हाल में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने एक कानून बनाया है जिस के अनुसार उस राज्य में कोई भी व्यक्ति गोमांस खाने के लिए किसी भी गोवंशीय पशु जैसेबैल और बछड़ा का न तो वध कर सकता हैए न ही उस का मांस बेच सकताए न ही उसे अपने पास रख सकता और न ही खा सकता हैण् यह ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र में अन्य कई राज्यों की तरह पहले से ही गो हत्या पर प्रतिबंध लगा है।  इस से पहले इन सभी जानवरों डाक्टर के प्रमाण पर देने पर काटा जा सकता थाण् परन्तु अब यह सब पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है।  इसी प्रकार की मांग की हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों द्वारा भाजपा द्वारा शासित अन्य राज्यों तथा इस भाजपा की केन्द्रीय सरकार द्वारा केन्द्रीय कानून बनाने की जा रही है। ज्ञात हुआ है कि हरियाणा की भाजपा सरकार भी इसी प्रकार का कानून बनाने जा रही है।  वास्तव में यह हिंदुत्व के सांस्कृतिक फासीवाद का ही विस्तार है जिस का मुख्य उद्देश्य भारत को जल्दी से जल्दी हिन्दू राष्ट्र बनाना है। 

यद्यपि महाराष्ट्र में यह कानून गोवंश की रक्षा के नाम पर बनाया गया है परन्तु वास्तव में यहं हिन्दू राष्ट्रवादियों की गो माता को पवित्र मानने और मनवाने के लिए सत्ता का दुरूपयोग है। यह सभी जानते हैं कि गाय के इलावा अन्य जानवरों का मांस दलितोंए आदिवासियो, ईसाईयों और मुसलामानों द्वारा खाया जाता रहा है और वह भी अधिकतर इन वर्गों के गरीब तबकों द्वारा, इतना ही नहीं दलित तो सदियों से मरे पशुयों का मांस खाने के लिए बाध्य थे क्योंकि उन्हें तो केवल गधे और कुत्ते पालने का ही अधिकार दिया गया था।  अतः न तो वे इन जानवरों को मार कर मांस खा सकते थे और न ही इन का दूध पी सकते थे।  उन के लिए स्वादिष्ट अथवा अच्छा भोजन खाने की मनाही थी क्योंकि उन्हें केवल दूसरे वर्णों की जूठन खाने का ही अधिकार था। इस लिए जीवित रहने के लिए वे मरे पशुओं जिन्हें उठाना उन का कर्तव्य था का मांस खा कर ही जीवित रहने के लिए बाध्य थे।  भगवान दास जी इस में भी अछूतों की अकलमंदी समझाते थे क्योंकि उन्होंने मरे पशुओं का मांस खा कर अपने आप को जीवित तो रखा। यह बात अलग है कि बाद में डॉ. आंबेडकर ने उन्हें मरे पपशुओं का मांस खाने की मनाही की और काफी दलितों ने इसे खाना छोड़ भी दिया है। 

अब सवाल पैदा होता कि ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जातियां जो आज दूसरों को गोमांस खाने से रोकने के लिए कानून बना रही हैं क्या उन्होंने कभी गोमांस नहीं खाया।  इस का उत्तर हिन्दुओं को ऋग्वेद, सत्पथ ब्राह्मण, आपस्तम्ब धर्म सूत्र, बुद्ध के कुतादंत सुत्त, संयुक्त निकाय तथा अन्य कई हिन्दू ग्रंथों में विस्तार से मिल जाता है।  ऋग्वेद में दूध न देने वाली गाय का मांस खाने की मनाही नहीं है। वाल्मीकि रामायण में भी सीता स्वयंबर के लिए जाते समय विश्वामित्र के आश्रम में उन के पसंद के बछड़े का मांस खिलाने का उल्लेख है।  वैसे भी जब राम, लक्ष्मण और सीता जंगल में रहे तो उन्होंने अपने भोजन की पूर्ती कैसे की होगी इस पर अधिक कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है।  क्या मरिचक हिरन को केवल उस की सुन्दर खाल के लिए ही मारा गया था या किसी अन्य प्रयोजन के लिए भी।  इस विषय में अगर कोई अधिक विस्तार से जानने का इच्छुक है तो वह डॉ. आंबेडकर की पुस्तक ‘अछूत कौन और कैसे’ का ‘क्या हिन्दुओं ने कभी गोमांस खाया’ खंड पढ़ सकता है। ; http://whowereuntouchables.blogspot.in/2007/07/blog-post_9602.html वैसे ब्राह्मणों और सवर्णों को यह भी नहीं भूलना चाहिए आज भी अधिकतर ब्राह्मण और सवर्ण शाकाहारी नहीं बल्कि मांसाहारी हैं।  मैं हिन्दुत्ववादियों का ध्यान स्वामी विवेकानंद के 2 फरवरी,1900 को शैक्स्पेयर क्लबए पेसिडिना, कैलेफोर्निया में ‘बौद्धकालीन  भारतष् विषय पर दिए गए भाषण के इस अंश की ओर आकृष्ट कराना चाहूँगा जिस में उन्होंने कहा था’ आप हैरान हो जायेंगे अगर मैं आप को बताऊँ कि पुराने हिन्दू कर्मकांड के अनुसार गोमांस न खाने वाला अच्छा हिन्दू नहीं है । कुछ अवसरों पर उसे बैल की बलि अवश्य देनी होती है।  (स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण वांग्मय, जिल्द 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997, पृष्ट 536) 

