25 सितम्बर को सामाजिक न्याय दिवस पर विशेष

संजय श्रीवास्तव

 मोहन भागवत के मुख से निकले बयान ने बता दिया है कि उसके बगल में क्या है. भाजपा का नारा “सबका साथ, सबका विकास” राष्ट्रीय स्वयं सामाजिक न्याय का वह जुमला है जिसके कई दूसरे राजनीतिक निहितार्थ हैं।

मनुवादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने राजनैतिक मुखौटे भारतीय जनता पार्टी की सत्ता शाश्वत करने के लिये नयी जुगत में लगा है। यहां तक कि विश्व हिंदू परिषद सरीखे उसके तमाम बगल बच्चे भी इस कोशिश में उसके साथ लग गये है। वे सामाजिक न्याय की बातें कर रहे हैं, दलितों, आदिवासियों को सामाजिक समरसता का पाठ पढ़ा रहे हैं। संघ के राजनैतिक शाखा भाजपा द्वारा कांग्रेस को चारों खाने चित करने के बाद अब उसकी निगाहें सामाजिक न्याय की थोथी दलीलें देकर राजनीति चमकाने वाली तीसरी ताकतों पर है। वाम तो भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक है सो उसका जिक्र भी बेकार है। संघ को उम्मीद है कि सामाजिक न्याय की इस कारगुजारी में वह कामयाब रहा तो भाजपा कांग्रेस की ही तरह दीर्घजीवी दल बन जायेगा। यही कारण है कि संघ की राजनीतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी जिसका मूल संघी चरित्र सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय का धुर विरोधी और यथास्थितिवादी संगठन का है वह एक जनतांत्रिक और सामाजिक न्याय में यकीन रखने वाली पार्टी और सरकार का मुखौटा लगाने की कोशिश में है।

इस मुखौटे की ही मजबूरी है कि मूल विचारधारा से मेल न खाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी सामाजिक न्याय का लालच देकर आगामी दशक पिछड़े समुदायों के सदस्यों का दशक होगा कहते हुये दलितों, पिछड़ों को अपनी ओर मिलाने उन्होंने खुद को पिछड़ा और राजनीतिक अछूत के बताते फिरते हैं, मुसलमानों को अलग थलग रखने की दिली चाहत के बावजूद नारा देते हैं “सबका साथ, सबका विकास।” संघ का राष्ट्रवाद असमानता की वकालत करता है, राष्ट्र के निर्माण की कुछ लोगों को साथ लेने से इनकार, उन्हें पाकिस्तान जाने को कहता है। संघ मनुस्मृति को ही समाजिक न्याय और शासन का आधार मानता है और मनुस्मृति साफ तौर पर वर्ण व्यवस्था की वकालत करती है।  संघ के विचार दाता एम एस गोलवलकर के बंच ऑफ थॉट्स,1960 के  अनुसार यह प्रकृति का नियम है और असमानता शाश्वत है जिसे दूर नहीं किया जा सकता। अब उनके ही नुमाइंदे नरेन्द्र मोदी सबका साथ चाहते हुए खुद को पिछड़ा और राजनीतिक अछूत घोषित करते हैं पर हास्यास्पद तथ्य है कि वो खुद दलित, पिछड़ा विरोधी आंदोलन के नेता रहे हैं।

 भाजपा के सामाजिक न्याय की अलख को नरेंद्र मोदी के नजरिये से समझें। जब वे गुजरात में थे, वहां दलित आरक्षण लागू किया गया तो ब्राह्मण, पाटीदार और वैश्य वर्ग ने जबरदस्त विरोध किया, बीजेपी ने इसे दलित विरोधी आंदोलन की शक्ल दे उसका नेतृत्व किया। वे दलितों को इसलिये नीचा दिखाने में लगे थे क्योंकि इन्हीं की वजह से कांग्रेस सत्ता में आयी थी। बाद में यह दलित विरोधी आंदोलन हिंसक हो गया, गुजरात के 19 में से 18 जिलों में दलित दंगे के शिकार बने।

आज यही संघ और नरेंद्र मोदी सामाजिक न्याय की और दलितों की तरफदारी की बात कर रहे हैं। आरएसएस भी आरक्षण समर्थक हो गया है। एजेंडा साफ कर दिया था कि वे दलितों पिछड़ों को खास ख्याल रखेंगे। संघ को उम्मीद है कि इससे इसे सिर्फ सवर्णवादी, हिंदुत्ववादी, कट्टरता की पक्षधरता का वाले संगठन की जो छवि बन चुकी है  उसकी बजाये लोग उसे सामाजिक समरसता का हिमायती समझेंगे। ऐसे में सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति करने वालों के सामने  एक सुनियोजित, संगठित और कठिन चुनौती पेश की जा सकेगी। यह ऐसी कठिन सियासी चुनौती होगी जिस की कोई काट तीसरी ताकत कहे जाने वाले सियासी परिवार के किसी सदस्य के पास न हो। संघ का विचार है कि सवर्ण को तो साध ही रखा है अब अगर माइनस मुसलमान दलित और पिछड़े भी साथ आ जाएं तो माया, मुलायम, नीतीश, लालू, देवगौड़ा यानी दूसरी के बाद तीसरी ताकत भी फुस्स।  सामाजिक न्याय के नाम पर दलितों और पिछड़ों को गोलबंद करने वाली राजनीतिक पार्टियां इसे वंचित तबके को गुमराह करने की कोशिश बता रही हैं।

