अशोक भाटिया            

कुछ दिनों से वाट्स अप पर एक लघु कथा वाइरल हो रही है जिसका संक्षिप्त यह है कि एक बेटा माँ को घूमाने के बहाने से ले जाकर एक वृद्धाश्रम में छोड़ देता है । जब बेटा  वहाँ से वापस जाने लगता है तो माँ उसे बुला कर कहती है कि तुमने  मुझे घूमाने के बहाने से लाकर  वृद्धाश्रम में छोड़ दिया इस बात का गम नहीं है मैं तो तुम्हें केवल एक बात कहना चाहती हूँ कि मैंने तेरा जन्म के पूर्व  पाँच लड़कियों की भ्रण हत्या कारवाई थी तब तुमको जन्मा था । आज शायद उसी पाप की सज़ा मुझे मिल रही है ।

तो ऐसे तो कई किस्से सुनने को या देखने को मिलते है कि लोग अपने माता – पिता को वृद्धावस्था के समय वृद्धाश्रम में छोड़ देते है , पर हाल ही एक ऐसे कलयुगी बेटे का समाचार मिला है जिसने अपनी माँ को वृद्धाश्रम के बजाय मुंबई की सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया । कुछ समय पूर्व की घटना है दक्षिण मुंबई स्थित बॉम्बे अस्पताल के पास सड़क पर दिलीप नामक एक युवक अपनी 85 वर्षीय माँ हंसा राजपूत को छोड़ कर भाग गया । लगातार बारिश होने के कारण माँ हंसा बीमार हो गई थीं और सड़क पर बैठी रो रही थीं । किसी भले आदमी ने उसे पास के अस्पताल में भरती करा दिया । अब भी माँ 15 दिन से अस्पताल में अपने बेटे को  बार – बार पुकारती इस माँ को भले ही बेटे ने चलती कार से धकेल दिया फिर भी इस माँ की आँखें हर दिन अपने बेटे के आने की रह तक रही है ।

उदाहरण और घटनाए और भी है । एक बूढ़ी मां को दिल्ली के एक गुरुद्वारे में इसलिए शरण लेनी पड़ी क्योंकि उस बूढ़ी मां को उसके अपने बेटे ने जंगल में छोड़ दिया। बेटे ने अपनी मां को हरिद्वार ले जाने के बहाने घर से अपने साथ लिया और मोदीनगर के पास जंगल में उसे अकेला छोड़कर चला गया। इस वृध्दा को न तो ठीक से दिखाई देता है और न ही उसके पास घर का पूरा पता वगैरह है कि वह किसी के सहारे अपने घर लौट सके। किसी ने उसे भटकते हुए पाया तो गुरुद्वारे तक पहुंचाया।

आज जो सामाजिक सोच में परिवर्तन आ रहा है तथा मानव मूल्यों का जो क्षरण हो रहा है, नैतिकता का नामोनिशां मिटने की ओर है, इसका इससे प्रबल कोई उदाहरण और क्या मिलेगा? जिन बच्चों को पाल-पोष कर बड़ा करने के लिए माता-पिता अपना पेट काटकर एक-एक पैसा जोड़ते हैं। अपना मन मसोसकर, अपनी अति आवश्यक जरूरतों को भी दरकिनार कर बच्चों की पढ़ाई के लिए या उनको रोजगार दिलाने के लिए, उनका काम धंधा जमाने के लिए मां-बाप क्या नहीं करते, उन्हीं मां-बाप के साथ आज उन्हीं की जायी संतानें ऐसा बर्ताव करती हैं कि बेशर्मी भी शर्मा जाए। कहीं कोई अपने मां-बाप पर हाथ उठा रहा है तो कोई उन्हें दो वक्त की रोटी देने से मुंह मोड़ रहा है। कहीं कोई उन्हें घर से बेदखल कर फुटपाथ पर जीवन बसर करने को मजबूर कर रहा है तो कोई अपने माता-पिता को इसलिए वृध्दाश्रम छोड़कर आ रहा है क्योंकि उनकी छोटी-छोटी बातें, उनका स्वभाव, उनका रहन-सहन परिवार के अन्य सदस्यों को, मसलन, पुत्र-पुत्रवधू, पोता-पोती को रास नहीं आ रहा।

