मोहम्मद आरिफ नगरामी

लखनऊ के नवाबी अहद के एहलियाने लखनऊ माहे मोहर्रम में बेहद सादा, सस्ते, काले या सब्ज रंग क कपड़े पहनते थे, सब्ज रंग को तरजीह दी जाती थी क्योंकि यह रंग आले रसूल से मंसूब है। 5वीं मोहर्रम को लखनऊ में बच्चे ‘‘दरे हुसैन’’ के फकीर बनाए जाते थे। गली में झोली डालकर हाजरीन से भी मांगते थे जो रकम जमा होती वह गुरबा व मसाकीन में तकसीम कर दी जाती। यह रस्म शायद वाकिये कर्बला की याद को ताजा करना था जहां हुसैन के बच्चे खाने के एक एक दाने और पानी के एकए करत को तरस गये थे। अजादारी की इन्हीं मरासिम में एक बड़ी लतीफ रस्म 8वीं मोहर्रम को अदा की जाती थी, उस रोज दूध और शरबत पर हजरत अब्बास की नजर दिलाई जाती थी, हजरत अब्बास मैदाने जंग में अपनी भतीजी यानी हजरत हुसैन की प्यासी साहबजादी के लिए पानी लेने गये थे। उनके हमराह मश्क थी। वह पानी ना पी सके और शहीद कर दिये गये। उन्हीं की याद में यह रस्म अदा होती थी। नजर दिया हुआ दूध और शरबत एक मश्क मंे भर दिया जाता था और वह मश्कबच्चों के कांधों पर उनको भिश्ती बनाया जाता था। बच्चों के दूसरे हाथ में एक छोटा सा कटोरा रहता था जिसमें वह थोड़ा थोड़ा दूध व शरबत उडेल कर लोगों को पिलाते थे।

मोहर्रम की 7वीं तारीख हजरत कासिम बिन हसन के लिए हमेशा में मखसूस रही है। हजरत कासिम की उम्र रोजे आशूर नौ साल बताई गई है। हजरत कासिम हजरत हसन (रजि.) के बेटे और हजरत हुसैन (रजि.) के भतीजे थे। हजरत हुसैन ने अपने बड़े भाई की वसीयत पूरा करने के लिए अपने भतीजे का निकाह अपनी साहबजादी से शबे आशूर कर दिया था। 7वीं मोहर्रम को उनका गम बड़े जोर शोर से मनाया जाता है और उनकी ऊरूसी की याद ताजा की जाती है। एक बड़े बर्तन में एक ज्यादा सीनियों में पिसी हुई मेहंदी भरी जाती थी और उस पर बड़ी बड़ी शमएंें रोशन की जाती थी। साथ ही दूध और मलीदे पर हजरत कासिम की नज्र होती थी। सातवीं मोहर्रम की तरह 8वीं मोहर्रम भी हरत अब्बास अलमदार के लिए मखसूस रही है। हजरत अब्बास, हजरत हुसैन के मुख्तलिफुल वतन छोटे भाई थे। बेहद वफा शआर थे। रोजे आशूर हजरत हुसैन ने उनको अपनी फौज का अलम देकर लश्कर का सियाह सालार बनाया था। आपकी शहादत दरयाए फुरात के किनारे वाके हुई थी। हजरत अब्बास के नाम का अलम मखसूस तर्ज का होता ळै हर इमामबाड़े में यह अलम सबसे अलाहदा और दूसरे अलमों के मुकाबिले में बुलंद होता है। इस अलम की अजमत का एहसास हर अजादार के दिल में हैबत की हद तक तारी रहता है। 8वीं मोहर्रम को दिन गुजर के शाम के वक्त एक जमाने में बहुत बड़े पैमाने पर हजरत अब्बास की हाजरी होती थी। बेहतरीन बड़ी बड़ी नफीस शीरमालों पर कबाब मसाला और पनीर रख कर बड़ी काब में हजरत अब्बास की नज्र उन्हीं से मंसूब अलम के नीचे हुआ करती थी जो हाजरी कहलाती थी। उसी शीर माल और कबाब के बेशुमार हिस्से लोगों के घरों पर दिन ही में तकसीम हो जाया करते थे, यह हाजरी हर इमाम बाड़े को हजरत अब्बास के नाम से कुछ ऐसा मुनसलिक कर दिया था कि 8वीं मोहर्रम को मजालिस में शीरमाल की तकसीम होती है। असल शीरमाल जो खुशबू रंग और जायके की हामिल थी तकरीबन 50 सालों से नहीं मिलती है।