जो भी हो, दलितों पिछड़ों को समाज की मुख्य धारा में लाने की प्रक्रिया, सामाजिक न्याय की वह राजनीति जो हिंदू धर्म में उन्हें ससम्मान स्थान दिलाने लिए या समाहित होने के लिए की जानी थी, वह अपने रास्ते से पहले ही भटकी हुई थी, संघ और उसके सहयोगी संगठनों की कोशिश उसको और संकट में ला देगा। बीजेपी भले ही दिखावा करें लेकिन असल में वह सामाजिक न्याय विरोधी और जनतंत्र की मूल अवधारणा के भी खिलाफ है। उसका सामाजिक राजनीतिक दर्शन ही फासीवादी और एकात्मवादी है जहाँ दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती है। संघ परिवार का बंधुआ राजनीतिक उपक्रम होने के नाते भाजपा उसी की रणनीति को लागू करने के लिये मजबूर है जबकि लोगों ने वोट संघ को नहीं भाजपा को दिये थे।

भाजपा उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय का कार्ड खेल चुकी है। उत्तर प्रदेश में भाजपा और उस के सहयोगियों को 73 लोकसभा सीटो पर मिली जीत के बाद उसको लगा कि  पिछड़ी व दलित जातियों, खासतौर पर निचली पिछड़ी व दलित जातियों, का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ आया है। मुलायम की कभी दलित विरोधी भाजपा के साथ जाने कभी कांग्रेस से जुगलबंदी करने और अभी बिहार चुनाव में भाजपा को लाभ पहुंचाने की कोशिश ने उनकी सामाजिक न्याय के प्रति विश्वसनीयता पर सवाल पुख्ता किये। सामाजिक न्याय के ठेकेदारों का चरित्र अब किसी से कहां छिपा है। मायावती कभी भाजपा के साथ सरकार बनाने को तैयार हो जाती हैं तो कभी बाबरी मस्जिद के विध्वंस में गुनाहगार माने जाने वाले कल्याण सिंह को मुलायम सिंह अपने साथ ले लेते हैं। म्यावती से ताज छीनने में बरास्ता अमर सिंह राजनाथ ने खूब गलबहियां कीं।  वही नहीं इस मामले में सब के राज उजागर हैं। उधर बिहार में इनके ठेकेदार मांझी, पासवान, कुशवाह वगैरह भी साथ ले लिये गये हैं ।

संघ परिवार की रणनीति है कि जब भी मुसलमान अल्पसंख्यक होने के नाते अपने अधिकारों की आवाज उठाये वह उस के खिलाफ पिछड़ों दलितों को लामबंद कर खड़ा कर देना। संघ इसे तुष्टीकरण कह कर प्रचारित करने लगता है। बात-बेबात मुसलमानों को निशाने पर लेने के लिये महज  एक बहाना चाहिये जिसके आधार पर मुसलमानों के विरुद्ध असभ्य और अतार्किक टिप्पणियां  आरंभ कर दी जाती हैं। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने अपने भाषण में उपराष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी के नारे “सबका साथ, सबका विकास” की तारीफ की पर इसमें मुसलमानों को भी वाजिब हक के साथ शामिल करने पर जोर दिया था। उन्होंने मुसलमानों की पहचान और सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं के समाधान  हेतु सकारात्मक कार्रवाई और सबके विकास के लिए नीति बनाने की मांग ही तो की थी। एक धर्म विशेष के जलसे में वे और क्या कहते पर संघ को मौका चाहिये था, वे पिल पड़े।

फिलहाल स्थिति यह है कि सामाजिक न्याय का आंदोलन को कथित समाजवादियों, और तीसरी ताकत के बूते चलाये जाने का सपना था वह इसकी इस विषय में गैर प्रतिबद्ध और दोहरी राजनीति  के चलते अब खात्मे की ओर है इसके पैरोकारों ने महज वोटों को केंद्रित कर इसकी एक झूठी और बनावटी लड़ाई लड़ी, इस आंदोलन को सामाजिक न्याय के सबसे बड़े खतरे फासीवाद के खिलाफ खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं हुई। कई बार तो ये इनसे हाथ मिलाते हुए दिखे। वह चाहे मुलायम हों या मायावती या नीतीश। अब जातिगत राजनीति का खेल संघ जैसे मनुवादी खेलने को तैयार हैं। किसी दलित के प्रति जितना घृणा भाव कुछ सवर्ण रखते आये हैं और जितना भाव संघ मुसलमानों के प्रति दर्शाता है उसी तरह क भाव संघ का दलितों और पिछड़ों के प्रति है। ऐसे में सामाजिक न्याय का क्या होगा भगवान ही मालिक है जबकि हाशिये पर मौजूद बड़ी आबादी आज भी सामाजिक बराबरी और अपने नागरिक अधिकारों को पाने के लिए संघर्षरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)