना और उसके उद्देश्य पर प्रकाश डाला। विषय पर शैक्षिक संदर्भ में, दंगे, राजनीतिक एवं आर्थिक संदर्भ में, विधि एवं मानवाधिकार संदर्भ में, मीडिया संदर्भ में भी अलग-अलग सत्रों में चर्चा हुई। वीके त्रिपाठी ने संचालन किया। इस मौके पर वीरेंद्र यादव. प्रो. रमेश दीक्षित, अनीस अंसारी, नसीम साकेती, वंदना मिश्रा, ताहिरा हसन, राम किशोर, दाऊजी गुप्त, शाहनवाज आलम, महेश चंद्र देवा, राजेश कुमार आदि उपस्थित रहे।