आज व्यक्ति अपनी सुख सुविधाएं जुटाने में इतना मशगूल है कि उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब है। प्रतिस्पर्धा में वह सबसे आगे रहना चाहता है। हर व्यक्ति को, उसके परिवार को वह सब कुछ चाहिए, जो दूसरों के पास है। जो इतना जुटा चुके हैं, वे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, अय्यासी कर रहे हैं, मौजमस्ती में लुटा रहे हैं। जिनके पास लुटाने के लिए नहीं है, वे जुटाने में लगे हैं। इन प्रयासों में माता-पिता की घर में उपस्थिति बाधक बनती है। आदमी को लगता है कि मां-बाप के कारण वह काफी बंधा हुआ है। पति पत्नी और बच्चों की स्वच्छंदता में वे बूढे माता-पिता कहीं रोड़े बन रहे हैं। घर में आते-जाते उनका टोकना उन्हें नहीं भाता।

 अनेक घरों में बूढे लोग जिंदा लाश के समान हैं। मर तो सकते नहीं, क्योंकि मरना भी आसान नहीं है, जिंदा केवल शरीर है। मन मर चुका है, भावनाएं दबी पड़ी हैं, ममता मरने को मजबूर है, स्नेह सूख रहा है। बूढ़े लोगों की उपयोगिता घर की रखवाली तक सीमित रह गई है।

कहीं-कहीं पर वृध्दजनों का औपचारिक ध्यान रखा जाता है क्योंकि पुश्तैनी प्रापर्टी उनके मालिकाना हक में होती है तो उन्हें खुश रखना जरूरी होता है। किसी बुजुर्ग के पास नकदी या आभूषणों से भरी कोई संदूक (पुराने जमाने में ऐसे ही संपत्ति सहेज कर रखी जाती थी) है तो उसको खुशी-खुशी पाने की ललक में भी बुजुर्ग की देखभाल की जाती है। हालांकि आजकल तो ऐसा होना जोखिम भरा काम भी हो गया है। कुछ सिरफिरी संतानें तो बूढ़ों के मरने का इंतजार करने के बजाय प्रापर्टी जल्दी पाने के चक्कर में उन्हें ठिकाने तक लगा देते हैं।

ऐसा नहीं है कि बूढे-अशक्त मां-बाप के हक की सुरक्षा के लिए कानून नहीं है परन्तु या तो ऐसे कानूनों से लोग, खासकर वृध्द लोग अनभिज्ञ हैं या फिर कोर्ट कचहरियों में चक्कर लगाने की असमर्थता के चलते प्रताड़ित होते हुए भी वृद्ध जन शिकायत नहीं करते। इससे भी ज्यादा, अपनी संतान के प्रति मोह के चलते बूढ़े मां-बाप कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़ना चाहते। वे अपने परिचितों, रिश्तेदारों के समक्ष तो अपना दुखड़ा रो देते हैं परन्तु अदालतों या पुलिस का दरवाजा नहीं खटखटाते। उन्हें लगता है कि ‘ज्यादा गई, थोड़ी रही’, क्यों अपनी ही संतान को अदालत में घसीटें। इसलिए सब कुछ सहते रहते हैं।

 ऐसे में सरकार को एक हेल्प लाइन नंबर शुरू करना चाहिए ,जिससे बुजर्गों को मदद मिल सके । साथ ही हर सरकारी अस्पताल में एक स्पेशल वार्ड बने ताकि बुजुर्गो को वहाँ रहने में मदद मिल सके और उनका समय पर सही इलाज हो सकें ।

अशोक भाटिया , सेक्रेटरी – वसई ईस्ट सीनियर सिटिज़न असोशिएशन (रजि॰ )

अ/001 वैंचर अपार्टमेंट ,वसंत नगरी, वसई पूर्व ( मुंबई )  फोन 09221232130