समीक्षक का काम टिप्पणी करना होता है। उसकी समझ से वह जो भी कर रहा है, ठीक ही है। मैं यह कत्तई नहीं मान सकता, क्योंकि टिप्पणियाँ कई तरह की होती हैं। कुछेक लोग उसे पसन्द करते हैं, बहुतेरे नकार देते हैं। पसन्द और नापसन्द करना यह समीक्षकों की टिप्पणियाँ पढ़ने वालों पर निर्भर है। बहरहाल कुछ भी हो आज कल स्वतंत्र पत्रकार बनकर टिप्पणियाँ करने वालों की संख्या वृद्धि हुई है, जिनमें कुछ नए हैं, तो बहुत से वरिष्ठ (उम्र के लिहाज से) होते हैं। 21वीं सदी फास्ट एरा कही जाती है। इस जमाने में सतही लेखन को बड़े चाव से पढ़ा जाता है। बेहतर यह है कि वही लिखा जाए जो पाठकों को पसन्द हो। अकारण अपनी विद्वता का परिचय देना सर्वथा उपयुक्त नहीं है। 

चार दशक से ऊपर की अवधि में मैंने भी सामयिकी लिखने में अनेकों बार रूचि दिखाई, परिणाम यह होता रहा कि पाठकों के पत्र आ जाते थे, वे लोग स्पष्ट कहते थे कि मैं अपनी मौलिकता न खोऊँ। तात्पर्य यह कि वही लिखूँ जिसे हर वर्ग का पाठक सहज ग्रहण कर ले। जब-जब लेखक साहित्यकार बनने की कोशिश करता है, वह नकार दिया जाता है। जिसे साहित्य ही पढ़ना होगा- वह अखबार/पोर्टल क्यों सब्सक्राइब करेगा? लाइब्रेरी जाकर दीमक लगी पुरानी सड़ी-गली जिल्द वाली पुस्तकें लेकर अध्ययन करेगा। मीडिया के आलेख अध्ययन के लिए नहीं अपितु मनोरंजनार्थ होने चाहिए। 

वर्तमान में जब हर कोई भौतिकवादी हो गया है तब ऐसे में वह अनेकानेक बीमारियों से ग्रस्त होने लगा है। तनावों से उबरने के लिए वह ऐसे आलेखों का चयन करता है, जो कम से कम थोड़ी देर के लिए तनावमुक्त कर सकें। मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है कि जिन्होंने अपनी स्टडी बना रखी है उसमें करीने से मोटी-मोटी पुस्तकों को सजा कर रखा है, लेकिन पढ़ा कभी नहीं। मैंने जब उनसे पूँछा तब उन सभी ने कहा कि यह एक दिखावा है, ऐसा करने से उनका रूतबा-रूआब बढ़ेगा और लोग उन्हें पढ़ा-लिखा समझेंगे। कहने का लब्बो-लुआब यह है कि पाठक चाहे वर्तमान का हो या फिर पूर्व का उसे मिर्च-मसालेदार खबरें जो उसका मनोरंजन कर सकें पढ़ना पसन्द करता है ना कि गूढ़ और साहित्यिक आलेख। 

समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं में देखा जाता है कि सम्पादकीय पेज पर बड़े-बड़े आलेख प्रमुखता से प्रकाशित होते हैं वह भी नामचीन लेखकों के, लेकिन मेरे ख्याल से उसे पढ़ने वाला कोई नहीं होता, इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर। बड़े और जटिल आलेखों को देखकर लोग उसे पढ़ने से कतराते हैं। ऐसी स्थिति में इन लेखक/समीक्षकों की मार्केट वैल्यू लगभग समाप्त सी होने लगी है। मरता क्या न करता को चरितार्थ करते हुए इन लोगों ने अब सोशल मीडिया/वेब पोर्टल का सहारा लेना शुरू कर दिया है। आज-कल सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकारिता शोधकर्ता, अधिवक्ता व मुकदमेबाज अपने लम्बे एवं उबाऊ कथित टिप्पणियों को हजारों ई-मेल आई.डी. पर प्रेषित करते हैं, और कई वेब पोर्टलों व समाचार-पत्रों में स्थान भी पा जाते हैं। यह उन कथित लेखकों के लिए एक उपलब्धि कही जा सकती है। प्रकाशन उपरान्त अपने-अपने आलेखों का लोग प्रिन्टआउट उतरवाकर पत्रावली में सहेज कर रख लेते हैं, जो वक्त जरूरत उनके काम आता है। 

