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केजरीवाल की अनदेखी कर गैमलिन ने संभाला पद

नई दिल्ली: दिल्ली के कार्यकारी मुख्य सचिव के रूप में शकुंतला गैमलिन को नियुक्त करने के मामले में दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के विवाद ने अब नया मोड़ ले लिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने गैमलिन को यह पद नहीं संभालने को कहा था, लेकिन उसके बावजूद गैमलिन ने कार्यकारी मुख्य सचिव का चार्ज ले लिया है।

दिल्ली सरकार ने बीजेपी पर उपराज्यपाल के जरिये ‘तख्तापलट’ करने का आरोप लगाया है। दरअसल दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव केके शर्मा 10 दिन की छुट्टी पर गए हैं, जिनके स्थान पर उपराज्यपाल ने गैमलिन को नियुक्त किया था।

दिल्ली सरकार के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने इसे उपराज्यपाल के जरिए बीजेपी की तख्तापलट करने की साजिश करार दिया है, जबकि विरोधी पार्टियां इसे केजरीवाल का राजनीतिक स्टंट बता रही हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कहना है कि केजरीवाल जी या तो संविधान जानते नहीं हैं या वह जानने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। दिल्ली की संवैधानिक स्थिति दूसरे राज्यों के मुकाबले बहुत अलग है। यहां अगर किसी मुख्यमंत्री को काम करना है, तो उसे केंद्र सरकार और उपराज्यपाल को साथ लेकर चलना ही पड़ेगा।

दरअसल शुक्रवार को उपराज्यपाल ने संविधान का हवाला देकर मुख्य कार्यकारी सचिव के पद पर शकुंतला गैमलिन की तैनाती की थी, लेकिन बिजली कंपनियों से साठगांठ का आरोप लगाकर दिल्ली सरकार इस नियुक्ति का विरोध कर रही है।

दिल्ली सरकार के इस आरोप के कुछ ही देर बाद उपराज्यपाल ने भी अपनी सफाई देते हुए कहा था कि वरीयता और ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर गैमलिन की तैनाती की गई है। उपराज्यपाल ने यह तैनाती संविधान की धारा 239-ए के तहत की है। यह भी कहा गया कि इस तरह से नार्थ-ईस्ट की एक ईमानदार महिला अफसर को विवादों में घसीटना गलत है।

दिल्ली सरकार में पूर्व सचिव रह चुके आशीष जोशी बताते हैं कि इससे नौकरशाहों का मनोबल खासा गिरा है। जिस तरीके से एक ईमानदार महिला आईएएस अधिकारी पर आरोप लगाया गया है, उससे सरकार में काम करने वालों पर खासा नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

वहीं संविधान के जानकार सुभाष कश्यप का कहना है कि दिल्ली के उपराज्यपाल को जो शक्तियां मिली हैं, उसे सरकार चुनौती नहीं दे सकती है। हालांकि पहले भी दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच कई मामलों में मतभेद रहे हैं। लेकिन जिस तरीके से आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है, उससे आम लोगों में संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर तो बट्टा लगेगा ही, नौकरशाहों के मनोबल पर भी इसका असर पड़ेगा।

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