(मुश्ताक़ अली अंसारी)

लाकडाउन के बाद दिल्ली से मजदूरों के पलायन के बाद अपनी असफलता छुपाने के लिए सरकार समुदाय विशेष को कोरोना कैरियर साबित करने में में जुटी रही और उधर औद्योगिक राजधानी मुम्बई और भारत के प्रथम औद्योगिक क्षेत्र गुजरात में मजदूरों के सब्र का बांध टूट गया उनका पलायन तो होना ही था क्योंकि उद्दोगपति वर्ग ने अपने चरित्र के अनुसार फैक्ट्री बंद करके मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया था,आखिर कब तक दस बाय दस की टीन की खोली में भूंखो बंद रहते, मुंबई में काम करने वाले कामगार बताते हैं कि राशन की दिक्कत है, भुखमरी की नौबत है लेकिन सरकार सिर्फ़ एप और पोर्टल लांच करके उनके साथ बहुत बड़ा धोखा कर रही है क्योंकि अधिकांश मजदूर बैंक में खाता तो रखते हैं पर एटीएम नहीं रखते और खाते भी उनके मूलनिवास के इलाके में हैं जहाँ वो अपने और अपने माता पिता व पत्नी के खाते में मजदूरी भेजते थे अब न काम न मजदूरी रही बात सरकारी सस्ते गल्ले की वह उन्हें मुंबई में तो मिलना नहीं, वह तो उनके मूलनिवास वाले गांव या कस्बे में ही मिल सकता है अगर रजिस्टर्ड मजदूर जो कुल वास्तविक मजदूरों का मात्र 1 परसेंट है उनके खाते में कुछ पैसा भेज भी दिया तो बैंक ब्रांच तो उनके मूलनिवास के गांव या कस्बे में है,अब वह क्या खाएं और कैसे जिंदा रहे उनके लिए तो जीवन का ही संकट है संविधान भले अनुच्छेद21 में जीने का अधिकार देता है लेकिन राजधर्म का पालन करने में कमजोर सरकार जिसे संविधान की समीक्षा बार बार करनी हो और जनाधिकार वाले बिंदु उन्हें पहले से अखरता रहा हो उनके लिए जीने का अधिकार भी कोई मायने रखता भी है या नहीं, क्योंकि वे मोबाइल ऐप और पोर्टल लांच करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ले रही है। अब मजदूर क्या करें दोपहर में लंच के वक़्त एप खाएं और शाम को डिनर के वक्त में पोर्टल खाएं,उधर मजदूर बस्ती धारावी में संक्रमण के मामले बढ़ने से मजदूरों में भय बढ़ा और वह अपने घरों की ओर पलायन करने को मजबूर हो गए।सरकार ने इस भी विशेष ध्यान नहीं दिया

उद्योगपतियों ने तो सरकार और मजदूर दोनों के साथ दगा किया क्या उद्योगपति वर्ग जो मजदूरों से साल भर काम लेता है और उसके श्रम से मुनाफा कमाता है क्या एक माह भोजन नहीं दे सकता था क्या इस संकट में फैक्ट्री में मजदूरों को जीवन जीने की आवश्यक सामग्री उपलब्ध नहीं करानी थी लेकिन उद्योग पति को सिर्फ़ मुनाफे से मतलब, सरकार भी वैसी ही उद्दोगपतियों को कोई निर्देश जारी नहीं किये यदि सरकार समय से उद्दोगपति वर्ग को सही निर्देश देकर उसका पालन कराती तो आज का संकट न गहराता।लेकिन पूंजीपतियों की यार सरकार मजदूरो को क्या समझे, जो मजदूर खुद को मजदूर ही न समझे और अपनी ताकत न समझे मजदूर संघठनों को हतोत्साहित करना सरकार का काम रहा है परंतु महानगरों में कारखाना फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों में वर्गीय चेतना का अभाव उनकी तबाही की मुख्य वजह है हालांकि सूरत और बम्बई के मजदूर अब पोस्टर बैनर के साथ सड़क पर दिखने लगे हैं।लेकिन सड़कों पर जमा लाखों मजदूरों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा हिस्सा कल शाम तक उसे मस्जिद के सामने जमा मुल्लों की भीड़ बता कर सरकार की चमचागीरी करता दिखाई पड़ा,जो उसका पुराना सगल है। फिर भी मजदूर वर्ग में राजनीतिक चेतना का संचार होगा अब उसे पता चल ही जाएगा कि राजनीति ही रोटी के रेट से लेकर सब कुछ तय करती है।और वह सिर्फ़ जाति और धर्म के नाम पर वोट देने के लिए नहीं है। फिलवक्त मुंबई सूरत का मजदूर पलायान सरकारों की हवाहवाई नीतियों का नतीजा है।आखिर दिल्ली पलायन के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने इस तरफ़ ध्यान क्यों नहीं दिया।(स्वतंत्र पत्रकार)