रिपोर्ट: आरिफ नकवी

बर्लिन: बर्लिन की मस्जिद बिलाल में आज सुबह आठ बजकर दस मिनट पर ईद की नमाज पढ़ने के लिए पहुँचा| यह मस्जिद बर्लिन की सड़क

Drontheimer Str.पर पुरानी बड़ी सी इमारत के एक हिस्से में स्थापित है। नमाज़ साढ़े आठ बजे शुरू होने वाली थी। बीस मिनट शेष थे लेकिन हाल खचाखच भर चुका था और मुझे बाहर आंगन में कई लोगों के साथ नमाज़ पढ़ना पड़ी जहां देर से आने वालों के लिए चटाईयां पहले से बिछा दी गई थीं। कई लोगों के लिए जिन्हें जगह

नहीं मिल पाई थी बाद में फिर से प्रार्थना की व्यवस्था की गई। यह पहली बार है कि मैं इस मस्जिद के हॉल में नहीं बल्कि आंगन में नमाज़ पढ़ी है। ऐसा ही कुछ अन्य मस्जिदों में भी हुआ है, जहां इस बार नमाजियों की संख्या पहले से काफी अधिक थी।

दरअसल जर्मनी में ईद का त्यौहार Zuckerfest यानी मीठा त्यौहार के नाम से प्रसिद्ध है जबकि तुर्की के लोग बैरम के नाम से मनाते हैं| अकेले  जर्मनी की राजधानी बर्लिन में तीन लाख से अधिक मुसलमान रहते हैं, जिनकी तुर्कों की संख्या अधिक  है। इसके बाद अरबों नंबर आता  है। यहां पर कई हजार पाकिस्तानी भी हैं लेकिन भारत के भी बहुत से मुसलमान यहाँ पर बसे हुए हैं। इनमें सभी मुस्लिम समुदायों के लोग अपने अपने रूप से धार्मिक त्यौहार मनाते हैं। इस बा आर यहां मौसम भी बहुत सुखद है। आज तो पारा 33 सेंटीग्रेड तक पहुंच गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस बार रमजान के महीने मैं यहाँ के हिसाब से बहुत गर्मी पड़ी है। सूरज भी बहुत पहले उगता और बहुत देर से अस्त होता था, जिसकी वजह कभी कभी तो लोगों को दिन में अठारह, उन्नीस घंटे रोज़े रखना पड़े।

शनिवार और रविवार को तो बर्लिन के क्षेत्र Kreuzberg में तुर्कों की ओर एक बहुत बड़ा ईद मिलन का जश्न कार्ल मार्क स्ट्रास नामक सड़क पर मनाया जाएगा, जिसमें सांस्कृतिक संगीत, लोक नाच, हस्तशिल्प, विभिन्न पारंपरिक खाने-पीने की चीजें आदि पेश किए जाएंगे। जिसमें मुसलमानों के सभी समुदायों के लोगों के साथ स्थानीय जर्मन लोगों को भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया है।

जर्मनी के राजधानी बर्लिन में मुसलमानों की लगभग 80 छोटी बड़ी मस्जिदें हैं, जिनमें से अधिकांश पुरानी इमारतों में जो अब उपयोग में नहीं है स्थापित हीं| बाहर से कोई नहीं कह सकता कि यह मस्जिदें हैं, हालांकि अंदर से वहां वो सारी बातें मिलती हैं जो किसी मस्जिद की निशानियां  होती हैं। कुछ ऐसी मस्जिदें भी हैं जिनकी वास्तुकला मस्जिदों जैसी है। जैसे, बर्लिन के क्षेत्र टंपल हॉफमेन में तुर्कों की मस्जिद Sehitlik जो पिछले हवाई अड्डे के निकट तुर्कों के कब्रिस्तान से लगी एक बड़ी इमारत है जिसके सफेद मीनार और गुंबद और खात्तातीके नक्श  व निगार उस्मानिया काल की  वास्तुकला का नमूना पेश करते हैं। इसी तरह शहर के अन्य क्षेत्र Kreuzberg में कई साल के निर्माण कार्य के बाद 2010 से मशारी मरकज़ खोला गया है, जहां विशेष रूप से अरब जाते हैं। यह शहर की दूसरी सबसे बड़ी इस्लामी इबादतगाह है, जो एक हजार नमाजियों  के लिए जगह है।

एक और बड़ी मस्जिद अहमदियों के लिए है, जो विल्मेर्स डोरफ नामक क्षेत्र में 1920 से स्थापित है और जर्मनी सबसे पुरानी मस्जिदों में गिनी जाती है। एक दूसरी अहमदिया मस्जिद 2008 से बर्लिन के पूर्वी हिस्से में हायनर्स डोरफ में स्थापित की गयी है।

बर्लिन के इलाके  वेडिंग में एक मस्जिद पाकिस्तानियों ने मिन्हाजुल कादरी के नाम से स्थापित की थी लेकिन अब इसे बंद कर दिया गया क्योंकि वह एक पुराने कारखाने की खाली इमारत के एक हिस्से में थी, जिसके आसपास कई वर्कशॉप  थे जिन्हें अब खाली करा लिया गया है, क्योंकि वहाँ एक बहुत बड़ा शॉपिंग सेंटर बनने जा रहा है। अब इसके बदले कई लोग एक दूसरी इमारत में नमाज़ पढ़ने जाते हैं। इसी तरह एक दूसरी बड़ी मस्जिद उसी क्षेत्र में पंजाब स्टोर नामक बड़े पाकिस्तानी शॉपिंग सेंटर के साथ लगी थी। उसे भी अब खाली करा लिया गया है।

मस्जिद बिलाल की एक खूबी यह है कि नमाज़ और कुरान ख्वानी तो अरबी में होती है, लेकिन उपदेश जर्मन में दिए जाते हैं। जिसकी वजह से वहां पर भारतीय और पाकिस्तानी मुसलमानों के अलावा कई अफ्रीकी और अन्य देशों के मुसलमान भी आते हैं।

इनके अलावा और कई संस्थान हैं जहां मुस्लिम इबादत  के लिए, या अपने धार्मिक संस्कार को पूरा करने के लिए जाते हैं, जैसे मिन्हाजुल हुसैन, जो अभी तक एक पुरानी बिल्डिंग में है। यह अंजुमन जाफरिया जिसकी नमाज़ें और कार्यक्रम बैरम नामक एक तुर्क मस्जिद में होते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में नमाजियों  की बढ़ती संख्या के मद्देनजर ऐसा लगता है कि यहाँ पर मस्जिदों की जरूरत का एहसास भी बढ़ता जा रहा है। अब तक का प्रचलित तरीका कि किसी पुराने कारखाने की खाली इमारत में या किसी पुरानी आवासीय इमारत का कोई हिस्सा लेकर मस्जिद बना ली, ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है।

एक दिलचस्प उल्लेखनीय बात यह भी है कि बर्लिन की लगभग बीस मस्जिदें साल में एक बार 3 अक्टूबर को गैर मुस्लिमों  के लिए खुली होती हैं, जहां न केवल गैर मुस्लिम आकर उन्हें देखते हैं बल्कि इस्लाम और मस्जिदों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

 

Arif Naqvi

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