अब अगर देखा जाये तो महाराष्ट्र सरकार का यह कानून भारत के नागरिकों के जीने के मौलिक अधिकार का खुला उलंघन है। भारत का संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को सम्मान सहित जीने का अधिकार देता है और जीवित रहने के लिए उचित भोजन ज़रूरी है।  अब अगर आप के भोजन पर प्रतिबंध लगा दिया जाये तो फिर आप सम्मानजनक जीवन कैसे जी सकते है।  इस लिए मेरे विचार में इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए क्योंकि महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाने से मना कर दिया है।  यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारे बेचारे न्यायमूर्ति भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं।  अतः उनसे निरपेक्ष निर्णयों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।  फिलहाल हम लोग सुप्रीम कोर्ट पर कुछ भरोसा कर सकते हैं।   

यह भी ज्ञातव्य है कि हमारे देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 42ः बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और ऐसी ही दयनीय स्थिति महिलायों की भी है।  दलित और आदिवासी बच्चों और महिलायों की कुपोषण की स्थिति तो और भी भयावह है।  क्राई  संस्था द्वारा वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश जिस में एक दलित महिला चार बार मुख्य मंत्री रही है  के सर्वेक्षण से तो कुछ ब्लाकों में 70ः दलित बच्चे कुपोषित पाए गए थे।  कुपोषण की इस भयावह स्थिति को देखते हुए ही हमारे पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने इसे राष्ट्रीय  शर्म की संज्ञा दी थी।  परन्तु हमारी वर्तमान हिन्दुत्ववादी सरकार  से ऐसी संवेदना की उम्मीद नहीं की जा सकती।  यह सर्व विदित है कि दलित, आदिवासी और मुसलामानों का अधिकतर गरीब तबका पशुओं का मांस खा कर कुपोषण से कुछ हद तक बच जाता है परन्तु अब गोमांस पर उक्त प्रतिबंध द्वारा उन का प्रोटीन का यह सस्ता श्रोत भी छीन लिया गया है।  अब तो उन्हें मरना ही है चाहे वे कुपोषण से मरें या बीमारी से मरें। 

अब अगर देश में पशुधन की स्थिति देखी जाये तो यह बहुत शोचनीय है।  हमारे देश में पशुओं  की संख्या तो बहुत है परन्तु उन से मिलने वाला दूध और मांस बहुत कम है।  इस का मुख्य कारण हमारे पशुधन की घटिया नस्ल, उन का कुपोषित होना और बूढ़े तथा अलाभकारी पशुओं का बने रहना है।  हमारे बहुत से राज्यों में पशु चारे का बराबर अकाल रहता है जिस के सम्मुख बूढ़े और अलाभकारी पशुओं का बने रहना दुधारू पशुओं के लिए बहुत शोषणकारी है।  अब अगर बूढ़े और दूध न देने वाले पशुओं को मारने और उन का मांस खाने पर यह प्रतिबंध प्रभावी हो जाता है तो यह पशु पालकों द्वारा आत्म हत्या का एक और कारण बनेगा।  इस के इलावा हमारे देश से भारी  मात्रा में गोमांस विदेशों को निर्यात किया जाता है और गुजरात इस मामले में सब से अग्रणी है।  अब सोचा जा सकता है कि इस कानून का मांस के निर्यात और उस से होने वाली आय पर क्या असर पड़ेगा।  इस के इलावा इस काम में लगे लाखों लोगों के रोज़गार का क्या होगा।  लगता है हिन्दू राष्ट्र बनाने की धुन में लगे हिन्दुत्ववादियों को भारत के गरीबों के इन सरोकारों से कोई मतलब नहीं हैं।  वे शायद इस कार्य को बहुत जल्दी जल्दी पूरा करने में लगे हैं। वैसे उपलब्ध सूचना के अनुसार अमेरिका में गोमांस का धंधा अधिकतर हिन्दू ही करते हैं। 

डॉ. आंबेडकर अक्सर कहा करते थे कि भारत में हमेशा से ‘बहुसंख्यकों का आतंक’ रहा है।  वे आज़ादी के बाद इस आतंक के बढ़ जाने के खतरे की आशंका भी व्यक्त करते रहते थे।  उनका यह भी निश्चित मत था कि भारत के विभाजन के लिए भी ‘बहुसंख्यकों का आतंक’ ही एक प्रमुख कारण बना था।  लगता है कि केंद्र में हिंदुत्ववादियों की सरकार बन जाने से यह आतंक एक अति उग्र रूप धारण करता जा रहा है जो दलितों, आदिवासियों, मुसलामानों और ईसाईयों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है।  इस अंधरे में आशा की जो एक किरन दिखाई दे रही है वह है इस का जन विरोध|  हाल में केरल में लोगों ने ” पशु मांस” की एक खुली दावत की है” इसी प्रकार भोपाल में भी हिन्दू साधु संतों ने इस कानून के खिलाफ धरना दिया है। अतः मेरे विचार में इस कानून के विरुद्ध पूरे देश में सभी वर्गों के लोगोंए मजदूरों और किसानों को लामबंद हो कर विरोध करना चाहिए और इस को रद्द कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में भी याचिकाएं दायर करनी चाहिए।  यह कानून दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और ईसाईयों, मजदूरों और किसानों के हितों पर कुठाराघात है क्योंकि यह जीवन के मौलिक अधिकार, पेशे के मौलिक अधिकार और भोजन के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है तथा किसानों और पशुपालकों के आर्थिक हितों के भी विपरीत है।

एस आर दारापुरी आईपीएस (से. नि.)