नवाबी दौर में 9वीं मोहर्रम का दिन गिरिया व बुका जो लिए मखसूस था जब दिन गुजर कर रात आती थी तो पुराने लखनऊ में हलचल मच जाती थी, हर शिया घराना नौ दिन पहले ही अजा खाना रहता था। हर गली कूचे मंे रात भर आमद व रफत रहती थी। हर इमामबाड़े में शबे आशूर आराइश व जेबाइश दो बाला हो जाती थी और रोशनी का एहतिमाम तकमील तक पहुंचा दिया जाता था। शाही इमाम बाड़ों में 8वीं और 9वीं दोनों तारीखों में जबरदस्त रोशनी होती थी, इमामबाड़ों में सोने चांदी के अलमों की चमक कारचोबी और जरबफती टपकों की दमक और बिल्लोर की तरह शफ्फाफ झाड़ों और फानूसों से छनती हुई रोशनी और हर तरफ बेपनाह रोशनी को देखकर आंखों मंें चका चैद होने लगती थी। इस रात में ख्वास व अवाम अपने अपने अजा खानों में और ताजिया खानों मंे ज्यादा से ज्यादा रोशनी करते थे। एहाजियाने लखनऊ यही समझते थे कि हजरत हुसैन पहली मोहर्रम से उन्हीं के यहां मेहमान थे और अब उनकी रूखसत करने का वक्त आ गया था। शबे आशूर उनके तसव्वुर में शबे रूखसत हमाम थी।

रोशे आशूर तुलूए आफताब के बाद ही से ताजिए उठने की धमा धमी शुरू हो जाती थी जहां से ताजिया निकलता यह मालूम होता था कि भरे घर से जनाजा निकल रहा है और इस जनाजे को अजीब व अकारिब धूम से उठाना चाहते है। शिया मुसलमान आम तौर से कोई दुनियावी काम रोजे आशूर नहीं करते थे दिन भर फाका करते प्यासे रहते डली तंबाकू तक नहीं खाते थे। खामोशी के साथ सर व पा बरहना घरों से निकल कर अपने ताजियों के साथ या दूसरे ताजियों की रास्ते में जियारत करते हुए कर्बला पहुंच जाते थे और आमूले आशूरा करके सारा वक्त गम में गुजारते थे। अमायदीने शहरशाहजदगान और रईस लोग रोजे आशूरा बाहर नहीं निकलते थे वह अपने महल सरावों में किसी तनहाई के मुकाम पर सारा दिन गुजारते थे। अलबत्ता फाका शिकनी के वकत अपने अपने इमाम बाड़ों में फाका शिकनी कराते और खाना खिलाते थे। उस जमाने में हर खाना जायका और खुश रंग पकता था और अनवा व अकसाम की गिजाए मौजूद रहती थी। लेकिन उस दिन यह ख्याल रखा जाता था कि गिजाए सादा और बेकैफ हो। इस लिए रईसों के दस्तख्वान पर सिर्फ बाकर खानी, सालन कबाब आर दाल चावल होता था। यही भी ख्याल रखा जाता था कि उस दिन दस्तरख्वान पर कोई मीठी डिश ना आये जिन मखसूस चीजों पर इमाम की नज्र होती थी वह नान जौ साग दूध शरबत पर होती थी। नज्र की प्लेट रईस के सामने रखी जाती थी व अपनी मर्जी के मुताबिक दूसरों को थोड़ा तबरूर्क चखा देते थे फिर खाना शुरू होता था। लखनऊ के बड़े इमामबाड़ों में सादा पुलाव से फाका शिकनी कराई जाती थी। अलबत्ता लखनऊ के शुरफा और अवाम के घरों में ‘‘सत नजे’’ से फाका तोड़ा जाता था। यह गिजा सात किस्म की अजनास को झून कर तैयार होती थी। यह गिजा उस वाकिय की याद ताजा करती है कि हजरत हुसैन की शहादत के बाद खेमों में आग लगा दी गई थी और अजनास की किस्म का जो कुछ भी था सब भुन गया था। ‘‘सत नजे’’ के साथ असल गिजा खड़े मसूर की दाल और चावल होते थे यह गिजा आज तक रायज है।