ऐसे लेखकों, समीक्षकों, टिप्पणीकारों के आलेख फ्री-फोकट में पाकर वेब और प्रिण्ट मीडिया के सम्पादक खुशी-खुशी उसका प्रकाशन करते हैं। इससे लेखकों व प्रकाशकों को कई तरह के लाभ होते हैं। जैसे- प्रकाशनों का पृष्ठ पोषण हो जाता है, पाठक वर्ग द्वारा त्याज्य से बने हुए कथित लेखकों को उनके लेखों के प्रकाशन उपरान्त आत्मतुष्टि मिल जाती है। लेखकों को सबसे बड़ी खुशी तब मिलती हैं जब उनके आलेखों के नीचे उनका लम्बा-चौड़ा परिचय व फोटो प्रकाशित हो जाया करता है। ऐसी स्थिति में ये छपासरोगी एक दम से बल्ले-बल्ले करने लगते हैं, और अपने हर मिलने-जुलने वाले लोगों से डींगे मारने लगते हैं कि मैं अमुक-अमुक में छपा। इस तरह वे प्रिण्ट और वेब मीडिया का निःशुल्क प्रचार करते हैं। 

छपास रोगियों को देखकर यह प्रतीत होता है कि ये सरस्वती पुत्र तो बन जाते हैं, लेकिन लक्ष्मी से इनकी भेंट नहीं होती। सम्पादक/प्रकाशक इस तरह के छपास रोगियों से लिखवा-लिखवाकर चमड़ी तक उधेड़ लेते हैं लेकिन दमड़ी से इनकी भेंट नहीं होने देते। जबकि कथित लेखक/टिप्पणीकार प्रिण्ट व वेब मीडिया के अलावा छोटे-मोटे पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाकर फूले नहीं समाते। बीते दिनों का एक वाकया शेयर करना है वह यह कि- किसी सज्जन के मोबाइल पर एक वेब पोर्टल का विज्ञापन चला गया। उधर से एस.एम.एस. प्राप्तकर्ता ने एस.एम.एस. भेजकर यह प्रश्न किया कि उक्त वेब पोर्टल किस जनपद से चलता है। ऐसा एस.एम.एस. पाने वाले सम्पादक बन्धु को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने एक मित्र से पूंछा कि इसका क्या उत्तर लिखकर दिया जाए? तब मित्र ने कहा कि छोड़ो, इसे खुद ही नहीं मालूम कि वर्ल्ड वाइड वेब पोर्टल कोई समाचार-पत्र नहीं हैं, जो किसी स्थान से प्रकाशित होता हो। वेब पोर्टल तो इण्टरनेट का एक ऐसा प्रचार माध्यम है, जिसे कहीं से भी संचालित किया जा सकता है, और किसी भी हालत में उसमें संवादों/आलेखों की अपलोडिंग की जा सकती है। 

तात्पर्य यह कि 21वीं सदी के इस इण्टरनेट युग में लगभग हर कोई सोशल मीडिया पर अपनी कथित समीक्षाएँ, टिप्पणियाँ देने लगा है यह बात अलहदा है कि ये टिप्पणीकार उतने गम्भीर व परिपक्व नहीं होते हैं, जितने कि आज के एक दशक पूर्व हुआ करते थे। बहरहाल कुछ भी हो सोशल साइट्स पर लोगों के आलेखों का प्रकाशन बदस्तूर जारी है। हर कोई अपने-अपने तरीके से अपनी बातें/अभिव्यक्ति उन पर अपलोड कर/करवा रहा है। कुल मिलाकर हम ऐसी लोमड़ी नहीं कहलाना चाहते हैं, जो अपने प्रयासों के बावजूद अंगूर न पाने की स्थिति में अंगूर को खट्टा कहती है। हम भी नये जमाने के साथ हैं और जहाँ तक मुझे लगता है कि धारा के साथ चलने में ही आनन्द है। आप भी जुड़िए, आनन्द उठाइए, आत्मतुष्टि पाइये। जमकर समीक्षाएँ करिए, सोशल मीडिया के पृष्ठपोषक बनिए, इसी सब के साथ ढेरों शुभकामनाएँ, आपका पुराना मित्र- कलमघसीट। 

-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

पत्रकार/टिप्पणीकार