मोबाइल इंटरनेट और ब्रॉडबैंड की पहुंच बढ़ाने की वैश्विक दौड़ में ऐसा लगता है कि भारत पिछड़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने 189 देशों को शामिल करते हुए ‘द स्टेट ऑफ़ ब्रॉडबैंड 2015’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के अनुसार, ब्रॉडबैंड पहुंच के मामले में भारत की रैंकिंग 2013 के मुक़ाबले 2014 में छह अंक गिरकर 131 पर पहुंच गई. यही नहीं मोबाइल इंटरनेट ग्राहकों की संख्या के मामले में भी भारत की स्थिति कमज़ोर हुई है. साल 2013 में जहां यह 113वें पायदान पर था, वहीं 2014 में यह 155वें पायदान पर खिसक गया. भारत की स्थिति श्रीलंका और नेपाल से भी नीचे है, जिनकी रैंकिंग क्रमशः 126 और 115 है.

रिपोर्ट के अनुसार, व्यक्तिगत तौर पर इंटरनेट इस्तेमाल में बढ़ोतरी के बावजूद 133 विकासशील देशों में भारत पांच पायदान खिसक कर 80 पर आ गया है.

रिपोर्ट के नतीजे उन चुनौतियों की ओर इशारा कर रहे हैं, जिसका सामना मोदी सरकार की ‘डिज़िटल इंडिया’ परियोजना कर रही है. मोदी सरकार की इस परियोजना का मक़सद है कि 2019 तक पूरे देश में तेज़ रफ़्तार इंटरनेट मुहैया कराकर डिज़िटल विभाजन को कम किया जाए.

टिकाऊ विकास लक्ष्य पर 26 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन होने जा रहा है और इससे ठीक पहले इस रिपोर्ट का जारी किया जाना ‘डिजिटल इंडिया’ पहल की क़ामयाबी को लेकर विशेषज्ञों की चिंताओं को ज़ाहिर करता है. इस परियोजना में भारत की उस 68 प्रतिशत आबादी के बारे में बात की गई है जो गांवों में रहती है. हालांकि विश्लेषकों ने इन लक्ष्यों की व्यावहारिकता पर संदेह जताया है. उनका तर्क है कि यह सपना तब तक पूरा नहीं किया जा सकता जब तक बुनियादी ढांचे में गंभीर कमियों पर ध्यान नहीं दिया जाए.

इस परियोजना के तहत शहरों, क़स्बों और डेढ़ लाख पोस्ट ऑफ़िसों को जोड़ने के लिए दिसम्बर 2016 तक 6000 किलोमीटर लंबा नेशनल ऑप्टिकल फ़ाइबर नेटवर्क (एनओएफ़एन) बिछाने का लक्ष्य बनाया गया है, जिसपर 18 अरब डॉलर का खर्च आएगा.

डिजिटल एम्पॉवरमेंट फ़ाउंडेशन के संस्थापक निदेशक ओसामा मंज़र ने मिंट वेबसाइट पर लेख लिखा है. उन्होंने लेख में टेलीकम्युनिकेशन कंपनियों द्वारा नेटवर्क बनाने के लिए किए गए अपने वादे के बावजूद निवेश में कमी पर अफसोस जताया है.

वो कहते हैं, “तथ्य यह है कि दूरसंचार विभाग द्वारा कई बार आह्वान किए जाने के बाद भी, एक भी टेलीकॉम ऑपरेटर या उद्योग घराने ने एनओएफ़एन परियोजना को लेकर किसी साझीदार के साथ कोई डील नहीं की है.

एनओएफ़एन परियोजना अपनी समय सीमा से पीछे चल रही है. सबसे बड़ी बाधा है उन प्रदेशों में अंडरग्राउंड नेटवर्क बनाना जो हिंसाग्रस्त हैं, जैसे- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, भारत प्रशासित कश्मीर, छत्तीसगढ़ और झारखंड. इसके अलावा केंद्र और राज्यों के बीच सहमति का अभाव भी बाधा पैदा कर रहा है और इस पर निरक्षरता, ग़रीबी और कुशल श्रमशक्ति का अभाव और भारी पड़ रहा है.

डिजिटल इंडिया परियोजना का लक्ष्य क़रीब ढाई लाख सरकारी स्कूलों और ढाई लाख ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ कर ई शिक्षा और ई प्रशासन को बढ़ावा देना है. हालांकि गांवों और क़स्बों के अधिकांश स्कूल कम्प्यूटर और कम्प्यूटर में दक्ष शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं.

सरकार के एक ताज़ा आंकड़े के अनुसार, देश के ग्रामीण इलाक़ों में रह रहे 88.4 करोड़ लोगों में 36 प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं और जो 64 प्रतिशत शिक्षत हैं उनमें भी 5.4 प्रतिशत लोगों ने ही हाई स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की है. इसके अलावा गांवों में बिजली पहुंचाने का काम भी बड़ी चिंता का विषय है.

मोबाइल फ़ोन के मामले में भारत एक बड़ा बाज़ार है लेकिन मोबाइल उपकरणों के मार्फ़त अच्छी इंटरनेट स्पीड हासिल करना अभी दूर की कौड़ी है. हाल ही में आई डेलोइट रिपोर्ट में कहा गया है कि सितम्बर 2014 में देश में कुल इंटरनेट यूज़र्स की संख्या 25.4 करोड़ थी और इसमें 23.5 करोड़ यूज़र्स मोबाइल उपकरणों से इंटरनेट का इस्तेमाल करते थे. अध्ययन से पता चलता है कि पूरे देश में केवल 700 टॉवर ही ऐसे हैं जो 3जी या 4जी स्पीड को सपोर्ट करते हैं.

आंकड़े दिखाते हैं कि दुनिया में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली तीसरी सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद भारत इंटरनेट स्पीड के मामले में 52वें स्थान पर है.

यहां औसत स्पीड 1.5 से लेकर 2 एमबीपीएस है, जबकि दक्षिण कोरिया और जापान जैसे अन्य विकसित एशियाई देशो में इंटरनेट स्पीड क्रमशः 14.2 और 11.7 एमबीपीएस है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट उन चुनौतियों को बताता है जिसका सामना डिजिटल इंडिया कार्यक्रम पहले से ही कर रहा है.